मुखरित संवेदनाएं, एक लघु लेकिन सारगर्भित कविता संग्रह है जिसमें विभिन्न आयामों तथा रसों की 82 कविताएं समाविष्ट हैं। पुस्तक का पतला कलेवर भ्रामक है क्योंकि इसके एक-एक शब्द वजनदार हैं, अनुभूतियों का सटीक प्रकटीकरण करते हैं तथा कम स्थान में ढ़ेर सारी बातें उड़ेलती है। शब्द चित्र उकेड़ती रचनाएं अपने भीतर विराट अर्थबोघ समेटे है। ये कविताएं वस्तुतः बारिश की भाँति बरसती तो बाहर हैं लेकिन अंतर्मन को भी अपनी फुहारों से भिगों देती है। शब्दों का चयन और वाक्य विन्यास प्रभावी है।
कविता का विषय अगर रूचिकर नहीं भी हो तो भी पाठकों को ऊबाऊपन या भारीपन महसूस नहीं होगा। हर विषय पर न केवल भावुकता बल्कि वैचारिकता, बौद्धिक क्षमता तथा कल्पनाशीलता का भी समावेश है। कल्पनाशीलता होते हुए भी हर कविता सत्य के इर्द-गिर्द घूमती नजर आती है। कविता में व्यंजित पंक्तियाँ अंतःकरण से उठती असली आवाज सी लगती है। अतः इसे गागर में सागर कहा जाय तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। सम्माननीया कवयित्री एक दक्ष गृहिणी के साथ-साथ सृजनशील रचनाकार हैं। कविताओं के पढ़ने से प्रतीत होता है कि वे अपने अनुभव, अनुभूतियों, विचार, नजरिए एवं शैलियों में स्वयं को प्रस्तुत कर रही है।
प्रथम कविता का पहला शब्द ’उन्मुक्त लेखनी’ है तथा ‘अंतिम कविता’ “अब मेरी कलम अचानक बन गई तलवार“ की घोषणा करती है। स्वतंत्र, स्पष्ट एवं सत्य लेखन कविताओं के केन्द्र बिन्दु में है। कवयित्री को शब्दों से एक गहरा रिश्ता दिखाई देता है। दोनों एक दूसरे के पूरक प्रतीत होते हैंः अभिन्न लगते है।
बानगी की तौर पर कविताओं की कुछ पंक्तियाँ उद्धृत हैः ’लेखनी आवरण उतार लिखती है व्यथा मेरी’, “लेखनी के पंख से उड़ना चाहती हूँ“, ’शब्द अर्थ का मेल कराकर, लेखनी प्रवाहित कर दूँ’, ’शब्द-शब्द का गठबंधन, वर्णो से वर्णो का बंधन’, ’भावनाओं को पिरोकरू, छन्द में अभिव्यक्त कर द“ , ’अनुभूतियाँ जीवन की, स्मृति पटल की शब्दों को चुनकर@ छन्दों में बुनकर@ कविता में गढ़ ले, ’अब जरा विश्राम कर लूँ, अपनी कुछ अनुभूतियों, पुस्तकों में दान कर लँू “।
कविताओं में कई स्थल पर भारतीय नारीवाद की समस्याएं प्रकट होती है। विवाह संस्था की रूढि़याँ (“रीतियों की जंजीरों में जकड़ कर“) लड़कियों को पराया धन और वस्तु (“कन्या कोई वस्तु नहीं हैं“) समझना आदि। अपनी सशक्त लेखनी के माध्यम से कवयित्री सामाजिक विसंगतियों से मुठभेड़ करती नजर आती है। कविताओं में सतत् आत्मविश्लेषण दिखाई देता है (“स्वयं से स्वयं का साक्षात्कार“)। परिवेश के प्रति असंतोष है पर असहजता और पलायन का बोध नहीं है। स्त्री-रोदन नहीं है-सामाजिक फरेबों और विचलनों के आघात के बाबजूद जिंदगी के प्रति निराशाजनक या नकारात्मक दृष्टिकोण नहीं रखती है। निरी आशावादिता नहीं बल्कि इसकी जड़ में आत्म संघर्ष है। कवयित्री बड़े फलक पर संवेदनाओं को व्यक्त करती हैं। कविता में विश्वास की अनुगूंज है। कवित्व एवं स्त्रीत्व की तमाम संवेदनाएं से कविताएं प्लावित है। स्त्री-विमर्श बड़ी दक्षता से उठाया गया है। कविताएं खासकर स्त्री-विमर्श के उन पहलूओं को उजागर करता है जो आधुनिक चकाचैंध में धुंधला गये है। आधी आबादी बहुत सी ंमंजिलों को छुआ है लेकिन यह अंतिम सच नहीं है।
हम मूलतः प्रकृति-पूजक है। प्रकृति के साथ हमारा तादात्म्य पर्व, त्योहारों और उपासनाओंं में मिलता है। हमारे देश के बहुरंगी, ऋतुचक्र के विभिन्न रूपों का वर्णन कविताओं में मिलता है। विकास के नाम पर प्रकृति से हो रही खिलवाड़ पर वेदना व्यक्त की गयी है। बंसत पंचमी ज्ञान देवी सरस्वती का आराधना पर्व है। बंसत ठूंठ को पल्लवित करने, पल्लवित को पुष्पित करने आता है। कविताओं में नीले आसमान की असीम संभावनाएं, इंद्रधनुष के सतरंगी रंगों के सपने सागर की अनंत लहरों में अंगराइयाँ लेती हुई दिखायी देती है। प्रकृति चित्रण में विभिन्न उपादानों की विशिष्टता से हमें सीख लेने की सलाह है (“सीख ले हम बादलों से,“ ’अग्नि और हवा’, बूदें और बेटियों“)। कवयित्री ने मार्मिक ढंग से सामाजिक मीडिया और आधुनिक टेक्नोलाजी के जमाने में पत्र-लेखन की कला के लोप को अपनी कविता ’चिट्ठियों के दिन कहाँ गये?“ में किया है। ’लिखा पत्र पिया को मैंने, नयनों से काजल ले उधार’ श्रृंगार रस से ओत-प्रोत है। इन पंक्तियों के पढ़ने पर एक बंगला कविता मानस पटल पर उभर आती हैः
चिठिर लिखे कोरी आमी,
चिठिर पावेर आशा।
चिठिर साथे रोहिलो आमार,
असीम भालोबासा।
कर्म की महत्ता, आशावादिता एवं संघर्ष का कविताओं में अभिव्यक्ति हुई हैः
’कर्म करो निज जीवन साकार करो@फल की इच्छा ऐसे कैसे कर लोगे?@कर्मयोग ही विश्व रीति है@कर्मयोग ही जीवन है,@लक्ष्य अपना तुम पाओ@तुम्हारे पथ पर पुष्प बिछे हैं, पर कंटक से न डरना,@मत घबराना एक हार से@एक दीप जलाने की कोशिश तो कर@मिट जाएगा अंधेरा@आत्मा की आवाज को कभी तो सुना कर,@ हल हो जायगा प्रश्न“ आदि।
इस पुस्तक में गाँव है, शहर है, मुश्किलजदा जिदंगी के संवेदना से भरे स्वर हैं, तो मुहब्बत के सपनीले अल्फाज भी। कविता के केन्द्र घर, परिवार, मा,ँ बेटी आदि हैं जिससे कवयित्री का गहरा सरोकार है। इन कविताओं में गाँव की झलक, मिट्टी की महक तथा ग्राम्य जीवन-दर्शन के तत्व छिपे हैं। समाज को दिशा दिखाने का काम भी कविताएं करती हैं। कवयित्री ने जिन बिम्बों, प्रतीकों का प्रयोग किया है, वे आसानी से पाठक के समझ में आ जाते हैं।
संग्रह में कई रचनाएं अतीत की धवलता को खींचकर वत्र्तमान में स्थापित करती हैं ताकि भूत से प्ररेणा ग्रहण कर सकें और वह धरोहर बन सके। सहज, सरल और सुंदर कविताएं बहुमुखी आयामों में फैली हुई है लेकिन सभी के बीच एकसूत्रत्व है-द्रष्टा भाव से संवेगित तथ्य को निहारने वाले तत्व का, जो आत्मसाक्षात्कार करते चलता है।
वातायन मीडिया एवं पब्लिकेशन प्रा0
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