शतरंज के मोहरों की ही तरह
चलनी पड़ती हैं चालें
कभी आड़ी
कभी तिरछी
इन भावनाओं के
सह मात के खेल में
उलझा रहता है मन
कभी काफिया मिलाने में
तो कभी बहर बैठाने में
कभी गणों के नखरे
तो कभी गीत के मुखड़े
उलझाए रखते हैं वर्ण और अक्षर
बिल्कुल
तुम्हारी ही तरह
नहीं होने देते
कभी
खुद से अलग
चाहकर भी
इसीलिये
आड़ी तिरछी चालें
चलते हैं शब्द सिपाही
तुम्हें घेरने के लिए
कभी घोड़े जैसा ढाई घर
तो कभी हाथी जैसा सीधे
कभी ऊँट जैसा तिरछा
तो मंत्री जैसा हर चाल
चलकर
दे देते हैं मात तुम्हें
प्रेम में
रच देते हैं रचनाओं का किला
बहुत सुन्दर
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धन्यवाद ममता जी
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बहुत सुन्दर रचना
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बहुत धन्यवाद वंदना जी
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बहुत सोच समझ के लिखी गयी भावनात्मक गाथा।
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बहुत बहुत धन्यवाद आपको
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