विशेष रुप से प्रदर्शित

शगुन के स्वर

शगुन के स्वर- परंपरा को सहेजते गीतों का संग्रह

“बन्नी आई चुपके से बन्ने के ख्वाब में
बन्नी बोली बन्ने से कंगन ले के आना
जो भी किये हो वो वादे निभाना
मुझको पहनाना तुम अपने हाथ से
बन्नी आई चुपके….
किरण सिंह विवाह का अवसर ढोलक की थाप, मजीरे का संग और हवा में तैरते लोकगीतों, देवी गीतों और बन्ना बन्नी साथ में होती ननद-भौजाई की चुहल, लड़के वालों और लड़की वालों के बीच जवाबी तान... कौन सा ऐसा भारतीय मन होगा जिसने स्मृतियों की गांठ में ये सहेज कर ना रखा हो l परंतु बदलते समय के साथ पश्चिमी सभ्यता की ऐसे आंधी चली कि हम अपनी ही परंपरा को भूलने लगे l डी जे के कानफोडू शोर में परंपरा की मिठास कहीं खो गई l विदेशी लिबास में भारतीय मन अतृप्त रह गया l एक पीढ़ी बाद जब होश आया तो ढोलक पर झूम-झूम कर गाने वाली एक पीढ़ी हमसे विदा ले चुकी थी l ऐसे में ज़रूरी हो गया कि कुछ लोग आगे आयें और उसे सहेजे l

किरण सिंह जी ने एक साहित्यकार होने के नाते ये बीड़ा उठाया और ले कर आई “शगुन के स्वर” जिसमें विवाह के समय गाए जाने वाले गीत हैं l इसके गीत दो भागों में विभाजित हैं l पहले वो जो पारंपरिक रूप से गाए जाते हैं और दूसरे जो किरण जी के स्वरचित है l कविता, कहानी और बाल साहित्य की पुस्तकों के बाद लोक के लिए उनका ये अनूठा कार्य है l लोकगीतों की हमारे देश की समृद्ध शाली परंपरा को सहेजते गीतों का यह संग्रह अद्भुत है। मोबाइल में होने के कारण इसे किताब ले जाने या याद रखने के झंझट के बिना आसानी से गाया जा सकता है। अब इसे देखिए—
होत सबेरे कृष्ण जागेले
होत सबेर कृष्ण जागेले
बंशिया बजावेले है 2

ए जागहुँ जग-संसार
चलहुं राधा खेल्न हे 2

इसे पुस्तक के रूप में लाने का कारण वो अपनी बात में स्पष्ट करती हैं कि, “मुझे याद हैं वो बचपन के दिन जब गांवों में शादी विवाह के दिनों में या तीज त्योहारों में गीतों की स्वर लहरी से सारा वातावरण गूंज उठता था l वैसे ये प्रथा गांवों में आज भी जिंदा है, परंतु दुख होता है कि सहारों में उस प्रथा और ढोलकी की थाप की जगह डी जे ने ले ली है l इसी कारण मैंने इसे संग्रह के रूप में लाने की ठान ली l

नई पीढ़ी को अपने पारम्परिक स्वाद से परिचित कराने के साथ साथ दहेज का विरोध करने वाला दूल्हा एक शिक्षा व आश्वासन है कि बहु ही असली दहेज है को शिरोधार्य किया जाए। इस हुंकार को तिलक के समय ढोलक की थाप पर गाए गीत की एक बानगी देखिए…
आदतें अपनी अब दो बदल
नहीं तो बड़ा महंगा पड़ेगा
मांगेगा जो भी दहेज
वो लड़का कुंवारा रहेगा
लेकिन बदलते पुरुष को भी उन्होंने देखा है और वो भी जवाब में दहेज लेने से इंकार करते हैं

“ दहेज मैं क्या करूँगा
मैं तो साले जी दिल का राजा
बन्नी दिल की रानी
दहेज मैं क्या करूँगा तो अंत में यही कहूँगी कि सहलगे शुरू हो गई है और अगर आप भी अपनी परंपरा को सहेजते इन गीतों को गाना – गुनगुनाना चाहते हैं तो ये एक अच्छा विकल्प है l

प्रिय मित्र किरण सिंह जी के इस अद्भुत प्रयास के लिए बहुत बहुत बधाई व शुभकामनाएं।

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बातों – बातों में

कृति: बातों-बातों में
कृतिकारः किरण सिंह
प्रकाशकः वनिका प्रकाशन,
एन ए-168, गली नंबर-06
विष्णु गार्डन, नई दिल्ली-110018

पृष्ठः 104 मूल्यः 190/-

समीक्षकः मुकेश कुमार सिन्हा‘चूँकि आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में व्यक्ति के पास समयाभाव है, इसलिए वो शाॅर्टकट रास्ता खोज लेते हैं। ऐसे में साहित्य की दुनिया में लघुकथाओं के प्रति पाठकों का रुझान बढ़ना स्वाभाविक है।’

अनेक विधाओं में पुस्तकों के लेखन के बाद पुस्तक ‘बातों-बातों में’ के साथ लघुकथा की दुनिया में पाँव रखने वाली किरण सिंह की ऊपरवर्णित बातें सच की कसौटी पर खरी उतरती है। अब लोगों के पास फुर्सत कहाँ है? कौन पढ़ने में इतनी जहमत उठाता है? शीर्षक पढ़कर अखबारों को एक ओर पलटने वाली पीढ़ी को कहाँ पसंद है लंबी कहानियों को पढ़ना?
साहित्य की यह विधा यानी लघुकथा आजकल ज्यादा पसंद की जा रही है, ऐसा इसलिए कि भागती-दौड़ती जिंदगी के बीच लोग गोता डालकर आसानी से उससे निकल जा सकें। दोहे की तरह लघुकथाएँ भी साहित्यप्रेमियों को ज्यादा आकर्षित कर रही है।
लघुकथाकार किरण सिंह भी लिखती हैं-‘काव्य में जिस तरह से दो ही पंक्तियों में दोहे अपना प्रभाव छोड़ते हैं, ठीक उसी प्रकार लघुकथाएँ भी कम शब्दों में बहुत कुछ कहने, सोचने-समझने, जीवन के उलझनों को सुलझाने तथा निष्कर्ष निकलने की क्षमता रखती है और पाठकों के मन-मस्तिष्क पर अपना प्रभाव छोड़ती है।’
लघुकथा संग्रह का नाम है-‘बातों-बातों में’। सुंदर नाम है! सच ही तो है कि बातों-बातों में न जाने कितनी बातें निकल आती हैं। बातें कभी रुलाती हैं, तो कभी हँसाती हैं। और, कभी सोचने को विवश भी कर देती हैं। बातें कभी समझाती हैं, कभी पथ प्रदर्शक बनकर खड़ी हो जाती हैं। बातों-बातों में निकली कई बातों को लघुकथाकार ने शब्द रूपी माला में गूँथकर भावनाओं को कागज पर उतारने की सुंदर और सफल कोशिश की हैं।
कुल 85 लघुकथाएँ हैं संग्रह में। यह संग्रह समर्पित है समाज को, क्योंकि समाज में घटित घटनाओं ने ही किरण सिंह को झकझोरा, जिसकी वजह से उनकी कलम लिखने को मचल उठी।
अपनी बात में किरण सिंह लिखती हैं-‘मैं बहुत ही ईमानदारी से स्वीकार करती हूँ कि इस संग्रह की सभी लघुकथाएँ सत्य घटना पर आधारित हैं और बातों-बातों में ही बनी है जिन्हें मैंने कलमबद्ध करने का प्रयास किया है।’
यूँ कहा जाये, तो यह लघुकथा संग्रह समाज का आईना है। समाज में जो कुछ भी दिखा, उसे इस लघुकथा संग्रह में संजोया गया है। अब बात लघुकथाओं की।
हम शहरी हो गये हैं, कहाँ गाँव जाना पसंद करते हैं? गर्मी की छुट्टी भी होती है, तो गाँव जाने की कहाँ सोचते हैं? हालाँकि मोहित का फैसला प्रेरणादायी है। गर्मी की छुट्टियों में जम्मू जाने का फैसला कैंसिल कर वह गाँव जाने का निर्णय किया। ‘एक पंथ दो काज’ में लघुकथाकार का संदेश है-‘गाँव में क्या नहीं है, क्या कश्मीर से कम है गाँव?’ ‘चारों धाम’ में सुंदर बाबू ने भी ठीक ही कहा-‘मुझे तो नौकरी वाली जिंदगी में बहुत ऐशो आराम मिला, कमी रह गई थी तो गाँव की सहज, सरल जीवन शैली तथा अपनेपन की इसलिए मैं तो रिटायरमेंट के बाद अपना अधिकांश समय गाँव पर बिताता हूँ जहाँ मुझे गंगा के किनारे कश्मीर की झील नज़र आती है तो खेतों में वहाँ की वादियाँ। वहाँ के मंदिर में चारों धाम और बड़े-बुजुर्गों में देव…।’ गाँव मझौआं (बलिया) में जन्म लेने वाली लघुकथाकार की कलम गाँव की खासियत का कैसे नहीं बखान करती?
घर में भाइयों के बीच अनबन का होना कोई नयी बात नहीं है। जहाँ बर्तन होते हैं, वहाँ बर्तनों का ढनमन होना लाजिमी है। लेकिन, क्या हम अनबन की स्थिति में भाइयों से बात करना बंद कर दें? एक मासूम सा आर्षी ने क्या खूब कहा-‘मम्मी, इस घर का रूल (नियम) बना दीजिए कि चाहे जो भी हो जाए फैमिली का कोई भी मेम्बर एक-दूसरे से बात करना नहीं बंद कर सकता। आर्षी के मुँह से निकली यह बात सोचने को बाध्य करता है।
हमें हठधर्मी नहीं होना चाहिए, इस बात की सीख है ‘मन्नत’ में। हम कई बार यह सोचते हैं कि मैं क्यों बात करूँ? वो क्यों नहीं कर सकता है? इस चक्कर में दूरियाँ बढ़ती हैं। सच यह है कि बात-चीत करने से न केवल मन हल्का होता है, बल्कि संशय की स्थिति भी खत्म हो जाती हैं।
हम अक्सर हर गलतियों पर वर्तमान पीढ़ी को ही दोषी ठहरा देते हैं। लेकिन, क्या गलतियाँ हमारी ‘परवरिश’ की वजह से नहीं हो रही है? ‘परवरिश’ में यह समझाने की कोशिश की गयी है कि दोष आज की जेनरेशन में नहीं, परवरिश में है। हम बच्चों को नैतिकता का पाठ पढ़ायें, उन्हें बड़ों का आदर करना सिखलायें, ताकि रत्ना जैसी माँओं को कभी रोना नहीं पडे़।
‘संस्कार’ में नयी पीढ़ी के लिए संदेश है। यह सच है कि नयी पीढ़ी संस्कार को भूलते जा रही है। काश! रोहित की तरह हर कोई बुजुर्ग के लिए अपनी कुर्सी छोड़ दे। मगर ऐसा होता कहाँ है? नयी पीढ़ी कहाँ सोच पाती है इतना? एक बात और। हम-आप के मन में यह धारणा घर गयी है कि पूत परदेशी हो जाता है, तो यह समझ लिया जाता है कि उसके पास संस्कार नहीं बचा, संस्कृति नहीं बची। जब श्याम बाबू को यह पता चलता है कि उनका ‘परदेशी पूत’ आरोह दादाजी के श्राद्ध अवसर पर खाना पैक करवाकर मंदिरों और स्टेशनों पर बाँटने चला गया है, तो वो गर्व से भर उठते हैं। नयी पीढ़ी मतलब बेटे से जब मान बढ़ता है, सम्मान बढ़ता है, तो पिता की आँखों में आँसू ढलक पड़ते हैं। महेश बाबू की आँखें भी रोयी, मगर आँसू ‘गर्व के आँसू’ थे।
‘सवाल’ संदेश छोड़ता है। हम अक्सर ही औलादों पर अपनी मर्जी थोप देते हैं। हम चाहते हैं कि वो बड़ों की मर्जी का विषय चुने, पढ़े। ऐसा नहीं होना चाहिए। बच्चों को उसकी अभिरुचि पर भी ध्यान दिया जाना जरूरी है। अपनी रुचि का विषय कितना भी कठिन हो, आसान-सा लगता है। ‘दीक्षा’ में भी नयी पीढ़ी के लिए सीख है। ‘एकौ साधे सब सधे, सब साधे सब खोय। अर्थात एक की साधना करने से सब साधित हो जाएगा और सभी को साधने के चक्कर में सब कुछ भूल जाएगा।’ गुरु की इस दीक्षा से अक्षरा की आँखें खुली। केवल अक्षरा ही नहीं, हर युवाओं के लिए यह सीख है।
कम समय में सब कुछ पा लेने वाली नयी पीढ़ी में संयम है ही नहीं। पढ़ाई तो साधना है। शिखर का कथन उदाहरण है। ‘एक्सपीरियंस’ भी कोई चीज होती है। शिखर ने अपने भाई प्रखर को इस रूप में समझाया-‘देख भाई, सक्सेस का कोई शाॅर्टकट नहीं होता और बिना मेहनत किए कुछ भी नहीं मिलता है। सफलता का मूल मंत्र है मेहनत, मेहनत और मेहनत। देखो इंसान को कभी न कभी तो मेहनत करनी ही पड़ती है। जो आज ज़्यादा मेहनत करेगा उसे कल आराम वाला काम मिलेगा और जो आज कम मेहनत करेगा उसे जीवन भर संघर्ष करना पड़ेगा।’
समाज में ऐसी मान्यता है कि सास और माँ में अंतर होता है। ‘दिल की जीत’ में लघुकथाकार द्वारा यह संदेश छोड़ा गया है कि सास और माँ में कोई अंतर नहीं होता है। सीमा के लिए उसकी सास सुबह से शाम तक पूजन-अर्चना करती, प्रार्थना करती। ऐसे में सीमा की आँखों से गंगा-जमुना का बहना लाजिमी था। ‘मुस्कान’ एवं ‘सुकून भरी दृष्टि’ में भी सास-बहू के किस्से हैं।
ठीक ही कहा गया है न कि ‘आई हैव अ प्राॅब्लम विथ द कांसेप्ट आॅफ मदर्स डे…।’ हमारे लिए तो हर दिन मातृ दिवस है। माँ को दिवस में क्यों बाँधना? ‘आंतरिक सौंदर्य’ में एक माँ का कहना कितना मार्केबल है, सोचा जा सकता है? ‘बेटा, लड़की देखने जा रहे हो तो इतना ध्यान रखना कि हमें माॅडल और हिरोइन नहीं घर में एक परिवार चाहिए जो तुम्हारी बीवी बन सके और हमारी बहू इसलिए लड़की के बाह्य सौंदर्य से अधिक आंतरिक सौंदर्य को तवज्जो देना।’ यह सच है कि आजकल लड़कियों का आंतरिक सौंदर्य कौन देखता है? मगर, कलम ने आंतरिक सौंदर्यता की वकालत की है। सच भी यही है!
हालाँकि दूसरी ओर ‘नौकरी वाला लड़का’ में इस बात को प्रमुखता से रखा गया है कि एक माँ अपनी बिटिया को एकल परिवार में देखना चाहती हैं। चाहती हैं कि उसके परिवार में केवल वो और उसका पति रहे, लेकिन अपनी बहू को संयुक्त परिवार में रहने की नसीहत देती हैं। आखिर ऐसा क्यों है? माँ के दो स्वरूपों से पाठकों को रू-ब-रू कराया गया है। यह है कलम की निष्पक्षता!
‘रिश्तों का गणित’ यह समझाने को काफी है कि आजकल रिश्ते के क्या मायने रह गये हैं? रिश्तों पर पैसे का प्रभाव हो गया है। महन्ती देवी ने क्या कहा, देखिए-‘वो क्या है न कि तुम्हारा कमाऊ पति है, और परिवार के सभी सदस्य उसपर आश्रित हैं, इसलिए तुम्हें मान देना उनकी मजबूरी है, वर्ना…।’
‘तुलना’ लघुकथा सोचने को बाध्य करती है। किसकी जिंदगी अच्छी है, रमा की या श्यामा की? श्यामा बेटे-बहू के साथ रहकर भी अकेली होती हैं, क्योंकि बेटे-बहू से उनकी बातचीत बंद है, वहीं रमा वृद्धाश्रम में होती हैं, मगर बेटा दिन में चार-पाँच बार काॅल कर लेता है, तो माह में एकाध बार यहाँ आकर माँ को देख भी लेता है।
लघुकथाकार ने सच लिखा कि कभी-कभी आदमी को ‘भ्रम’ में भी जी लेना चाहिए। इससे रिश्ता बना रहता है और विश्वास भी नहीं डोलता है। मोना ने कितनी अच्छी बातें कही-‘अच्छा है मैं खूबसूरत भ्रम में ही जीऊँ।’ पति के अवैध संबंध पर ठीक ही कहती हैं-‘अगर यह बात झूठ हुआ, तो विशाल को लगेगा कि मुझे उन पर विश्वास नहीं है और अगर सच हुआ, तो मेरा विश्वास अपने विश्वास पर से ही उठ जायेगा।’ ‘लाल गुलाब’ पति-पत्नी के प्रेम का उदाहरण है। इसमें यह नसीहत है कि हम बहुत जल्द किसी के प्रति कोई नकारात्मक धारणा नहीं बना लें।
यह घर-घर की कहानी है। घरेलू महिलाएँ दिन-रात अपना समय घर-परिवार को देती हैं, लेकिन कहाँ कोई मोल देता है उन्हें? रत्ना भी घरेलू महिला है, लिखने-पढ़ने में अभिरुचि है। जब उसकी किताबें छपीं, तो घर-परिवार में विरोध होने लगा कि किताब प्रकाशित करना, मतलब पैसे में आग लगाना है, लेकिन जब उसे लेखन का पुरस्कार मिला, तो आँखें खुशी से भर गयी।
‘खुशी के आँसू’ में जहाँ कलम की जय है, वहीं ‘धन की महिमा’ में धन की। ज्योति जैसी साहित्यकार इसलिए बस कलम घिसती रह जाती हैं कि उसके हिस्से की खुशियों को कोई धन से खरीद लेता है। ‘संपादक बनने का शौक’ यह बताने को काफी है कि जिसे लिखना भी नहीं आता है, वो भी संपादक बने फिर रहे हैं। ‘सप्रेम भेंट’, ‘उपहार’ ‘आॅनलाइन माजरा’, ‘रचना चोर’ ‘साहित्यिक राजनीति’ और ‘पर्दाफाश’ साहित्यिक दुनिया की खबर लेती है।
आजकल पुरस्कार लेने के लिए क्या-क्या करने पड़ते हैं, इसकी बानगी है ‘पर्दाफाश’ में। वहीं रचनाओं पर जब पारिश्रमिक मिलता है, तो कैसे चेहरा खिल उठता है, यह है ‘पारिश्रमिक’ में। ‘पुरस्कार का जादू’ में यह दर्शाया गया है कि पुरस्कार की कितनी अहमियत है। कल तक जिनको अलग बैठने के लिए कहा जाता था, पुरस्कार के बाद उनके साथ बैठने की आपा-धापी लगी रहती है। गजब की है दुनिया! ‘समय की बात’ है न। समय जो न कराये। कल तक कन्नी काटने वाले कैसे बात करने को मचल उठते हैं, ताज्जुब होता है।
समाज में ऐसी मान्यता है कि दान ऐसा कीजिए कि इस मुट्ठी से दीजिए, तो उस मुट्ठी को भी पता नहीं चले। लेकिन, अब दान प्रदर्शन का विषय हो गया है। दान देते हुए तस्वीर न हो, तो दान संपूर्ण माना ही नहीं जाता है। अब दान के नाम पर केवल ड्रामा होता है, नौटंकी केवल नौटंकी! मुँह से स्वतः यह बात निकल आती है कि ‘यह कैसा दान है’?
एक बात मानिए जरूर। हम किसी की मदद करते हैं, तो ऊपर वाला भी फरिश्ता बनकर मदद को खड़ा रहता है। ‘ईश्वर का रूप’ प्रत्यक्ष उदाहरण है। ‘एहसान’ में लघुकथाकार ने बेहतर बिंब खींचने की कोशिश की हैं। हर बार मदद माँगने वाला हाथ मदद को ही आये यह जरूरी नहीं है, वह देना भी जानता है। श्याम बाबू को किडनी देने की बात सुनकर सविता को खुद को कोसना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। आदमी गरीब होता है, तो इसका यह मतलब नहीं कि उसमें स्नेह नहीं होता है। कांताबाई का स्नेह देखकर निशा की आँखों में ‘पश्चाताप के आँसू’ का बहना स्वाभाविक था।
हम स्वार्थी हो गये हैं। हम अपने स्वार्थ में भूल जाते हैं पर का दुख। क्या डाॅक्टर इंसान नहीं होते? उन्हें भी भूख लगती है, प्यास लगती है। लेकिन, जरा सा विलंब होने पर हम चिकित्सकों को भला-बुरा कहने लगते हैं। सीनियर डाॅक्टर ने रेखा से ठीक ही कहा-‘आपका गुस्सा जायज़ है लेकिन एक इंसानियत के नाते आप भी सोचिए कि क्या डाॅक्टरों को खाने-पीने की भी ‘इजाज़त’ नहीं है? डाॅक्टर कभी नहीं चाहते कि किसी भी मरीज की मौत हो! ‘डंडे की भाषा’ में डाॅक्टर की बातों को लघुकथाकार लिखती हैं-‘अगर आपके तोड़-फोड़ मचाने और मुझे जान से मारने से आपका मरीज जीवित हो जाए तो जरूर मारिए। आपके इन्हीं कारनामों की वजह से चाहकर भी कोई डाॅक्टर गाँव में नहीं आना चाहता है। मुझे भी मेरे परिजन नहीं आने दे रहे थे लेकिन मैं आपकी सेवा के लिए आया था।‘ खैर, लघुकथा में यह प्रश्न छोड़ा गया है कि भीड़ कैसे हटी, डाॅक्टर की बात से या पुलिसिया डंडे से?
‘आदर्श बाबू और होशियार बाबू’ में तंज है। आज कल सेटिंग-गेटिंग का जमाना है। यदि सेटिंग-गेटिंग में कोई महारत हासिल नहीं किया, तो समझ लीजिए, वह धूल फाँकते रह जायेगा! अब आदर्श बचा कहाँ है? नैतिकता भी तेल लेने गयी है। ‘ऊपरी आमदनी’ में भ्रष्टाचार पर व्यंग्य है। विभाग पर नेताओं के शिकंजे की पोल खोलती है-‘दादागिरी’। सिस्टम कितना गड़बड़ हो गया है, ‘नए साहब’ से जाना-समझा जा सकता है। सिस्टम की गड़बड़ी की वजह से नये आदमी को भी भ्रष्ट आचरण में मजबूरन संलिप्त होना पड़ता है। बड़े बाबू का व्यंग्यात्मक टिप्पणी-साहब अभी नए-नए हैं, सिस्टम के पोल खोलने को काफी है।
क्या हम स्वास्थ्य को लेकर गंभीर हैं? शायद नहीं। निश्चित, हम स्वास्थ्य से ज्यादा प्रोपर्टी का ख्याल करते हैं। अमूमन हम सब मेडिकल रिपोर्ट को इधर-उधर रख देते हैं, मगर प्रोपर्टी के पेपर को बिल्कुल सुरक्षित रखते हैं। ‘संकल्प’ में चिकित्सक की इस बात से संकल्प लेना जरूरी है-‘आप अपनी प्रोपर्टीज के पेपर्स तो तिजोरी में सुरक्षित रखे हुए हैं और इतने अनमोल शरीर के पेपर को सँभाल कर नहीं रख सकते हैं? बताइए, जब आपका शरीर ही स्वस्थ नहीं रहेगा तो प्रोपर्टी कैसे सँभालेंगे?’
‘गुहार’ में एक तरफ माँ की ममता है, तो दूसरी तरफ पद के अनुरूप आचरण का अभाव। महेश्वरी देवी न्याय की कुर्सी पर बैठी होती हैं, मगर बेटे की वजह से जब उनकी प्रतिष्ठा पर आँच आती है, तो वो पीड़िता से गुहार लगाने लगती हैं, पीड़िता को नोटों से भरा लिफाफा थमाती हैं। अक्सर ही ऐसा होता है, हम बातें बड़ी-बड़ी करते हैं, लेकिन कथनी और करनी में बड़ा फर्क आ जाता है। लघुकथाकार की तीक्ष्ण आँखों से भला ऐसी चीजें कैसे अछूती रह जाती?
‘जमाना बदल गया है‘ और ‘नई मालकिन’ में बहुएँ क्या सोचती हैं, का ताना-बाना है। श्वेता भी बहू थी, जो यह कह रही थी कि वो आरव यानी पति के परिवार वालों का कोई काम नहीं करेगी। सेजल भी बहू ही है, जो अपनी ननद की शादी के लिए ज्वेलरी बैग को अपनी सास के हाथों में यह कहकर थमा देती है कि ‘जब आपने मुझे मेरी मुँह दिखाई पर घर की चाबियाँ दी थी तो इस घर की जिम्मेदारी मेरी भी हुई न? गहनों का क्या है, फिर जब पैसे होंगे, तो बन जाएँगे।’
‘पच्चीसवीं वर्षगाँठ’ आधुनिक सोच पर तमाचा है। हम फैशन में इस कदर चूर हो गये हैं कि भूल गये हैं अपनी संस्कृति को, अपने संस्कार को। हल्दी, वरमाला और सिंदूर दान का फिर से होना क्या परंपरा के साथ मजाक नहीं है?
शराबबंदी की वजह से समाज में क्या बदलाव आया, इसका लेखा-जोखा है ‘शराबबंदी’ में। शराबबंदी वरदान है। इसकी वजह से घर-परिवार की इज्जत बच रही है, पैसे बच रहे हैं। हिंसा से मुक्त हो रहा है घर-समाज। सोनी एक उदाहरण है, सोनी जैसी अनगिनत महिलाओं के चेहरे पर आज शराबबंदी की वजह से खुशी है।
‘अभी बताता हूँ’ में पुलिसिया रौब की जबर्दस्त खबर ली गयी है। पता नहीं समाज से पुलिसिया रौब का अंत कब होगा? कब मुफ्तखोरी की आदत छूटेगी? महसूस कीजिए गरीब की बेबसी को इस लघुकथा में- ‘न बेटा, तू पढ़ाई कर, मैं बेच लूँगा, हम गरीब छोटी-मोटी बीमारी में बैठ जाएँगे तो बीमारी से मरे न मरे भूख से ज़रूर मर जाएँगे।’ ‘सौदा’ लघुकथा भी प्रश्न छोड़ती है। गरीब को कितना सौदा करना पड़ता है, आश्चर्य होता है? एक गरीब युवती की शादी अधेड़ के साथ करा दी जाती है। वजह क्या है, देखिए-‘दरअसल हम बहुत गरीब हैं। घर में खाने के भी लाले पड़े हैं, उस पर पिता की बीमारी भी…। मुझे यही एक सही और सुरक्षित रास्ता लगा, इसलिए मैंने इनसे विवाह कर लिया ताकि मुझे घर मिल जाए, मेरी माँ को पैसे और अभी जो गए हैं उनकी जान बच जाए। इसलिए मैं इन्हें अपनी किडनी स्वेच्छा से दे रही हूँ।’ ‘दहेज’ भी इसी ताना-बाना के साथ बुनी हुई लघुकथा है। पंक्ति देखिए-‘चुप कर, मैंने यूँ ही अपने बेटे का विवाह एक कंगाल बाप की बेटी से बिना दहेज के थोड़े न किया है।’ मतलब, पूरा परिवार जानता था कि रोहित की किडनी खराब है। उसकी पत्नी किडनी देगी, इसी आस में बिना दहेज की शादी करायी गयी। वाह रे समाज! वाह रे सोच!
‘गरीबों की मजदूरी’ की भी पंक्तियाँ सोचने को मजबूर करती हैं-‘डर लगता है कि कब कौन हमारी बेटियों के साथ कुछ गलत काम न कर दे इसीलिए जल्दी से शादी करके हम गरीब गंगा नहा लेते हैं।’ यह एक माँ की वेदना है और सभ्य समाज पर तमाचा भी। बेटियों पर बुरी नजर से आँखों में दर्द, भय, चिंता और आक्रोश क्यों नहीं होगा? हालाँकि ‘चण्डी रूप’ में बेटियों को चण्डी रूप धारण करने की अपील है। यह नसीहत है कि वक्त पर औरत को रौद्र रूप धारण कर लेना चाहिए। यदि औरत रौद्र रूप अख्तियार कर ले, तो प्रतिकूल समय को भी अनुकूल बना सकती हैं। मीरा ने अपनी बहू को ठीक ही कहा-‘वक्त पर औरतों को चण्डी का रूप धारण करना जरूरी हो जाता है।’
हिन्दी में लिखने वाली लघुकथाकार किरण सिंह मातृभाषा हिन्दी की वकालत करती हैं। हम हिन्दी भाषियों को अपने ही देश में सिर्फ अंग्रेजी नहीं बोलने की वजह से बार-बार अयोग्यता का दंश झेलना पड़ता है, ऐसा कदापि न हो, यह संदेश है ‘हिंदी में प्रश्न’ का। रानी जैसी कई प्रतिभावान बस इसलिए अयोग्य करार दी जाती हैं कि उन्हें अंग्रेजी नहीं आती। लघुकथाकार द्वारा हिन्दी भाषियों के मन की बात को पूरजोर ढंग से रखने की यथेष्ट कोशिश की गयी है।
पुरानी परंपरा को आधार मानकर ‘उल्लू’ की रचना की गयी है। उल्लू का बैठना अपशगुन माना जाता है, लेकिन प्रश्न यह भी है कि सावन-भादो में उसके बसेरा को हटाना कैसे शगुन माना जा सकता है? रोहित ने कहा-‘सीमा, तुम ज़रा विचार करो कि सावन-भादो के इस महीने में किसी का घर उजाड़ने से कैसे शगुन हो सकता है? ये पक्षी भी तो एक जीव हैं।’ तंत्र-मंत्र पर प्रहार है-‘तंत्र-मंत्र’। यह संदेश भी कि बीमार पड़ने पर हमें चिकित्सक के पास जाना चाहिए, न कि किसी तांत्रिक के पास। पतिव्रता धर्म की आड़ में आडम्बर बिल्कुल भी नहीं करना चाहिए, ऐसी नसीहत है लघुकथा ‘पतिव्रता धर्म’ की। अंधविश्वास पर चोट है-‘लाल ड्रेस’।
एक बात है, समाज में बेवजह के मुद्दे को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने वालों की कोई कमी नहीं है। इस पर भी लघुकथाकार की नजर गयी है। ‘भरोसा’ को देख लीजिए। सिर पर इंफेक्शन होने की वजह से अतुल अपने पिता की मौत पर बाल नहीं मुड़ाता है। इस तथ्य को जाने-समझे लोग कितनी बातें कहने लगते हैं? माँ का कहना था-‘बेटा मुझे तुम पर और अपनी परवरिश पर भरोसा है। लोगों को तो दुख हो या सुख बात बनाने का मुद्दा चाहिए।’
लघुकथा ‘तुम इन फूलों जैसी हो’ में बेहतर व्यवहार करने की नसीहत है। निश्चित, काँटों को प्यार से भी छुआ जाये, तो वो चूभेगा ही और गुलाब को मसल भी दिया जाये, तो वो सुगंध फैलाना नहीं छोड़ेगा। इसलिए, व्यवहार में रुखापन किसी भी सूरत में न हो, इसका सदैव ख्याल रखना चाहिए। ‘वादा’ यह संदेश देता है कि हमें किसी के चढ़ावे में नहीं आना चाहिए। सोचिए, यदि रत्ना बातों में आकर पति से शिकायत कर लेती, तो क्या इज्जत रह जाती? ‘मानवता धर्म’ लघुकथा मानवता को जीवंत रखने की वकालत करती है।
‘कुकिंग टीचर’, ‘मदद’, ‘ईश्वर का रूप’ एवं ‘आत्मबोध’ लघुकथाएँ कोरोना काल में उपजे परिदृश्यों को आधार बनाकर रची गयी हैं। वहीं ‘यक्ष प्रश्न’ ‘जस्ट बी व्हाट यू आर’, ‘छोटी सी बात’ एवं ‘मासूम सवाल’ बच्चों के मुख से निकली बातों के आधार पर रचित है। बदले हुए जमाने की तस्वीर है-‘रिलेक्स माॅम’। ‘जल’ मार्मिक लघुकथा है, तो ‘मन की गिरह’ गिरह खोलती है। बेटियों के जन्म पर आँसू बहाने वाला यह समाज कैसे बेटियों की तरक्की पर इठलाता है की खबर लेती है लघुकथा ‘बेटियाँ’। ‘हमें कुछ नहीं चाहिए’ में सचबयानी है।
सत्य घटनाओं पर आधारित इन लघुकथाओं में बनावटीपन का कोई प्रश्न ही नहीं है। हम और आप जब इन लघुकथाओं से होकर गुजरेंगे, तो महसूस करेंगे कि ऐसी घटनाएँ हमारी और आपकी आँखों के सामने घटित हुई हैं। लघुकथाओं में घर-परिवार-समाज के किस्से हैं। इसमें व्यंग्य है, तंज है, चिंता है, सुझाव है। लघुकथाकार की माइक्रोस्कोपिक दृष्टि को सलाम है! लघुकथाओं की भाषाशैली बिल्कुल सहज और सरल है, जो पाठकों को कहीं अटकाती-भटकाती नहीं है। हालाँकि कुछेक स्थानों पर प्रूव की कमी है।

द्वारा सिन्हा शशि भवन
कोयली पोखर, गया-823001
चलितवार्ता-9304632536

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जीवन की लय

कृति: जीवन की लय
कृतिकार: किरण सिंह
प्रकाशकः अयन प्रकाशन,
जे-19/39, राजापुरी,
उत्तम नगर, नई दिल्ली।

पृष्ठः 104 मूल्यः 260/-

समीक्षकः मुकेश कुमार सिन्हा

जीवन का मतलब ही होता है, कभी गिरना, तो कभी उठना। अर्थात जीवन में उतार-चढ़ाव का आना-जाना लगा रहता है। दुख और सुख दोनों से वास्ता पड़ता है। जब दुख का हमारे जीवन में प्रवेश होता है, तो हम चाहते हैं कि वह जल्दी से हमारी जिंदगी से विदा ले ले, मगर सुख को हम बहुत देर तक रोके रखना चाहते हैं। यानी उस पल में हम ठहराव चाहते हैं। लेकिन, जीवन की अपनी लय है न!
सुख और दुख के बीच समंवय जरूरी है। ऐसा नहीं हुआ, तो हमारी जिंदगी रसहीन हो जायेगी, एकदम नीरस सी हो जायेगी जिंदगी! जीवन भी तो लय की तरह है, कभी उतार, तो कभी चढ़ाव। हम-आप जब गीतों को सुनते हैं, तो अक्सर ही यह पाते हैं कि कुछ शब्द बहुत शीघ्रता से बोले जाते हैं, तो कुछ शब्द बहुत धीरे से। लेकिन, गति रहती है। यह गति प्राण फूँकती है जीवन में भी और गीतों में भी।
जीवन में लय जरूरी है। यदि जीवन में लय न हो, तो जीवन सूना-सूना सा लगेगा, दिखेगा। न हँसी का दौर मिलेगा और न ही खिलखिलाने का अवसर। इसलिए, जरूरी है जीवन में लयात्मकता। लयात्मक जिंदगी हमें निराशा से दूर ले जाती है, ले जाती है आशा के पास। विपरीत हवाओं के बीच हमें जीना सिखाती है, प्रतिपल मुस्कुराना सिखाती है।
विभिन्न विधाओं में कलम चलाने वाली वरिष्ठ साहित्यकार किरण सिंह की कलम ने गीतों को गढ़ा है, नवगीतों को गढ़ा है। डायरी के पन्नों पर बिखरी पड़ी इन रचनाओं को एकत्रित कर उसे पुस्तक रूप दिया गया है, जिसका नाम है-‘जीवन की लय’। इसमें 59 गीत-नवगीत हैं।
किरण सिंह लिखती हैं-‘मैंने समय-समय पर मचलती, बहकती, भटकती, थिरकती, सहमती, सिसकती व सँवरती अपनी कोमल भावनाओं को शब्दों में पिरोने का प्रयास किया है।’ सच भी है कि कभी भावनाएँ मचलती हैं, कभी बहकती हैं, कभी भटकती हैं, कभी थिरकती हैं। भावनाएँ कभी सिसकती हैं, कभी सहकती हैं, तो कभी सँवरती हैं। ऐसे में उन भावनाओं को कागज पर उतारने की सुंदर कोशिश की गयी है। ठीक ही कहती हैं-‘यह सिर्फ मेरी ही बात नहीं है, मुझे लगता है कि ऐसी स्थितियाँ प्रत्येक लेखक-लेखिकाओं, कवि-कवयित्रियों के जीवन में आती होंगी और उन्हें लिखने के लिए बाध्य करती होंगी।’
संग्रह की शुरुआत माँ की प्रार्थना से की गयी है। कवयित्री माँ की वंदना करती हैं। उनकी प्रार्थना है कि लेखनी निडर होकर चले, ज्ञान के दीप से अँधकार दूर छिटक जाये, धरा पर केवल प्रकाश ही प्रकाश हो। सभी जन की अच्छी कामना पूर्ण हों। मतलब, कवयित्री कहाँ स्वयं के लिए कुछ माँगती हैं, उनकी प्रार्थना में जगहित है, परहित है, स्वहित तो बिल्कुल भी नहीं है। जग की कल्याण चाहने वाली कवयित्री लिखती हैं-
मानवी जीते हमेशा
दानवी की हार हो
नफरतें मिट जाये उर में
प्यार का संचार हो।

किशोरावस्था में मैं यह सोचा करता था कि कौन है जो नदियों में जल भरता है? कौन है जो हवाओं को गति देता है? आखिर कैसा है नियंता? ‘तुमको नमन’ पढ़कर मैं स्वयं किशोरावस्था में लौट गया। अमूमन, यह सवाल हर किसी के मन को मथता है। कई सवाल होते हैं, जैसे इन्द्रधनुष में सात रंग क्यों होते हैं? पत्तियों को कौन रंगता है? इस चमन को सुरभित कौन रख रहा है? कौन है, जिसके निर्देशन में सृष्टि चल रही है? कवयित्री उस आदि शक्ति से मिलना चाहती हैं। आदि शक्ति को नमन करना जरूरी है, क्योंकि आदि शक्ति ने ही तो हमें जन्म दिया। मानव योनि पाकर हम कितना इठलाते हैं? कवयित्री लिखती हैं-
तुम मिलोगे ज्ञान से या,
प्रेम-भक्ति आराधना से?
या मिलोगे छंद के इस
भावमय आराधना से
चाहती हूँ तुमको जानूँ,
करती हूँ चिंतन मनन।

बाल साहित्य के संवर्द्धन में कवयित्री किरण सिंह का महत्वपूर्ण योगदान है। गोलू-मोलू, अक्कड़-बक्कड़ बाॅम्बे बो की रचना करने वाली कवयित्री ने बच्चों को राम के चरित से सीख लेने की नसीहत ‘श्रीराम कथामृतम्’ में दी हैं। हम राम को भूलते जा रहे हैं। राम यूँ ही मर्यादा पुरुषोत्तम नहीं हैं, उनके जैसा होना मुश्किल है। हम राम-सा आचरण करें, राम सा बनें, यह कोशिश होनी चाहिए। राम को जीवन में उतारने का आह्वान करने वाली कवयित्री लिखती हैं-
राम-सीता पूर्ण जप हैं
राम-सीता पूर्ण तप हैं
एक स्वर में, एक लय में
राम की जय बोलिये।

सृष्टि के कल्याण के लिए राम ने क्या नहीं किया? ताड़का का वध कर ऋषियों का उद्धार किया। हर बाधाओं को हँसते-हँसते पार करने वाले राम ने शबरी का जूठा फल खाकर समाज को वर्ग-जात से ऊपर उठने का संदेश दिया। माता-पिता की आज्ञा पर आराम को त्यागा, राज सिंहासन छोड़ा। कवयित्री लिखती हैं कि राम के नाम का कितना बखान किया जाये? उन्हें समझ पाना बूते के बाहर है। इस बीच, उनकी कलम प्रश्नचिह्न भी लगाती है। यह है कलम की निष्पक्षता! मतलब, जो जिस रूप में है, उन्हें उसी रूप में प्रकट किया गया है।
त्याग सिया को स्वयं दिया था, एक धोबी के कहने पर।
राजदुलारी को कर डाला, निष्ठुरता से क्यों बेघर।
प्रश्नचिह्न लग गया तभी से, तुम पर भी आवाम का।

भोले का गुण गाने वाली कलम ने माँ को गंगा कहा, तो माँ को यमुना। गंगा और यमुना की तरह ही तो माँ होती हैं। कलम ने सच कहा-कष्टनिवारणी होती हैं माँ, लेकिन बदले में क्या पाती हैं पुत्रों से उलाहना के सिवाय। आज गंगा-यमुना की हालत किसी से छिपी नहीं है। सर्वस्व लुटाने का क्या फल मिला? माँ तो माँ होती हैं। संकट में ढाल बनकर खड़ी हो जाती हैं। वो डाँटती हैं, फटकारती हैं, मगर उसमें भी प्यार छिपा हुआ होता है। डर को दूर भगाती हैं, मन में हिम्मत भरती हैं। सुबह-सुबह कौन जगाता है हमें माँ के अलावा? माँ ही तो रात पहर को लोरी सुनाती हैं। माँ की अद्भुत महिमा है, उन्हें शब्दों में नहीं बाँधा जा सकता है। अपनी नींद भुलाकर माँ हमें सुलाती हैं। माँ हर बलाएँ अपने माथे पर ले लेती हैं। कवयित्री लिखती हैं-
माँ वेद है, माँ मंत्र है, माँ गीता का सार है
माँ गंगा है, माँ यमुना है, माँ से ही संसार है।

विरह आग में धधक रही प्रियतमा के मन की बात को कलम लिखती है। विरह की आग में कौन धधकना चाहता है? प्रियतमा कभी नहीं चाहती है विरह की आग में धधकना। प्रियतमा की सदैव ख्वाहिश होती है प्रियतम की बाँहों में सिर रखकर सोना। मगर, जब प्रियतम दूर चला जाये, तो प्रियतमा के भाग्य में केवल रोना बचता है। कलम प्रियतमा की बेबसी को कहती है-‘मैं धरा सी हूँ तो तुम पिया हो गगन’। ऐसे में मुश्किल है न दोनों का मिलना। इसी बात को लेकर प्रियतमा चिंतित है। हालाँकि प्रियतमा को उम्मीद है कि प्रियतम सारे वचनों को निभायेंगे। पति-पत्नी का रिश्ता विश्वास पर ही टिका हुआ होता है। दोनों मजबूत डोर से बँधे होते हैं, माना परिस्थितिवश दोनों दूर-दूर हैं, मगर दिल से दोनों एक होते हैं। एक सा होता है मन, एक सा होता है उर। प्रियतम का इंतजार करती प्रियतमा की चाहत देखिए-
रात हो या कि दिन या हो कोई प्रहर
सोचता है हमेशा तुम्हें मेरा मन।

सावन में चारों ओर हरियाली दिखती है। इंद्रधनुषी रंग नभ को शोभता है। सावनी फुहार से तन और मन रोमांचित हो उठता है। नभ धरती पर प्यार बरसाता है और धरती प्यार पाकर खिल उठती है। धरा की सुंदरता देखते बनती है। मगर विरहिणी? विरहिणी की आँखें बरस पड़ती हैं प्रियतम को न पाकर। यहाँ कवयित्री की कलम मनुहार करती है कि
धानी चूनरिया
ला दे सजना
ले चल मोहे
करा के गौना
तेरी याद बड़ी आये
मुझे चैन नहीं आये
नींद नयनों की उड़ी-उड़ी जाये रे।

अपने आस-पास की हरियाली को देखकर किसका मन नहीं बहकेगा? मनोनुकूल मौसम को पाकर प्रियतमा चाहेगी प्रियतम के अंग में समा जाना! देखिए ख्वाहिश-
भीगी है धरती मैया
भीगा है उसका कण-कण
फिर भी जाने क्यों मेरा
प्यासा है दिल और तन मन
कहती तुम्हारी गुइयाँ
आ जाओ मेरे सइयाँ।

प्रियतम बिन क्या सावन, क्या वसंत? कवयित्री अपने मनमीत को ऋतु वसंत की कहानी सुनाती है। कहती है-वसंत हृदय को जीत ले रहा है। वसंती बयार से कौन नहीं मता उठता है? कोयलिया की कुहुक-कुहुक से दिल बहक उठता है। ऐसा होता है वसंत? और, इस वसंत में जब मनमीत पास न हो, तो मन मायूस हो उठता है। लेकिन, मनमीत के आने की खबर पाकर प्रियतमा चहक उठती है। सखी से भी कहती है-
अक्षर-अक्षर तोल-मोल कर
शब्दों में रस प्रेम घोलकर
भर कर के मैं भावों का भंग
करुंगी हुड़दंग री सखि।

कोयल की मीठी आवाज सुनकर प्रियतमा का दिल खिल उठता है। कोयलिया जब गाती है, तो प्रियतमा को ऐसा लगता है कि वो प्रिय का ‘संदेशा’ सुना रही है कि वो रंग-अबीर लेकर आयेंगे। कोयल की कुहुक और बायें आँखों के फड़कने से प्रियतमा को उम्मीद जग जाती है कि इस बार की होली धमाल होगी। जब प्रियतम का साथ हो, तो प्रियतमा कैसे धमाल नहीं मचायेगी? इस बीच, प्रियतमा अंदेशा से भी भर उठती है कि यदि कुहुक-कुहुक के बाद भी प्रियतम नहीं आये, तो? देखिए मन के भाव-
बात तोरी सच्ची हुई
तो कोयलिया
सबसे करुंगी
मैं तोरी बड़इया
नाहीं तो तुम्हें दूंगी मैं
जी भर के गाली।

‘आपके बिन’ में देखिए विरहिणी की मनोदशा का वर्णन किस रूप में है। विरहिणी मन को बहलाना चाहती है, लेकिन चंचल मन प्रियतम की याद में खो उठता है। पंक्ति देखिए-
लाख बहलाऊँ मन को बहलता नहीं।
तेरी यादों से पल भर निकलता नहीं,
नीर नयनों से मेरे निरन्तर बहे
आ भी जाओ कि मेरा जिया ना लगे।
आगे-
तन भी उनका मन भी उनका, उन तक ही मेरी राहें।
लेकिन वे हैं निष्ठुर मैं तो भरती रहती हूँ आहें।

एक रचना है ‘मोहे नींद न आये’। इसमें बियाह के बंधन में बँधने को तैयार एक युवती के अंतर्मन की बातें हैं। शादी से पहले रिवाज होता है, देखा-देखी, फिर फलदान। इन रिवाजों से गुजरने के बाद होती है शादी। इस अवधि में तेजी से धड़कते हैं दो दिल! दोनों दिल मिलने को उत्सुक होते हैं। कहाँ नींद आती है? कहाँ मन को चैन मिलता है? यादें तड़पाती हैं रात भर? मन करता है कि एक झटके में ही समय बीत जाये और सजन डोली लेकर आ जायें।
माँग सिंदूरी
भर दो पूरी
मैं बैठी तैयार रे
आजा मेरे सांवरिया।

प्रेम में डूबी हुई स्त्री के मन के भाव को समेटा गया है ‘चलो लिखें हम गीत’ में। प्रेम सागर में डूबी स्त्री की चाहत देखिए-
मन्नतें तुम कर दो पूरी
अब सहा जाये न दूरी
आओ मिलके यूँ निभाएँ
प्रीत की कुछ रीत
चलो लिखें हम गीत।

रचना में देश की सरहद पर शहीद हुए जवान की पत्नी की बेबसी है। शहीद की पत्नी को यह इंतजार था कि सजन होली में आयेंगे, प्यार का रंग लगायेंगे। लेकिन, कहाँ आये सजन? सजन के बिना बेरंग रहा तन और मन। नयी-नयी चुनरी पहनने की लालसा मन में थी, मगर कहाँ पूरी हुई? सीमा पर तैनात पति की हर दिन घर लौटने की राहें ताकती हैं उनकी पत्नी, अनगिनत स्वप्न होते हैं नयन में। देश की रक्षा में शहीद सैनिक की पत्नी के मन की बातों को कलम ने आवाज दी-
अब कैसे कट पायेगा प्रिय, कहो पहाड़-सा यह जीवन।
रंग उतार माँग का मेरे, कहाँ गये मेरे सजन?

कवयित्री आशावादी हैं, उनकी रचनाएँ उत्साह को बढ़ाती हैं, प्रेरणा देती हैं। वो मध्यम मार्ग को अपनाकर जिंदगी जीने की नसीहत देती हैं। मध्यम मार्ग को तो सर्वश्रेष्ठ मार्ग माना गया है। जिंदगी लय में चले, इसलिए जरूरी है सुर में थोड़ा सुर मिलाने की। जिंदगी में यदि चुनौती आये, तो सहर्ष स्वीकृति देकर हम जीवन को रसमय बना सकते हैं। यथार्थ है कि आजकल की पीढ़ी चुनौती को स्वीकार्य करने से घबराती है। जिंदगी में तो कंटकों से भी मुलाकात होगी, तो फूलों से भी। हमें हर परिस्थिति को स्वीकार करना होगा। कवयित्री आह्वान करती हैं-
स्वर्ण हो तुम याद रखना
तुमको हरदम है चमकना
सह के ताप तुम भी थोड़ा
गल के प्रेम में ढलो
ज़िंदगी लय में चलो।

कवयित्री पाठकों को रिश्तों का सूत्र समझाती हैं। वो इस बात पर बल देती हैं कि रिश्तों की डोरी हमेशा जुड़ी रहनी चाहिए। डोरी चाहे निस्वार्थ भाव से जुड़ी हो या फिर स्वार्थ से, मगर जुड़ी होनी चाहिए। ‘रिश्तों का सूत्र’ पढ़कर पाठकों को यह लगेगा कि कवयित्री ने कितनी गंभीर बातें कह डाली हैं। जिंदगी के सफर में जरूरी नहीं कि सब आपके हिसाब से ही चले, खेले, खाये। हम किसी भी सूरत में अपने मुँह को नहीं फुलायें, लड़ाइयाँ नहीं करें, बातें करना नहीं छोड़ों। जीवन का सफर बहुत लम्बा है। इस लम्बे सफर को सुहाना बनाने के लिए रिश्तों की डोरी जरूरी है।
साथ हैं अपने यही
एहसास होता है बहुत
वर्ना होकर हम अकेले
बन बैठेंगे बुत
बात अच्छी न लगे
तो भी सुनो उनकी कही।

कवयित्री का मानना है कि मुक्त हस्त से खुशियों को बाँटा जाये, लेकिन गम को नहीं। यदि गम आये, तो स्वयं उससे निबटने की क्षमता विकसित की जानी चाहिए।
बाँट खुशियाँ खोलकर जी
गम को चुपके से ही पी ले
ज़िंदगी जी भर तू जी ले।

कवयित्री को कमियाँ देखने की फुर्सत नहीं है। मित्रता की आड़ में स्वार्थ का खेल जारी है, लेकिन कवयित्री का अलग मत है। कहती हैं-उन्होंने हर रिश्ते को तौल कर देखा, मगर दोस्ती से भला कुछ भी नहीं। सच भी है यह। कृष्ण-सुदामा याद हैं न, ऐसे अनेक किस्से हैं। मित्रता में स्वार्थ का कोई स्थान नहीं है। मित्रता में तो स्नेह भरा हुआ होता है। बरसात में भी आँखों से गिरे आँसू की पहचान करना ही दोस्ती की कसौटी है। कवयित्री लिखती हैं-
अच्छे हों या बुरे, बात हर वह सुने,
उससे कुछ कहने से दिल, डरा ही नहीं।
समझे जो मरम, मित्र मेरा परम्,
तो लगे वह कहीं, खुद खुदा तो नहीं।

यह बात सत्य है कि नारी सशक्त हो रही हैं, लेकिन अभी भी नारी की आवाज को दबाने का प्रयास हो रहा है। नारी की शक्ति को कहाँ कागज पर उतारा जा रहा है? ऐसे में कवयित्री कवि से कहती हैं-सुनो कवि मैं ही कविता हूँ। स्पष्ट है कि कवयित्री को नारी समाज की उपेक्षा कतई बर्दाश्त नहीं है। कवयित्री की चाहत है कि यदि नारी के नख शिख का वर्णन होता है, तो शक्ति का भी वर्णन हो, उसे भी कागज पर उतारा जाये। यदि नारी सृजन करना जानती है, तो संहार करना भी उन्हें आता है। ऐसे किस्सों से इतिहास भरा पड़ा है। ऐसे में शक्ति को अनदेखा करना कवयित्री को कैसे अच्छा लगेगा? इसलिए लिखती हैं-
मुझसे ही घर है ज्योतिर्मय
जलती हूँ बाती-सी निर्भय
त्याग मूर्त्ति प्रतिमान हूँ मैं ही
सावित्री सीता हूँ
सुनो कवि मैं ही कविता हूँ।

नारी के त्याग की अनगिनत कहानियाँ हैं। वो अपना हर फर्ज निभाती हैं। पति की लंबी आयु के लिए तीज करती हैं, वट वृक्ष की पूजा करती हैं। करवा चौथ में चाँद का इंतजार करती हैं भूखी-प्यासी। यह समर्पण है प्रिय के प्रति। यही शाश्वत प्रेम है। इतिहास में दर्ज है कि पति की जान बचाने के लिए यमराज से भिड़ गयी हैं नारी। करवा चौथ में चाँद का बड़ा महत्व है, चाँद भी उस दिन खूब ‘ऐंठन’ में होता है। मगर, चाँद का दीदार तो जरूरी है। कवयित्री चाँद से कहती हैं-
सजे जीवन में राग
हो अमर ये सुहाग
कामना पूरी कर दो न सब।

एक ओर जहाँ कवयित्री भारत माँ की महिमा का मुक्त कंठ से बखान करती हैं, तो दूसरी ओर वो उनकी बेबसी को भी बेबाकी से रखती हैं। भारत एक उपवन है। इस उपवन में अलग-अलग फूल खिले हुए हैं और इन फूलों से बगिया महकती रहती है। हिमालय सरताज बना हुआ है। जब भारत का तिरंगा शान से लहराता है, तो सारी दुनिया देखती रहती है। दुनिया नतमस्तक है भारत के सामने। कहाँ कोई आँख दिखाने की कोशिश करता है अब? बदल-सा गया है भारत। हालाँकि भारत की समस्याओं पर कवयित्री चिंतित हैं। चिंतित होना स्वाभाविक है। भारत को किसी की नजर लग गयी है, तभी तो यहाँ जात-धर्म की फसलें लहलहाने लगी हैं। कौन है जो बारूद उपजा रहा है खेतों में? अपनी ही धरती पर भारत माँ बेबस पड़ी हैं। किसे अपना दुख बताये? किससे कहे कि मेरा हाल बेहाल है? एक बार भारत माँ का आगमन कवयित्री के स्वप्न में होता है। जब सभी जगह से उम्मीदें टूट जाये, तो कलम से ही उम्मीदें बढ़ जाती हैं। कवयित्री इन शब्दों में भारत की बेबसी को रखती हैं।
याद करो माँ के लालों को
जिसने जान गँवाई थी
अपना लहू बहाकर हमको
आजादी दिलवाई थी
दिखा भूत का चित्र मुझे वो
वर्तमान को तोल रहीं थी
रात स्वप्न में भारत माता
हमसे आकर बोल रही थीं।

उदासी का माहौल है। वातावरण विषाक्त-सा है। अँधेरा पसरा पड़ा है। ऐसे वक्त में कवयित्री दीप जलाने का फैसला लेती हैं, ताकि अँधेरा छँट जाये, रात भी सवेरा-सवेरा सा लगे। देहरी पर दीप जल जाये, तो अँधकार से मुक्ति पायी जा सकती है। कवयित्री को पता है कि दरिद्रता-दुख को दूर करने के लिए, समृद्धि-सुख को बढ़ाने के लिए दीपक का जलाना जरूरी है। यह दीपक देहरी-देहरी पर जले, हर उर में जले, ऐसी कामना है, ताकि सृष्टि का कल्याण हो सके।
विश्वास की बाती में
घृत प्रेम का मिलायें
खुशियों की ज्योति में हम
दुख का तिमिर मिटायें
चलो दीप हम जलायें।

पेड़ की महिमा बताने वाली कवयित्री पेड़ लगाने का आह्वान करती हैं। कहती हैं कि प्रकृति पूजा जरूरी है। प्रतिवर्ष एक पेड़ का अर्पण जग को जरूर करना चाहिए। सच बात भी है कि हम प्रत्येक साल केवल एक पेड़ लगायें, उसकी हिफाजत करें, तो धरती खिल उठेंगी। प्रकृति का संतुलन बना रहेगा। मगर, हम ऐसा कहाँ कर पाते हैं? पेड़ का अर्पण करने की बजाय हम पेड़ों को ही क्षति पहुँचा रहे हैं। लगे हाथ कवयित्री नयी पीढ़ी से आलस त्यागने की अपील करती हैं। आलस को त्याग कर सदैव आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है रचना-‘चलते रहना है’। यह गीत विपरीत परिस्थितियों में हमारे लिए जीने का सहारा है।
शूरवीर-सा कठिनाई से, तुमको डटकर लड़ना है
तुमको भी गंगा के जैसा लक्ष्य स्वयं तय करना है।

क्यों दान मुझे भी कर दिया? में समाज से सवाल है। यह सवाल हर लड़की का है। आखिर बेटी की ही विदाई क्यों? लड़कियाँ ताउम्र नहीं समझ पाती हैं कि कौन घर ‘अपना’ घर है? दोनों घरों को सजाने-सँवारने में लड़कियों की उम्र बीत जाती है, मगर न तो ससुराल में हक मिलता है और न ही नैहर में। नैहर वाले कहते हैं कि ससुराल तेरा घर है और ससुराल वाले कहते हैं-जाओ पीहर। कशमकश में जिंदगी जीती हैं लड़कियाँ। बेचारगी देखिए-लड़कियों को घर की परी कहा जाता है, जिगर का टुकड़ा कहा जाता है, तो क्या कोई जिगर के टुकड़े को अलग करता है? लड़की का यह सवाल पूछा जाना निहायत जरूरी है-
सोना-चाँदी, धन-दौलत से, यूँ तो मुझको भर दिया।
पर पापा क्यों वस्तु समझकर, दान मुझे भी कर दिया।

क्या श्रमिक के भाग्य में केवल रोना है? श्रमिक की आँखों में आँसू कब आते हैं? इस पर कवयित्री ने बेबाकी से अपनी कलम चलायी हैं। कवयित्री का कहना है कि जब-जब श्रमिक अपने घावों को टटोलता है, तब-तब वह रो पड़ता है। यह विडंबना ही है कि महल-अटारी बनाने वाले मजदूर को एक अदद छत भी नसीब नहीं हो पाता है, उसे फुटपाथ पर सोना पड़ता है। मजदूरों के श्रम से फसलें उगती हैं, बदले में श्रमिकों को क्या मिलता है? भूखे पेट रहने की नियति, यही न। वस्त्र बनाते हैं, मगर चिथड़ों में ही कट जाती है जिंदगी। ऐसी दशा में आँसू गिरेंगे ही। और, गिरते आँसू को देखकर कलम का पिघलना लाजिमी है। कवयित्री लिखती हैं-
करती है सरकार बहुत कुछ
फिर भी मिलता कहाँ उन्हें कुछ
खा जाते हैं स्वयं बिचैलिये
जो उनके हक का होता है
तब श्रमिक भाग्य पर रोता है।

हिन्दी भाषा की गुणगान करती तीन रचनाएँ हैं। कवयित्री का सवाल उठाना जरूरी है कि आखिर आज तक हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा क्यों नहीं मिला? हिन्दी तो भारत माँ के माथे की बिंदी है। हिन्दी जैसी सरल भाषा कहाँ है? यह सुंदर है, लचीली है, प्रवाहमयी है। हिन्दी हम भारतीयों की आन है, शान है। फिर भी, अधिकतर लोगों को हिन्दी बोलने से परहेज क्यों है? क्यों उन्हें झिझक होती है? भारत में विदेशी भाषा क्यों सीना ताने खड़ी है? कवयित्री को अंग्रेजी से तौबा नहीं है, बल्कि अंग्रेजी पढ़कर अंग्रेज बनने से नाराजगी है। उनकी कलम हिन्दी की वकालत करती है-
फिर बेमतलब जड़ से कटकर, इधर-उधर मत डोलिये।
सरल, सुन्दरम्, मधुरम् भाषा हिन्दी में ही बोलिये।

कवयित्री का जन्म गाँव में हुआ है। कलम कैसे बिसार देती गाँव को, गाँव की यादों को। माना, गाँव का आज परिवेश बदल गया है। गाँव की रीतियाँ बदल गयी हैं, नीतियों में बदलाव आ गया है। कोकिला की स्वर लहरी कौए के काँव-काँव की आवाज में दबी पड़ी है। अब तो कोयल दिखती भी नहीं। बावजूद गाँव में थोड़ा सा गँवईपन आज भी बचा हुआ है। कवयित्री के लिए मुश्किल है गाँव की यादों को बिसार देना, इसलिए लिखती हैं-
यादों की शाखी पर बैठी, छुपी हृदय के ठाँव में।
कूक रही है आज भी सखि, कोयल मेरे गाँव में।

‘कहाँ गये वे दिवस’ में बचपन की यादें हैं, पुराने रीति-रिवाज हैं। पहले कितना अपनापन था रिश्तों में, आज वैसा अपनापन है क्या? पहले दिखावा नहीं था, अब रिश्तों में दिखावापन है। विकट घड़ी में सभी लोग साथ रहते थे, साथ हँसते थे, साथ गाते थे, अब नहीं। अब रिश्तों में दुरियाँ बढ़ गयी हैं। रिश्तों के बीच दीवार खड़ी हो गयी हैं। घर कई टुकड़ों में बँटा पड़ा है। कहाँ किसी का मन निश्छल है? न आँगन में तुलसी चौरा है, न मिट्टी के खेल-खिलौने हैं। कवयित्री बचपन की यादों में खोयी पड़ी हैं। लिखती हैं-
कहाँ गये वे दिवस सखी री, कहाँ गई अब वे रातें।
झगड़ा-रगड़ा, हँसी-ठिठोली, वह मीठी-मीठी बातें।

लड़कियाँ ससुराल आकर कहाँ भूल पाती हैं अपना मायका? मायके का प्यार? हर लड़कियों की अंतिम उम्मीद मायका ही है। उन्हें प्रतिपल मायके की याद आती है। माँ की झिड़की, बहन की घुड़की। मायके को कोई कैसे भूल जाये, यहीं तो बचपन बीता। खेलते-पढ़ते लड़कियाँ मायके में ही बड़ी होती हैं। कवयित्री लिखती हैं-
जितनी भुलाती मैं उतना बुलाती वो
यादों में आकर के बाबा की गलियाँ।

क्या कवि का मन भ्रमित होता है? दुनिया की हालत देखकर ऐसा लगता है कि कवि का मन कभी-कभी उलझ ही जाता है। यथार्थ है कि जब सभी जगह से उम्मीदें टूट जाती हैं, तो लोगों की निगाहें कलम पर ही टिक जाती हैं। ऐसे में कलम क्या करे? हरिया का दुख हरे या दुखनी के बदन को ढँके, रोते-बिलखते ननका के लिए रोटी का इंतजाम करे या फिर लहू के लिए प्यासी तलवार को शांत करे। लोगों की सलाह पर माना कवयित्री का मन उलझ पड़ता है, लेकिन यह भी सच है कि दुखियारी जब आवाज लगाती है, तो आँखों से आँसू बहने लगते हैं, जो यह दर्शाता है कि संवेदनाएँ जागृत हैं। ऐसे में कलम भी तनकर खड़ी हो जाती है व्यवस्था से सवाल पूछने को? समस्याओं के बीच खड़ी कवयित्री सवाल पूछती हैं-
एक जान हूँ मैं बेचारी
क्या-क्या लिख दूँ बोल?

समस्याओं को देखकर कलम कभी मुँह फेर ही नहीं सकती है। समाज को सही राह दिखाना कवि का फर्ज है, शासक को आईना दिखाना कलम का कर्तव्य है। नीरस भरे जग को लयबद्ध करने की जवाबदेही कलम की ही है। ऐसे में कवयित्री का शंखनाद है-
आशा दीप जलाता चल
कवि तू धर्म निभाता चल।

कवयित्री ‘अपनों’ को भी नसीहत देती हैं। अपनी बिरादरी को कहती हैं कि तू अपने मन की लिख। कविकर्म में अब मौलिकता का अभाव हो गया है। कवि को भी भेड़चाल में चलने की आदत पड़ गयी है। मंच का हाल पूछिए मत। कविताएँ कम, चुटकुले ज्यादा। गंभीर कविताएँ अब मंच से कहाँ पढ़ी जाती हैं? गंभीर श्रोता का भी टोटा हो गया है। कवयित्री का कहना कितना जायज है-
मिटा नफ़रतों को हर दिल से
भर दो थोड़ा प्यार
स्वयं बजेंगी तब तालियाँ
मत माँगना भीख
कवि तू अपने मन की लिख।

वैश्विक बीमारी कोरोना पर भी रचना है। कोरोना अभी पूरी तरह से गया नहीं है। स्वरूप बदलकर यह आम जनमानस को डरा रहा है। जब कोरोना की पहली लहर आयी थी, तो क्या-क्या नहीं देखने को मिला था? श्मशान घाटों पर लाशें बिछी हुईं थी, अस्पतालों में बेडों की कमी थी। ऑक्सीजन के लिए हाहाकार मचा हुआ था। कौन ऐसा घर या परिवार नहीं था, जो इसकी चपेट में नहीं आया हो! वैक्सीन और भारतीयों के आत्मबल ने कोरोना के खौफ को थोड़ा कम किया है। हाँ, अभी यह थमा सा है, लेकिन इसकी मुकम्मल विदाई नहीं हुई है। जब कभी यह तेवर दिखाने से बाज नहीं आ रहा है। ऐसे में कवयित्री लिखती हैं-
हम वीर सिपाही इस जग के, तो क्यों डर-डर कर रहना है।

कवयित्री को उम्मीद इस बात की भी है कि
हमने जीना सीख लिया अब, जी लेंगे हम किसी हाल में
झनक उठेगी पुनः ज़िंदगी, गुंजित हो लय और ताल में।

मृत्यु तो अटल है! एक-न-एक दिन तो सबको जाना ही है। इस बीच, कवयित्री मौत को ही थोड़ा चिंतन मनन करने को कहती हैं। कोरोना में हमने मौत का तांडव देखा, मौत ने किसे नहीं दबोचा? पत्ता-पत्ता डरा-सहमा था। हर कोई नजर बंद था। खेलने पर पाबंदी थी, खाने पर पाबंदी थी। लोग अपनी साँसें बचा रहे थे, फिर भी साँसें बच नहीं पा रहीं थी। हर तरफ मरघटी सन्नाटा-सा पसरा था। कौन मौत के तांडव से खुश था? जिस किसी भी घर में मौत ने दस्तक दी, लोगों ने भला-बुरा कहा। इसलिए तो कवयित्री मौत से कहती हैं-‘तू जरा चिंतन-मनन कर’। कवयित्री इस बात की वकालत करती हैं कि जिंदगी जीना आदमी का अधिकार है, इसलिए मौत अधिकारों का हनन नहीं करे, बिना बुलाये घरों में दस्तक नहीं दे, जिंदगी को डराये नहीं। कवयित्री मौत को समझाती हैं कि जब आदमी का धर्म-कर्म पूर्ण हो जायेगा, तो वो स्वयं तेरी खिदमत करेगा, तेरे पाँवों को धोयेगा। कवयित्री मौत को सीधे कहती हैं-
देख न बिखरा पड़ा हर
काम बाकी है अभी
मौत आना फिर कभी।

मौत जब मानने को तैयार नहीं है, तो कवयित्री मौत से भिड़ने को तैयार हो गयी हैं। सीधे कहती हैं-ज्यादा अकड़ मत दिखाओ, छुपकर मत आओ। यदि हिम्मत है, तो समर में आजमा लो खुद को। कितनी हिम्मत वाली हैं कवयित्री! मौत से तो हर कोई डरता है। हर कोई चाहता है कि मौत का नर्तन न हो, जिंदगी सँवरती रहे। लेकिन, मौत जब समझाने से भी नहीं समझे, तो कवयित्री जिंदगी को मजबूत रहने का आह्वान करती हैं-
राह रोके मौत भी गर
तुम भी डट कर के लड़ो
ज़िंदगी तुम मत डरो।

मौत को खुली चुनौती देती है कवयित्री की कलम-
मत दिखा मुझे अकड़
दो-दो हाथ आ करें
मौत तुझसे क्यों डरें?

मौत जब बार-बार डराये, तो ऐसे वक्त में कवयित्री जिंदगी को समझाती हैं। ऐसा करना भी जरूरी है।
डर अगर तुमको सताये
लग रही हों बद्दुआएँ
तो करो अन्तः परीक्षण
ईश वंदन फिर करो।

संग्रह की अंतिम चार रचनाएँ नैराश्य में लिखी गयी हैं। कवयित्री जानना चाहती हैं कि मौत कहाँ ले जाती है? क्या मौत को स्वीकार करने वाले भूल जाते हैं सब कुछ? तोड़ देते हैं मोह के बंधन को? क्या खाने को मिलता है? क्या पीने को मिलता है? अमूमन, जब आप मृत्यु के बारे में सोचेंगे, तो ऐसे विचार जरूर कौंधते हैं मन में। अंतिम कुछ रचनाएँ पाठकों को उद्वेलित करेगी। व्यक्तिगत कहूँ, तो हमेशा किरण सिंह जी को मैं सकारात्मक रचनाओं को गढ़ते देखा है, मगर दुख की काली बदरिया ने उनकी लेखनी में नकारात्मकता को भरा। जीवन को आनंदमय रखने की नसीहत देने वाली कलम जब ऐसी पंक्ति लिखती है, तो कौन नहीं रो देगा?
इस जहाँ में रहूँ कैसे मैं उसके बिन
मुझे भी ले चलो मौत उसके शहर।

‘अपनी बात’ में कवयित्री लिखती हैं-‘अगर आप पाठक मेरी रचनाएँ पढ़े होंगे, तो जीवन के प्रति मेरी सकारात्मक सोच से अवश्य अवगत होंगे। वास्तव में मैं जीवन के प्रति बहुत सकारात्मक एवं आशावादी दृष्टिकोण रखती थी। लेकिन समय के निष्ठुर चाल ने मेरे दिल दिमाग पर इतना कठोर प्रहार किया कि मेरे सारे स्वप्न टूटकर चकनाचूर हो गये। मेरी जिंदगी की तरह मेरी लेखनी भी निष्प्राण हो गई। फिर मेरे परिजनों, मित्रों और पाठकों की स्नेह की स्याही ने मेरी संगिनी लेखनी में प्राण फूँक कर उसे चलने के लिए विवश कर दिया।’
भगवान न करे कि ऐसा दुख किसी को मिले। आँखों के सामने जिगर के टुकड़े को खोने का गम संसार का सबसे बड़ा गम है।
बिना कहे चुपचाप तोड़ कर, नाजुक हृदय हमारा
चला गया है कौन देश में मेरा राज दुलारा।

हर माँएँ चाहती हैं कि बेटा खूब नाम कमाये। पुत्र की मनोकामना को पूर्ण के लिए माँ हर त्याग करती हैं, हर चुनौतियों को स्वीकार करती हैं। कवयित्री ने भी पुत्र के सपनों को सँवारने के लिए हर यत्न कीं। व्रत रखीं, उपवास रहीं, मंदिरों में मन्नत के धागे को बाँधीं। खुशियों की फसलें बोयी गयी थीं यह सोचकर कि दाने उगेंगे, लेकिन फसल हवा के हिलोरे से एक ही झटके में टूट पड़ी। ऐसे में कैसे नहीं डोलेगा विश्वास? भगवान को क्यों नहीं कटघरे में खड़ा किया जायेगा? क्यों नहीं पूछा जायेगा नीति नियंता से कि क्यों मौत हर बार जीत का जश्न मनाती है? कैसे निर्णायक हो तुम? कैसा न्याय है तुम्हारा? एक माँ की वेदना-
कौन पाप की सजा मिली है, हमको अब बतला दो क्यों?
निश-दिन बहती रहती मेरी, आँखों से जलधारा।

समर्पण में कवयित्री लिखती हैं-‘मुझे लिखने के लिए प्रेरित करने वाले सभी ऊर्जा स्रोतों को समर्पित’। लगातार अपनी कलम से समाज में जागृति फैलाने वाली किरण सिंह की कलम का रुक जाना लोगों को अखरता रहा है। साहित्यिक बगिया में कई बेमिसाल कृतियों को देने वाली कवयित्री की प्रस्तुत संग्रह में भी अन्य कृतियों की तरह प्रवाहमयता है, सरसता है। क्या नहीं है संग्रह में? भक्ति भावना है, बचपन और गाँव की यादें हैं, संदेश है, जीवन जीने का मूलमंत्र है। नारी मन की बातें हैं, भारत माँ की बेबसी है, श्रमिकों का रोना है। हिन्दी का गुणगान है, मायके का प्यार है, तो मृत्यु को चुनौती है और पुत्र गम में लेखनी का रोना है। अर्थात, विभिन्न भाव हैं।

द्वारा सिन्हा शशि भवन
कोयली पोखर, गया-823001
चलितवार्ता-9304632536

पूर्वा – स्त्री जीवन को बारीकी से उकेरती कथाएँ

किरण सिंह जी निरंतर साहित्य साधना में लगी वो साहित्यकार हैं, जो लगभग हर विधा में अपनी लेखनी की प्रतिभा दिखा चुकी हैं, फिर चाहें वो कविताएँ, लघुकथाएँ, दोहे, मुक्तक, कुंडलियाँ छंद, गजल हो या कहानियाँ लिखकर साहित्य को समृद्ध कर रही हैंl आज उनके जिस कहानी संग्रह पर बात कर रही हूँ वो हाल ही में वनिका पब्लिकेशन से प्रकाशित हैl “पूर्वा” जैसे आकर्षक नाम और कवर पेज वाला यह संग्रह उनका तीसरा कहानी संग्रह है, जो उनकी कथा-यात्रा के उत्तरोंतर विकास का वाहक हैl
अपनी बात में किरण सिंह जी मैथली शरण गुप्त जी की कुछ पंक्तियाँ लेते हुए लिखती हैं

“केवल मनोरंजन ही न कवि का करम होना चाहिए,
उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए”
मैथली शरण गुप्त जी की इन पंक्तियों से मैं बहुत प्रभावित हूँ, इसलिए भी मेरी हमेशा कोशिश रहती है कि कविता हो या कहानी कुछ न कुछ उपदेश दे ही l”

इस संग्रह की कहानियाँ उनके कथन पर मोहर लगाती हैंl जिसकी विषय वस्तु में आम जीवन हैl दरअसल हमारा घर परिवार हमारे रिश्तों की आधार भूमि है और समाज की ईकाई l इस इकाई को नजर अंदाज कर स्वस्थ समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती l “पूर्वा” में संकलित किरण सिंह जी की कहानियाँ घर-परिवार की इसी दुनिया को कई बिंदुओं से देखती परखती एक्स रे करती चलती हैंl बहुधा कहानियों के केंद्र में स्त्री ही है l वही स्त्री जो घर की धुरी हैl कथाओं के मध्य अमूर्त रूप से कई प्रश्न ऐसे गूँथे हैं, जो पाठक को अपने ही जीवन से जूझ कर उत्तर खोजने पर विवश करते हैंl चाहें वो विधवा स्त्री का बैरंग जीवन हो, दहेज की प्रथा हो, घर में अकेली पड़ गई अपने सपनों के लिए संघर्ष करती स्त्री होl
कहानियों की खास बात यह है कि किरण सिंह जी की स्त्रियाँ कहीं से भी बनावटी स्त्रियाँ नहीं नजर आतीl ये स्त्रियाँ बौद्धिक विमर्श नहीं करतीं बल्कि हमारे कस्बों और छोटे शहरों की स्त्रियाँ हैं, जो घर परिवार और सपनों से संतुलन बनाते हुए बहुत सधे कदमों से धीरे-धीरे एक-एक बेंड़ी खोलते हुए आगे बढ़ रही है, सीधे तौर पर पुरुष पर उँगली उठाने के विपरीत ये समाज और रूढ़ियों पर उँगली उठाती हैl वो समाज जो स्त्री पुरुष से मिलकर बना हैl ये कहानियाँ संतुलन में ही स्त्री और पुरुष दोनों का भला है की हिमायती हैंl

एक महत्वपूर्ण प्रश्न जो कहानियों से उभरकर आता है, वो है एक अच्छी स्त्री के मन का अंतरदवंद l आमतौर पर परिवार को ले कर चलने वाली, सबकी खुशियों के लिए त्याग करने वाली स्त्री, अपने ही परिवार की अन्य स्त्रियों की राजनीति की शिकार हो उम्र के किसी ना किसी दौर में ये सोचती जरूर है कि, “अपने जीवन की आहुति देकर उसे मिल क्या?” फिर चाहे वो “मुझे स्पेस चाहिए” की नेहा हो, दहेज की निधि हो, या “बलिदान की कथा” की निशा होl हालाँकि अततः सब अच्छाई के पक्ष में ही खड़ी होती हैं, क्योंकि अच्छा होना या बुरा होना मनुष्य की मूल प्रकृति है, और घर-परिवार की इस सुंदर दुनिया की नींव में इन्हीं स्त्रियों के दम पर हैl

कहानी “मुझे स्पेस चाहिए” की मूल कथा परिवार की दो स्त्रियों देवरानी और जेठानी के मध्य की हैl जो स्वार्थ और नासमझी से टूटते संयुक्त परिवार के दर्द को ले कर आगे बढ़ती है l पर मुझे इस दृष्टि से भी खास लगी क्योंकि यह कहानी देवर और भाभी के स्वस्थ दोस्ताना रिश्ते पर संदेह कि नजर पर सवाल उठाती हैl आज भी जब हम स्त्री पुरुष मित्रता की बात करते हैं तब भी घर के अंदर पनप रहे ऐसे सुंदर मित्रवत रिश्तों पर “दाल में कुछ काला है?” का तेजाबी प्रहार क्यों करते हैं? स्त्री का ये मित्रवत रिश्ता चाहे जीजा साली का हो, जेठ या देवर से हो, हमें घर के अंदर भी दोस्ती को संदेह के घेरों से मुक्त करना होगा l
एक लांछन जो आम तौर पर स्त्रियों पर लगता है कि वो ससुराल की इतना अपना नहीं समझतीं, सास हो या जेठानी/देवरानी की बात को माँ की डाँट समझ कर नहीं भूल जातीं l कहानी में एक स्थान पर नेहा अंतर्मन उसी का जवाब देता है l

“माता-पिता का तो दिल बड़ा होता है वो माफ कर देते हैंl भाई भी खून के रिश्ते के आगे कमजोर पड़ जाते हैंl पर मेरा तो दिल का रिश्ता था, जब दिल ही टूट गया तो जुड़ेगा कैसे?”

जिसे कोर्ट- कचहरी सिद्ध नहीं कर सकती, उसे स्त्री की संवेदनशील दृष्टि पकड़ लेती हैl कहानी पक्षपात एक लेखिका और उसे भाई का वार्तालाप हैl जहाँ भाई अपनी लेखिका बहन पर आरोप लगाता है कि वह स्त्रियों का ही पक्ष लेती हैl अपनी बात को सिद्ध करने के लिए वो कोर्ट का एक किस्सा सुनाता हैl जहाँ एक पत्नी अपने पति के नौकरी से निकाले जाने का बदला लेने के लिए उसके घर में काम करने आती हैl वो ना सिर्फ सबका विश्वास जीतती है बल्कि मालिक को अपने स्नेह-देह-पाश में बाँध भी लेती हैlबाद में न सिर्फ घर से पैसे लेकर भागती है बल्कि मालिक को रेप केस में भी फँसा देती और मालिक के पास भारी जुर्माना अदा करने के अतरिक्त कोई रास्ता नहीं रहता l बेचारा पुरुष के भाव से आगे बढ़ती कहानी अंत में लेखिका के संवेदनशील मन के एक प्रश्न पर स्त्री के पक्ष में आ खड़ी होती हैl
मैंने कहा, “वो तो ठीक है लेकिन इसमें भी तो आलाकमान पुरुष (ड्राइवर) ही है ना ? औरत (मालती) तो उसके हाथ की कठपुतली है जैसे नचाया वैसे नाची l”

इस एक वाक्य से भले ही भाई फिर से पक्षपात की बात कह कर बात खत्म कर देता है पर पाठक की संवेदनाएँ मालती से जुड़ जाती है, जो अपने पति द्वारा एक हथियार की तरह इस्तेमाल की गईl पर लेखिका ये फैसला पाठक की दृष्टि पर छोड़ देती हैं l

“पैरवीकार” कहानी एक उम्र गुजर जाने के बाद स्त्री के अपनी सपनों को पहचानने और उनके लिए संघर्ष करने की कहानी हैl इसमें लेखन से जुड़ी कई महिलाओं को अपना अक्स नजर आएगा l कहानी की नायिका घर के कामों से समय चुरा-चुरा कर लेखन करती हैl पर घर के लोग स्त्री की प्रतिभा के सहयात्री बनने की जगह उसे बात-बात पर ताने देते हैं कि कलम घिसने की जगह कोई और काम करतीं तो चार पैसे आतेl वो कितनी मुश्किल से इस संतुलन को साधती है इसकी एक बानगी देखिए…

“उसकी नजर सभागार की वॉल पर टँगी घड़ी पर पड़ी तो वो अचानक एक नायिका से आम गृहिणी बन गईl और जल्दी जल्दी घर भागी l रास्ते में उसके मन में यह भय सता रहा था कि अब तो निश्चित ही घर जाकर घर परिवार की खरी-खोंटी सुननी पड़ेगी, इसलिए वो रणक्षेत्र में जाते हुए योद्धा की तरह मन ही मन रणनीति तय करने लगीl”
प्रकाशन जगत की परते खोलती कहानी सकारात्मक अंत के साथ लेखन जगत में प्रवेश कर रहे युवा लेखकों को एक प्रेरणा भी देती हैl

संग्रह के नाम वाली कहानी “पूर्वा” एक शहीद की पत्नी के दर्द को उकेरती है, तो दोबारा सास द्वारा उस के जीवन को जी लेने के अधिकार की वकालत भी करती हैl यहाँ एक स्त्री दूसरी स्त्री की शक्ति बन कर उभरती हैl “बेरंग” उन रूढ़ियों की बात करती है, जिसका शिकार वो मासूम स्त्री है जिसका जीवन साथी उसे बीच राह में छोड़ उस पार चला गया हैl कहानी स्त्री मन के उस कोने को चीन्हती है जो रूढ़ियों को तोड़ बिंदी, चूड़ी धरण करने के बाद भी बेरंग ही रह जाता हैl
“दहेज” “बलिदान की कथा,”दोनों कहानियाँ परिजनों द्वारा स्त्री की इमोशनल ब्लैकमेलिंग कर अपना हित साध लेने की क्रूर कथा हैl पर स्त्री जानते बूझते हुए भी त्याग की उसी दिशा में आगे बढ़ जाती है, इस क्यों का उत्तर कहानी में हैl “अति सर्वत्र वर्जियेत” “शिक्षित होना जरूरी है” टूटते संयुक्त परिवार और अंधविश्वास का विरोध करती उल्लेखनीय कहानियाँ हैंl

कुल मिल कर 120 पेज में समाई संग्रह की बारह कहानियों कि धुरी बहले ही स्त्री जीवन हो पर ये हमारे पूरे समाज का आईना हैंl ये समाज के उन अवगुंठनों को खोलतीं है जिसका शिकार स्त्री जीवन बन गया है l लेकिन ये परिस्तिथियों से उलझते हुए पाठक के मन में एक सकारात्मकता बो देती हैं l

एक सार्थक संग्रह के लिए किरण सिंह जी को बहुत बहुत बधाई व शुभकामनाएँ

समीक्षक – वंदना वाजपेयी

लेखक – किरण सिंह

प्रकाशक – वनिका पब्लिकेशंस

मूल्य – 200 रूपये

पृष्ठ – 120 पेपर बैक

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चारो धाम

चारो धाम 

वरिष्ठ नागरिकों की गोष्ठी चल रही थी। सभी अपने-अपने रिटायर्मेंट के बाद की जिंदगी जीने के अपने-अपने तरीके साझा कर रहे थे। 

रमेश बाबू बोले ” मैं देश – विदेश का भ्रमण कर समय का सदुपयोग करता हूँ ” 

सिद्धेश्वर बाबू ने कहा – “मैं तो समाज सेवा में अपना समय व्यतीत करता हूँ। 

अमरेंद्र बाबू ने कहा – मैं तो भजन कीर्तन और तीर्थ आदि करता हूँ। 

सुन्दर बाबू सभी की बातें सुन रहे थे तभी सबने कहा” आप भी अपनी सुनाइये सुन्दर बाबू ।” 

सुन्दर बाबू ने कहा – मुझे तो नौकरी वाली जिंदगी में बहुत ऐशो आराम मिला, कमी रह गई थी तो गाँव की सहज, सरल जीवन शैली तथा अपनेपन की इसलिए मैं तो रिटायर्मेंट के बाद अपना अधिकांश समय गांव पर बिताता हूँ जहाँ मुझे गंगा के किनारे कश्मीर की झील नज़र आती है तो खेतों में वहाँ की वादियाँ। वहाँ के मंदिर में चारो धाम और बड़े – बुजुर्गों में देव… । “

सुन्दर बाबू की बातें सुनकर वहाँ बैठे सभी लोग अचम्भित हो उनका मुंह ताकने लगे। 

तुम इन फूलों जैसी हो

अनिता  ससुराल में कदम रखते ही अपने व्यवहार से परिवार के सभी सदस्यों के दिलों पर राज करने लगी थी। इसलिए उसके दाम्पत्य की नींव और भी मजबूत होने लगी।

अजय की आमदनी काफी अच्छी थी और परिवार में सिर्फ वही कमाऊ था तो परिवार की अपेक्षाएं उससे काफी थी। जिसे वह पूरी इमानदारी और निष्ठा से निभाया। अजय के इस नेक काम में उसकी पत्नी अनिता भी सहयोग की जिससे परिवार तथा रिश्तेदार काफी खुश थे। इसीलिए बदले में उन दोनों को भी अपने परिवार तथा रिश्तेदारों से काफी मान सम्मान मिलता था।

लेकिन परिस्थितियां सदैव एक समान नहीं रहतीं। अजय का बिजनेस फ्लाप होने लगा जिसके कारण वह परिवार तथा रिश्तेदारों को  पहले जितना नहीं कर पाता था। धीरे-धीरे उसकी आर्थिक स्थिति का असर रिश्तों पर भी पड़ने लगा। जो रिश्तेदार उनकी प्रशंसा करते नहीं थकते वह अब उनकी शिकायतें करने लगे और गलतफहमी इतनी बढ़ी कि एक – एक करके रिश्ते दूर होते चले गये। 

आर्थिक तंगहाली में अजय ने अपनी जमीन बेचने का फैसला किया। जमीन बेचकर उसने आधे पैसों से कर्ज चुकता किया और आधे से डाउन पेमेंट करके बैंक से लोन लेकर एक छोटा सा फ्लैट खरीद लिया यह सोचकर कि घर का जितना किराया देंगे उतने में स्टालमेंट पे करेंगे । 

अजय और अनिता गृह प्रवेश में अपने रिश्तेदारों को भी आमंत्रित किये । लेकिन कुछ रिश्तेदार नाराज थे इसलिए उसके इस खुशी के मौके पर नहीं पहुंचे । नाराजगी इसलिये भी थी कि किसी को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि अजय वास्तव में तंगहाली में है। क्योंकि सभी को तो यही लग रहा था कि अजय झूठ बोल रहा है क्योंकि यदि  तंगहाली होती तो वह फ्लैट कैसे ले सकता था ।

रिश्तेदारों के ऐसे व्यवहार अजय तो दुखी हुआ ही अनिता भी बहुत आहत हुई और मन ही मन उसने निर्णय लिया  कि अब से वह भी उसके साथ जो जैसा व्यवहार करेगा उसके साथ वैसा ही बर्ताव करेगी । वह सोचती आखिर मैं ही क्यों अच्छी बनती फिरूँ? अब जब मैं भी उनकी खुशी में शामिल नहीं होऊंगी तो पता चलेगा। 

समय बीता और महीने दिन बाद उसी रिश्तेदार के बेटे के शादी का आमन्त्रण आया जो कि उनके गृह प्रवेश में नहीं आये थे । बदले की आग में उबलती अनिता ने अजय से कहा “हम नहीं जायेंगे शादी में, आखिर एकतरफा रिश्तों को हम ही क्यों निभाते रहें ?” 

कुछ हद तक अनिता भी बात तो सही ही कह रही थी इसीलिए अजय ने उस समय चुप रहना ही उचित समझा और पत्नी से चाय लाने के लिए कहकर अपने छत की छोटी सी बगिया में बैठ गया। 

अनिता ट्रे में दो कप  चाय और साथ में गर्मागर्म पकौड़े लेकर आई तो अजय ने उसकी तारीफ़ में एक शायरी पढ़ दी। 

अनिता अपने पति को अच्छी तरह से समझती थी इसीलिए पति को मीठी झिड़की देते हुए कहा – “अच्छा – अच्छा बड़ी रोमैंटिक हो रहे हो, साफ – साफ कहो न जो कहना है। ” 

अजय ने गमले में लगे हुए एक लाल गुलाब के फूल को उसके जूड़े में लगाते हुए कहा – “डार्लिंग इन गुलाबों को यदि मसल भी दिया जाये तो ये सुगन्ध फैलाना तो नहीं छोड़ते न? और देखो इन काँटों की फितरत को कि जिन्हें प्रयार से छुओ भी तो वे चुभेंगे ही। इसलिए हम अपना स्वभाव क्यों बदलें? 

तुम इन फूलों जैसी हो।

अजय की बातें सुनकर अनिता का चेहरा गुलाब के फूलों की तरह ही खिल गया। और वह विवाह में जाने की तैयारी करने लगी।

धीरे-धीरे

दिल के पन्ने पलटती रही धीरे-धीरे,
जिंदगी को समझती रही धीरे-धीरे।

जो थे खरगोश वे राहों में  सो गये।
मैं तो कछुए सी चलती रही धीरे-धीरे।

ख्वाब जिंदा रहें इसलिए आँखों में ,।
प्यार की नींद भरती रही धीरे-धीरे।

जिंदगी है बड़ी लाडली सुन्दरी,
पगली मैं उसपे मरती रही धीरे-धीरे ।

खुशी की घुंघरू बांधकर पाँवों में ,
जिंदगी फिर थिरकती रही धीरे-धीरे ।

पुरस्कार

कवयित्री रत्ना को लेखन का बहुत शौक था इसीलिए उनके मन में जो भी आता उसे लिख दिया करती थीं और सोशल मीडिया पर पोस्ट कर दिया करती थीं। शौक मन पर इतना हावी हो गया कि उसकी रचनाएँ पुस्तकों में संकलित होने लगीं। परिणामस्वरूप उसकी जमा – पूंजी पुस्तकें प्रकाशित करवाने में खर्च होने लगीं जिससे उसे कुछ आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ा और घर परिवार में भी आवाज़ उठने लगी कि पुस्तकें प्रकाशित करवारना फिजूलखर्ची के सिवा कुछ भी नहीं है। इस बात से रत्ना बहुत आहत हुई। वह मन ही मन सोच रही थी कि मुझसे तो अच्छी घर की काम वाली बाई है कम से कम वह तो अपने मन से अपनी कमाई खर्च तो कर सकती है। हम घरेलू औरतें चौबीसों घंटा घर परिवार में लगा देती हैं लेकिन उसका कोई मोल नहीं, यह सोचते – सोचते उसकी आँखों से आँसुओं की कुछ बूंदें गालों पर टपक गये। फिर रत्ना ने अपने आँसुओं को आँचल के कोरों से पोछते हुए मन ही मन निर्णय लिया कि अब से मैं इस फिजूलखर्ची में नहीं पड़ूंगी और घर के काम में व्यस्त हो गई।
तभी मोबाइल की घंटी बजी, मोबाइल पर किसी अन्जान का नम्बर था इसीलिए उसने थोड़ा झल्लाते हुए ही मोबाइल उठाया।
उधर से आवाज़ आई “आप रत्ना जी बोल रही हैं?”
रत्ना – “जी बोलिये क्या बात है?”
उधर से आवाज़ आई “जी मैं संवाददाता हिन्दुस्तान से बोल रहा हूँ, सबसे पहले तो हार्दिक बधाई।”
रत्ना – “बधाई…. किस बात की?”
आपको नहीं मालूम?आपको हिन्दी संस्थान से एक लाख रूपये पुरस्कार राशि की घोषणा हुई है।”
रत्ना -“क्या? हार्दिक धन्यावाद…….. अब रत्ना के गालों पर खुशी के आँसू छलक पड़े।
वह मन ही मन ईश्वर का आभार प्रकट करते हुए अपना निर्णय बदल लेती है और संवाददाता द्वारा पूछे गये प्रश्नों का उत्तर देती है।

बाढ़ आँखों की

बाढ़ आँखों की सपने बहा ले गई। 

दर्द देकर हमें हर दवा ले गई। 

रूह घायल पड़ी माँ की खूँ से सनी , 

मौत गठरी दुआ की उठा ले गई। 

लाख पहरा बिठाये रखी जिंदगी, 

चोरनी आके सांसे चुरा ले गई।

रात काली थी तो सो गई जिंदगी, 

नींद सांसों की लड़ियाँ छुड़ा ले गई। 

जाने किसकी लगी है नज़र जिंदगी , 

आज हमको कहाँ से कहाँ ले गई। 

सुन सकी आंधियों की न आहट किरण, 

आशियां मेरी आके उड़ा ले गई।

पर्दाफाश

पर्दाफाश 

एक विशिष्ट सम्मान के लिए रेणुका जी के नाम की घोषणा होते ही संस्था के सभी सदस्य आपस में कानाफूसी करने लगे। 

आज रेणुका जी के ग्रुप में दिये गये उस मैसेज की गुत्थी सुलझने लगी। 

उनका मैसेज था – 

“फिलहाल मेरी नीजी व्यस्तता बहुत अधिक है अतः मैं कार्यकारिणी से स्तीफा तो दे रही हूँ, मगर मैं इस संस्था में अपनी सेवा पूर्ववत देती रहूंगी” रेनुका जी का  मैसेज देखकर ग्रुप में हलचल मच गयी ।

आखिर इतनी सक्रिय सदस्य की ऐसी कौन सी मजबूरी आ पड़ी है कि उन्हें यह निर्णय लेना पड़ा और जब सेवा देती ही रहेंगी तो फिर व्यस्तता कैसी? सभी अपने-अपने सोच के अनुसार अनुमान लगाने लगे  थे।कुछ सदस्य तो रेणुका जी के महानता की गाथा तक गाने लगे थे। 

किन्तु आज कानाफूसी के बाद उस मैसेज के राज़ का पर्दाफाश हो ही गया। 

दरअसल  संस्था का नियम है कि कार्यकारिणी की सदस्य या पदाधिकारियों का नाम पुरस्कार के लिए चयनित नहीं होगा।