
मानव मन बड़ा चंचल होता है। एक पाया नहीं कि दूसरे को पाने की इच्छा जागृत हो जाती है। इसलिये उसे साधित करना बहुत कठिन कार्य है।
बात कुछ चौबीस – पच्चीस वर्ष पूर्व की है। तब मुझे किसी कार्यक्रम के लिए सितार पर पाँच राग अच्छी तरह से तैयार करना था। मेरे गुरु जी हफ्ते भर से एक ही राग ( बहार ) का कभी रजाखानी गत तो कभी मसीतखानी गत के स्थाई, अन्तरा, आरोह, अवरोह, पकड़ पर बार – बार तबले के संगत के साथ अभ्यास करवाये जा रहे थे जब कि राग अच्छी तरह से तैयार हो गया था।
मैं चाह रही थी कि जल्दी – जल्दी से पाँचो राग तैयार कर लूँ इसलिए मैंने गुरु जी से कहा भी कि अब दूसरा राग सिखायें तो भी गुरु जी अपने मन की किये जा रहे थे। मेरा मन थोड़ा उब भी रहा था और मन में कहीं न कहीं यह लग रहा था कि गुरु जी को जब हम प्रतिदिन का इतना फीस देते हैं तो उन्हें मेरे हिसाब से ही पढ़ाना चाहिये।
मन ही मन में सोच रही थी कि यदि अब मेरी बात गुरु जी नहीं माने तो मैं दूसरे संगीत टीचर को बुलाऊँगी।
गुरु जी दूसरे दिन भी आये और उसी राग का अभ्यास करवाते हुए बोले कि आज तुम्हारा यह राग अच्छी तरह से तैयार हो गया है पर इसका प्रेक्टिस प्रतिदिन करना क्यों कि एकौ साधे सब सधे, सब साधे सब खोय। अर्थात एक की साधना करने से सब साधित हो जायेगा और सभी को साधने के चक्कर में सब कुछ भूल जायेगा। जैसे समझो किसी आदमी के पास एक ही तलवार है और वह उसे रोज मांजता है और किसी के पास कई तलवार है और वह नहीं माजता है तो किसका तलवार काम का है..?
इसके बाद गुरु जी क्रमशः दूसरा तीसरा, चौथा तथा पाँचवा राग भी सिखा दिये।
लेकिन मैं गुरु जी के कहे अनुसार राग बहार का ज्यादा अभ्यास करती थी।
मेरा कार्यक्रम हुआ जिसमें मेरी बहुत तारीफ़ भी हुई।
उस दिन तो गुरु जी ने सिर्फ राग के बारे में यह बात बताया था लेकिन यह जिंदगी में अन्यत्र भी बहुत उपयुक्त वाक्य है। चाहे वह प्रेम के लिए हो, ईश्वर के हो या फिर रचनाओं की विधि या विषय में ।
Bahut hi sundar and mahatvapurN baath bathaayi hai aapne. Bahut accha lagaa. Koti koti dhyanyavad
पसंद करेंLiked by 1 व्यक्ति
धन्यवाद
पसंद करेंLiked by 1 व्यक्ति