चुन – चुन दाना चोंच में , लाती बारम्बार |
देख अचम्भित मैं हुई ,माँ बच्चों का प्यार |
माँ बच्चों का प्यार , देखकर मैंने सच्चा |
सीखा गुण दो चार, लगा जो मुझको अच्छा |
कहे किरण कर यत्न ,सोचती क्यों घबराना |
गौरैया हर बार , खिलाती चुन – चुन दाना ||
चुन – चुन दाना चोंच में , लाती बारम्बार |
देख अचम्भित मैं हुई ,माँ बच्चों का प्यार |
माँ बच्चों का प्यार , देखकर मैंने सच्चा |
सीखा गुण दो चार, लगा जो मुझको अच्छा |
कहे किरण कर यत्न ,सोचती क्यों घबराना |
गौरैया हर बार , खिलाती चुन – चुन दाना ||
अब वो आँगन कहाँ
जो वो अपना घोंसला बना सके
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सच है लेकिन छत पर उनके लिए दाना पानी तो दिया जा सकता है न ताकि वो विलुप्त न हो जायें
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बड़ते शहर घटता गांव
घर में आँगन हैं नही
तो शहरो में अपनी छत कहाँ
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हाँ वो तो है… लेकिन बड़ी बिल्डिंगों में भी छत होता ही है अपना न सही साझा ही सही….
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जाल बना हैं तारों का
तन का धर सूख रहें हैं
रंग बिरंगे कपड़ों के बीच
प्रकृति से रिश्ते टूट रहे हैं
समय नही अब छत में बैठे कोई
जन चेतना अब भागम भाग में खोई
कड़वा हैं पर सच हैं
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वाकई सच है….. किन्तु जहाँ चाह है वहीं राह है
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हा सच हैं
क्योकि लाख कमियां सही
ये दुनिया है तो हमारी ही
कौन क्या करता है फ़र्क नही
ये बारी हमारी ही सही ।।
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वाहहहहहह
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