शाश्वत प्रेम

सुनो कृष्ण
यूँ तो मैं तुममें हूँ
और तुम मुझमें
बिल्कुल सागर और तरंगों की तरह
या फिर
तुम बंशी और मैं तुम्हारे बंशी के स्वर की तरह
शब्द अर्थ की तरह
आदि से अनंत तक का नाता है
मेरा और तुम्हारा

मैं हूँ तेरी राधा
हमारा प्रेम कभी कामनाओं पर आधारित नहीं था
क्यों कि हमारी भावनायें सशक्त थीं
हम दोनों तो दो आत्माएँ हैं
हम दोनों में प्रियतमा और प्रियतम का भेद है ही नहीं।
बस मिलन की तीव्र जिज्ञासा
पैदा करती है अभिलाषा
हम दोनों को एकाकार कर दिया
जो शरीर से अलग होने के बाद भी
अलग नहीं हुए कभी
इसलिए मुझे कभी वियोग नहीं हुआ
तुमसे अलग होने पर भी
लेकिन तुमने अपना बांसुरी त्याग दिया था
मथुरा जाते समय
अपना गीत, संगीत, सुर, साज
क्यों कि तुम कर्म योगी थे
तुम्हें कई लक्ष्य साधने थे
मैनें अपने प्रेम को तुमको लक्ष्य में
कभी बाधक नहीं बनने दिया
प्रेम को अपना शक्ति बनाया
कमजोरी नहीं
अरे हमने ही तो प्रेम को परिभाषित किया है
तभी तो स्थापित है हम
साथ-साथ मन्दिरों में
भजे जाते हैं
भजन कीर्तनों में
कि प्रेम शक्ति है कमजोरी नहीं
प्रेम त्याग है स्वार्थ नहीं
हम तो
हर दिलों में धड़कते हैं
बनकर
शाश्वत प्रेम

Advertisement

2 विचार “शाश्वत प्रेम&rdquo पर;

एक उत्तर दें

Fill in your details below or click an icon to log in:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  बदले )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  बदले )

Connecting to %s