विषय है स्त्री विमर्श
ढूढ रही हूँ शब्द इमानदारी से
कि लिखूं स्त्रियों की असहनीय पीड़ा
दमन , कुण्ठा
कि जी भर कोसूं पुरुषों को
कि जिन पुरूषों को जानती हूँ उन्हें ही
कुछ कहूँ भला बुरा
पर
सर्व प्रथम पुरूष तो पिता निकला
उन्हें क्या कहूँ
वह तो मेरे आदर्श हैं
फिर सोचा
चलो आगे दूसरे को देखती हूँ
अरे वह तो भाई निकला
जिसकी कलाई पर राखी बांधती आई हूँ
प्रति वर्ष
अब आती हूँ पति पर इन्हें तो छोड़ूगी नहीं
लड़ने की सोचती हूँ
कि कितना झेलना पड़ता है मुझे घर में
लेकिन लड़ूँ तो कैसे
बेचारे के पास समय और हिम्मत ही कहाँ बची है लड़ने के लिए
सारी उर्जा तो दफ्तर में ही खत्म हो जाती है
फिर थके हारे हुए इंसान से
लड़ूँ तो कैसे लड़ूँ…?
लिखना तो है ही
आखिर स्त्री विमर्श है
चलो बेटों को ही कोसती हूँ
पर क्या करूँ
मेरी तो आँखों पर तो पट्टी चढ़ गई है
पुत्र में तो कोई दोष दिखाई ही नहीं देता
फिर किस पुरूष को कोसूं ?
अरे, अरे क्यों चिंतित हो किरण
बहुत आसान है अजनवी पुरुषों को
कोसना
आखिर बात स्त्री विमर्श की है
कोसो जी भर कर
वाह ☺️☺️☺️बहुत अच्छा है…
गहराई है विचारों में..👍👍🙏
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