रूप अपना मैं अक्सर बदलती रही
आपमें ही हमेशा मैं ढलती रही
माला बन आपके उर सुसज्जित रहूँ
खुद में ही मैं कुंदन सी गलती रही
पूर्ण हो जाये आराधना आपकी
वर्तिका बन मैं दीपक की जलती रही
आप तक है पहुंचना मेरी कामना
इसलिये ही निरन्तर मैं चलती रही
रक्त बनकर महावर रंगे पांवों को
तो भी चलकर स्वयं मैं सम्हलती रही
लहरों सी किरण मध्य मझधार में
पाने को किनारा मचलती रही
वाहः बहुत ही खूबसूरत भावव्यक्ति
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धन्यवाद ममता जी
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बेहद सुन्दर रचना किरण जी
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बेहद शुक्रिया वंदना जी
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