मर – मर कर ही जिंदगी ने,
मरकर जीना सीख लिया |
लगा पाँव को ठोकर तब से ,
स्वयं सम्हला सीख लिया ||
मॄगतृष्णा में भटक-भटक कर ,
भाग रहे हैं लोग यहाँ |
सोच रहा है चातक पंक्षी ,
बूंद स्वाति की मिले कहाँ ||
छलकर विजयी झूठ हो रहा ,
टूट रहा सच का दर्पण |
लोग मुखौटा लिए लगाए ,
बदल रहे देखो क्षण – क्षण ||
जड़ें जमाकर भ्रष्टाचार ,
लो अब तो आचार बनी |
इसीलिये तो आज हमारी,
भारत माँ लाचार बनी |
किस – किस को कोसोगे बोलो,
क्या कहोगे चोरों को |
जब लोग प्रलोभन स्वयं दे रहे ,
लोभी रिश्वतखोरों को ||
सीधेसादे लोगों ने भी ,
छलप्रपंच अब सीख लिया |
लगा पाँव को ठोकर तब से ,
स्वयं सम्हाला सीख लिया ||
समाज की गिरते नैतिक मूल्यों का बहुत सही वर्णन किया है , सार्थक सन्देश देती कविता
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बहुत बहुत धन्यवाद वंदना जी
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