प्रेम धरा अम्बर का
चिर काल से चला है,
आदि काल तक चलेगा
जब बढ़ता है प्रेम ताप
हो जाता है ठोस द्रव ,
पिघलता है गगन
होती है वर्षा
खिल जाती है धरा
भूल जाती है पीर
क्यों कि
स्त्री है न
सारी शिकायतें
खत्म कर लेती है
क्यों कि समझ लेती है
मजबूरियाँ
सह लेती है
दूरियाँ
यह प्रक्रिया
चलता रहा है
और चलता
रहेगा
अनवरत
Waah….kya khubsurati se likha hai….bahut badhiya.
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बहुत बहुत धन्यवाद आपको
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बहुत सुंदर रचना किरण जी … बधाई
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बहुत बहुत धन्यवाद वंदना जी
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हार्दिक धन्यवाद वंदना जी
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