देखो आया है डोली द्वार,
सजन घर जाना पड़ेगा,
मुझे कर दे सखी तैयार,
सजन घर जाना पड़ेगा
चाहे रोऊँ चाहे गाऊँ
या चाहे मैं रूठूँ मनाऊँ
यत्न होंगे सभी बेकार
सजन घर……………….
मन मेरे कुछ भी नहीं भाये
रह रह कर जियरा घबराये
नयनों से बहे जलधार
सजन घर………………….
सोचूँ तो फटती है छाती
किससे भेजूंगी मैं पाती
चली मैं तो सखी उस पार
सजन घर…………………….
यही है जग की रीत सखी री
गाओ मंगल गीत सखी री
अब तो करना पड़ेगा स्वीकार
सजन घर……………………..
सज कर आई मेरी डोली
जाऊँगी मैं बैठ अकेली
चलो डोली उठाओ कहार
सजन घर…………………..
बहुत सुंदर कविता … इसमें दो रंग हैं एक श्रृंगार रस और दूसरा जीवन दर्शन … दोनों का अद्भुत संयोग , बधाई किरण जी
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हृदय से आभार वंदना जी…… सच कहा आपने….. पहली बार निर्गुण लिखने का प्रयास किया मैंने !
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बहुत सुंदर है मन में भय भी और उमंग भी
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सादर आभार
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