एक दूसरे को देखकर हैं दोनो ही मगन |
दूर दूर रहकर जाने कैसे लग गई लगन |
हो ठिठुरती सर्दियाँ चाहे जलाती हो तपन |
स्विकृत किया धरा ने जो खुशी से दे दिया गगन ||
इस पाक साफ प्रेम में न स्वार्थ है न लोभ ही |
वे देख कर ही तुष्ट हैं न दुख प्रकट न छोभ ही |
मगर जभी घेरने को छा जाती हैं बदलियाँ |
फफक कर रोया जो गगन लगीं तड़पने बिजलियाँ ||
लाती संदेश चाँदनी निशा में तो सुबह किरन |
देकर धरा को बोलतीं जो भी कहा उनसे गगन |
तब खिल उठी धरा पहन ली छीट दार चुन्दरी |
सज गई पिया के लिए बन दुलहनिया सुन्दरी ||
वाहः लाजबाब अभिव्यक्ति
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बहुत बहुत धन्यवाद ममता जी!
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बहुत सुन्दर रचना किरण जी
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बहुत बहुत धन्यवाद वंदना जी
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