अपने बेटे के विवाह का आमन्त्रण कार्ड लेकर एक परीचित पति – पत्नी हमारे घर आए ! चूंकि बेटे का विवाह था तो खुश होना स्वाभाविक ही था जो उनके चेहरे पर साफ झलक रहा था! वैसे भी हमारे यहाँ बेटे के विवाह में तो बेटे के माँ बाप के पाँव जमीन पर ही नहीं पड़ते सो वे परीचित भी अपने साथ – साथ अपने बेटे की प्रशंसा के साथ-साथ विवाह कैसे तय किये, कैसी लड़की है आदि का विस्तृत विवरण सुनाए जा रहे थे और हम उनकी बातों को सत्य नारायण भगवान की कथा की भांति सुने जा रहे थे! अब बेटे के बाप थे तो आत्मप्रशंसा करना भी तो स्वाभाविक ही था !
फिर मैंने उन्हें चाय का कप पकडाते हुए स्वभावतः पूछ ही लिया कि तिलक त ढेरे मीलत होई न ? ( दहेज़ तो काफ़ी मिल रहा होगा न )
तब वो सज्जन बड़े ही मासूमियत से बोले…
ना ना कूछू ना ( नहीं नहीं कुछ भी तो नहीं )
हम त लइकी वाला लोग के साफे कह दीहनी हं कि देखी हामरा कुछ चाही उही ना खाली आपना लड़की केपचास भर सोना के गहना , बारात के खर्चा – बर्चा खातिर दस बारह लाख ले रूपया , अउरी जब हम आतना कह दीहनी तब हामार पत्नी खाली अतने कहली कि हामारा हीत नाता , आ बेटी दामाद लोग के बिदाई खातिर हामरा हांथ में तीन चार लाख दे देब ( हमने तो लड़की वालों से कह दिया है कि हमें कुछ नहीं चाहिए , सिर्फ लड़की के जेवर के लिये पचास भर सोना , बारात का पूरा खर्चा- बर्चा , बारातियों का अच्छी तरह से स्वागत – सत्कार और अच्छी तरह बारातियों की बिदाई कर दीजिएगा , और जब हमनें यह सब कह दिया तो अन्त में मेरी पत्नी बस इतना ही कहीं कि हमारे रिश्तेदारों का बिदाई जो हम करेंगे उसके लिए सिर्फ तीन चार लाख दे दीजिएगा )
यह सुनकर तो मुझे जोर से हँसी आ रही थी फिर भी मैंने अपनी हँसी को रोकते हुए उनकी हाँ में हाँ मिलाती रही! मेरा समर्थन पाकर तो उनकी पत्नी जो तफ से चुपचाप थीं उनके भी कंठ से बोल फूट पड़े सो मेरी तरफ मुखातिब होकर बोलने लगी – बताईं जी अब बेटो के बियाह में घरे से खार्चा ना न करब जा.. ( बताइए जी अब बेटे की शादी में भी घर से खर्च नहीं न करेंगे !
बताइये तो पढ़ाने लिखाने में कितना खर्चा लगता है !
मैंने कह तो दिया हाँ हाँ वो तो है ही! क्यों कि उन्हें बेकार का उपदेश देकर उनकी खुशी में खलल डालना नहीं चाह रही थी लेकिन मन ही मन सोच रही थी कि पढ़ाते तो लड़की वाले भी हैं फिर भी वो अपनी बेटी की शादी का खर्च न सिर्फ खुद उठाते हैं बल्कि बेटे वालों को भी खर्च करने के लिए देते हैं फिर बेटे वाले अपने बेटे की शादी में दरिद्र कैसे हो जाते हैं जबकि वे अपने बेटे की छट्ठी , जन्मदिन , पढाई लिखाई आदि का खर्च तो स्वयं ही उठाते हैं तो फिर विवाह का खर्च के लिए दहेज की आवश्यकता क्यों..?
मैं तो घोर विरोधी हूँ …मैं तो अपने बेटा की शादी में खर्च लड़की वाले तरफ से भी तैयार हूं करने को …अगर लड़की वाले को मंजूर हो तो
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बहुत बढ़िया ममता जी…. बहुत अच्छी बात है…. मैं भी दहेज विरोधी हूँ!
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दहेज़ प्रथा समाज पर कलंक है , आपने बहुत जरूरी प्रश्न उठाया है की जब लड़के वाले लड़के की छठी , पसनी का खर्च खुद उठाते हैं तो शादी का बोझ लड़की वालों पर क्यों ? काश समाज इस बात को समझ पाए | सार्थक आलेख
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बहुत बहुत धन्यवाद वंदना जी…. सच में यह प्रश्न मुझे बहुत परेशान करता है और समाज के लोगों की नासमझी पर तरस आती है !
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मैं इस प्रथा की घोर विरोधी हूँ ।मैंने अपने पुत्र का विवाह बिना किसी आडंबर और दहेज के किया था ।मेरी सोच है कि रोटी और बेटी ने हमारे समाज को पीछे धकेल दिया ।भ्रष्टाचार के मूल में भी दहेज का दानव खड़ा है ।
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जी बिल्कुल… हार्दिक आभार
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