जीवन पथ पर चलते – चलते अचानक कोई ऐसा पथिक मिल जाता है जिनसे लगता है मानो हम चिरकाल से परीचित हों | उसका सानिध्य सुखद लगने लगता है! जिसके आभास मात्र से हृदय में प्रेम की चिंगारी प्रस्फुटित होने लगती है! जिस पर अपना सर्वस्व समर्पित कर अधूरेपन में सम्पूर्णता प्राप्त कर सुरक्षा की अनुभूति करता है मन ! वही होता है हमारा सच्चा हमदम ! और अपने हमदम को विषय बनाकर जो सृजन हुआ हो सही मायने में वही सम्पूर्ण कविता है!
जैसे ही डाकिये के द्वारा दिया गया लिफाफा मैनें खोला उसमें त्रैमासिक पत्रिका करुणावती साहित्य धारा के साथ-साथ पत्रिका की कार्यकारिणी सम्पादिका संगीता सिंह भावना जी का काव्य संग्रह ( मेरे हमदम ) प्राप्त हुआ तो मैं स्वयं को रोक नहीं पायी और संग्रह को पूरा पढ़कर ही उठी!
९२ पृष्ठ में स्पष्ट अक्षरों में उत्कृष्ट काग़ज़ पर अंकित नीले रंग के कवर पृष्ठ पर वृक्ष के नीचे हमदम का चित्र जिसके ऊपर लाईट की रौशनी अपने आप में ही इस पुस्तक में लिखे भावों का चित्रण कर रहा है!
सर्व प्रथम मैं प्रकाश डालना चाहूंगी लेखिका की भावनाओं पर जिसमें उन्होंने बताया है कि किताबें पढ़ना उनका सबसे बड़ा शौक और लगन रहा है! उनके विवाह के प्रथम वर्ष गांठ पर उनके पति से मिला उपन्यास ( गुनाहों के देवता ) पढ़ने के पश्चात पुनः लिखने की उत्कंठा जागृत हुई और तभी से उनकी लेख, कहानी तथा कविताएँ प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगीं !
वैसे तो मैं संगीता जी के लेखन शैली से परीचित हूँ ! जो कि हमेशा से ही मुझे प्रभावित करती हैं पर पुस्तक में संग्रहित उत्कृष्ट रचनाएँ कुछ अधिक ही हृदय को स्पर्श कर गईं जो उनके पहली रचना ( विस्मृतियों के पार) में ही दृष्टिगोचर होता है!
वक्त से एक लम्हा चुराकर
जब मैं सोंचती हूँ तुम्हें
विस्मृतियों के पार
मुझसे होकर गुजरती हैं तुम्हारी
हर याद………
मेरे मन के कोने से
दिखते हैं तुम्हारे हर जज्बात
लेखिका का कवि मन जब कभी अकेले होता है
तो स्वभावतः चिंतन कर इस निष्कर्ष पर पहुंचता है…..
यथा…
कभी जब होती हूँ बहुत
अकेले
सोंचती हूँ हर सम्बन्धों को
बारीकी से
और इस निष्कर्ष पर पहुंचती हूँ कि
हर रिश्ते माँगते हैं समर्पण …..
और कभी-कभी लेखिका का कवि मन स्वप्न में विचरण करते हुए सृजन करता है
कुछ ख्वाब अधूरे से हैं
खूबसूरत दिलचस्प और सतरंगी
जिसमें तुम हो मैं हूँ
और हम हैं…..
और कभी अपने प्रीतम से कहती हैं
पूर्णमासी की रात हो
और हो
तुम्हारा प्यारा साथ
हमें नहीं चाहिये
शानो शौकत
झूठे आडम्बर
कभी प्रियतम की प्रतीक्षा करते हुए कहती हैं
जीवन के स्वप्निल पथ पर
खड़ी खड़ी मैं सोंचू
जाने कब होगा सपना पूरा
निशि दिन जो मैं देखूँ
और फिर प्रीतम का सानिध्य पाकर कहती हैं
अद्भुत अतुल्य तुम्हारा सामिप्य
लगा यूँ जीवंत हो गये सारे सपने
रेत के घरौंदो को मिटाकर
अपनी बेटी को पढ़ने के लिए बिदा करते हुए लेखिका स्वयं की तथा अपनी माँ की परिस्थिति तुलनात्मक समानता दिखाते हुए कहती हैं
पर आज अचानक
आवाक
रह गई मैं
कितनी समानता है मेरे
और मेरी माँ की
आँखों में, बातों में
जब बात
बिदाई की आती है
और फिर उन्हें याद आ जाती है अपनी बिदाई
और उस पल अपने भैया से राखी का हवाला देते हुए कहती हैं…..
अपना हाँथ दो न मुझे
और वचन दो कि
आओगे फिर- फिर
क्यों कि मेरे स्नेह के डोर
सजे हैं तुम्हारी कलाइयों में
कभी लिखते लिखते कागज पर ही स्नेहिल छवि उभर जाती है और फिर उनकी कलम माँ को लिखते हुए कहती हैं ..
लिखती हूँ जब भी
काग़ज़ के पन्नों पर
एक स्नेहिल छवि उभर आती है
शायद…… संसार की सबसे
अनुपम….. कृति है माँ
कभी लेखिका जिंदगी से सवाल करती हैं
कभी खामोश कभी खफा सी लगती है |
जिंदगी तू ही बता तू मेरी क्या लगती है ||
इतना ही नहीं लेखिका ने भारत के जवानों को भी आह्वान कर यह सिद्ध कर दिया है कि उनके अन्दर देशभक्ति की भावना भी कूट कूट कर भरी हुई है ..
हे भारत के वीरों
उठो उठो आँखें खोलो
माया मोह ममता को त्याग कर
एक नये इतिहास का सृजन कर
अन्त में अन्तिम पन्ने पर लेखिका का संवेदनशील मन कूड़े के ढेर में भी अपना कलम चला ही दिया….
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कूड़े के ढेर में
ढूढता बचपन
बाल जीवन
तलाशता हर पल
कूड़े के ढेर में
जीविकोपार्जन
आज भी
इस प्रकार लेखिका ने अनेक विषयों पर अपनी कलम चलाई है जो सराहनीय है!
कुल मिलाकर यह काव्य संग्रह पठनीय एवं संग्रहणीय है जिसका मूल्य मात्र ७० रूपये हैं!
लेखिका विदुषी तो हैं ही! हम कामना करते हैं कि इनके लेखन का रसास्वादन देश विदेश में बसे जन जन तक पहुंचे !
लेखिका -संगीता सिंह ‘भावना’
प्रकाशक – रत्नाकर प्रकाशन इलाहाबाद
बहुत सुन्दर कविताएं सभी पंक्तियो में अनमोल भाव प्रकट किया
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