ब्रम्ह की लिखी कहानियाँ तो हमारे आस-पास में बिखरी पड़ी हैं जिसे हुनरमंद लेखनी पन्नों पर उतार कर जन – जन तक पहुँचाने में सफल हो जाती हैं। कुछ ऐसा ही करिश्मा शम्भू पी सिंह जी की लेखनी कर गई है जिसकी बदौलत खूबसूरत तथा रोचक कहानियों का संग्रह दलित बाभन खूबसूरत कवर पृष्ठ में सुसज्जित होकर पाठकों का ध्यान स्वतः ही अपनी ओर आकृष्ट कर रही हैं ।
एक सौ साठ पृष्ठ की इस पुस्तक में कुल अट्ठारह कहानियाँ संग्रहित हैं। सभी कहानियों में रोचकता , प्रवाह तथा कौतूहल प्रचुर मात्रा में हैं जो कि पाठक के मन को बांधने में सक्षम हैं। कहानियाँ सरल भाषा में लिखी गई है जिससे पाठक के मस्तिष्क पर अतिरिक्त भार नहीं पड़ता।
संग्रह की पहली ही कहानी दलित बाभन जो कि पुस्तक का नाम भी है में लेखक ने एक प्रेम कथा के माध्यम से सामाजिक विसंगतियों तथा जाति व्यवस्था पर बड़ी सहजता से कड़ा प्रहार किया है जिसे पढ़कर पाठक सोचने पर विवश हो जाता है।
कहानी की नायिका सावित्री कांटाहा ब्राम्हण ( जिसका काम श्राद्ध कर्म करना होता है )की गाँव के सुविधाओं पर कुलीन ब्राम्हणों का आधिपत्य था इसीलिए कांटाहा ब्राम्हण, ब्राम्हण होते हुए भी समाज के लिए अछूत थे ) की बेटी रहती है जिसे अपने ही घर में काम करने वाली दाई माँ के बेटे सदेशर जो कि दसवीं कक्षा तक उसका सहपाठी भी रहा है से प्रेम हो जाता है। सदेशर अपनी जाति और सावित्री के जाति का हवाला देकर इस रिश्ते को आगे बढ़ने से रोकना चाहता है तो सावित्री अपनी जाति की कुप्रथा और कुरीतियों को गिनाती है साथ ही अपने मजबूर पिता जो कि ज्यादा दान दहेज देकर योग्य वर से अपनी पुत्री का विवाह करवाने में असमर्थता की बात भी करती है और बताती है कि वह उनके द्वारा एक अधेड़ से तय किये गये रिश्ते को नहीं स्वीकार सकती। सावित्री की बातें और मजबूरी सुनकर सदेशर को लगता है कि हम दलितों की स्थिति तो कांटाहा ब्राम्हण से अच्छी है। कम से कम हमारी बिरादरी के लोग तो हमें अछूत नहीं मानते और वह उससे विवाह करने के लिए राजी हो जाता है।
इसी तरह पुस्तक की दूसरी कहानी ठहरी जिंदगी में एक बुजुर्ग की समस्या को बहुत ही मार्मिक तरीके से पेश किया गया है जो आज के समय की मूल समस्या है।
घर से निकले हुए वृद्ध की आँखें भर आईं। उनका एक बेटा डी एस पी है तो दूसरा बेटा इंजीनियर। एक बेटी भी है जो अच्छे घर में ब्याही गई है। बेटे अपने पिता के द्वारा बनाये गये मकान का हिस्सा लगाकर किराये पर लगा दिये और पिता को वृद्धाश्रम की तलाश में भटकने को विवश कर दिये । बेटी इसलिए नाराज है क्योंकि पिता ने अपनी सम्पत्ति दोनो बेटों में ही बांट दी और बेटी को कुछ भी नहीं दिया।
संग्रह की तीसरी कहानी मी टू का किरदार एक दीपिका नाम की औरत की कहानी है जो भावना में बहकर अपने साथ हुए घटना की चर्चा अपने पति से कर देती है। यह सब सुनकर उसका पति उसके साथ दुर्व्यवहार करने लगता है और उसे घर से निकल जाने को कहता है। परेशान दीपिका अपनी दीदी की सहेली उषा से मदद माँगती है जिसके पति के आॅफिस से उस घटना का सम्बन्ध है। उषा दीपिका की मदद करने के लिए अपने पति पर दबाव डालती है। उषा का पति जब समस्या को सुलझाने के लिए राजी होकर मामले के तह तक जाता है तो पता चलता है कि उस मी टू का किरदार तो वह स्वयं है ।
संग्रह की चौथी कहानी अपनो की तलाश, एक ऐसे शख्स की कहानी है जो रिटायर्मेंट के बाद की खुशहाल जिंदगी के स्वप्न अपनी आँखों में संजोये घर आता है। सोचता है कि बहुत भागदौड़ कर ली जिंदगी में अब सुकून की जिंदगी जीऊँगा लेकिन रिटायर्मेंट के दूसरे ही दिन उन्हें कटु अनुभवों का सामना करना पड़ता है। और तो और उनकी पत्नी भी उन्हें ही दोष देने लगती है। अन्ततः सोच समझकर वे फिर से कार्यालय में काम करने जा पहुंचे जिस आॅफर को वह ठुकरा चुके थे।
संग्रह की सबसे मार्मिक कहानी गइया – मइया में लेखक ने एक स्त्री की दशा से अच्छी गाय की दशा को दिखलाया है। कहानी में रामायणी दो बेटियों की माँ है। जिसकी दो और बेटियों को गर्भ में ही मार दिया गया है। वह फिर गर्भ से है और उसका पति तथा उसकी सास उस पर भ्रुण जांच करवाने के लिए दबाव डाल रही है। वहीं गाय के दो बछड़ों को कसाई के हवाले कर दिया गया है और इस बार उम्मीद की जा रही है कि उसे बाछी हो। तब रामायणी को लगता है कि कितनी स्वार्थी दुनिया है कि गाय से चाहती है कि बाछी हो और मुझसे बेटा। जब रामायणी अपनी व्यथा अपनी ननद को सुनाती है तो उनकी बातों को सुनकर गाय की आँखों से आँसुओं की बरसात होने लगती है। जब रामायणी गाय से उसकी रोने की वजह पूछती है तो गाय कह रही है कि मैं तो तेरे लिए रो रही हूँ क्योंकि तुझसे तो अच्छी मेरी दशा है। कमसे कम मेरे बछड़ों को तो कसाई मारता है न और तुम्हारी अजन्मी बच्चियों को तो तुम्हारा ही पति मरवा देता है।
संग्रह की छठी कहानी में रिश्ते की मर्यादा को तार – तार करती हुई एक औरत की मजबूरी दिखाई गई है जिसका ससुर अपने नपुंसक बेटे का विवाह कर देता है और जबरदस्ती अपनी ही बहु का चीर हरण कर लेता है। अपनी घृणित जिंदगी से तंग आकर कहानी की नायिका अंततः बगावत पर उतर कर घर छोड़ देती है।संग्रह की ग्यारहवीं कहानी पटनदेवी एक रोचक तथा खूबसूरत विवाहेत्तर सम्बन्धों पर आधारित प्रेम कहानी है जिसमें नायक अपनी प्रेमिका सम्भावना के आग्रह पर पटनदेवी मंदिर जाता तो है लेकिन अपनी पत्नी के साथ जो कि सम्भावना को अच्छा नहीं लगता है। लेकिन मंदिर में भीड़ की वजह से पत्नी बाहर ही रह जाती है और कहानी के नायक – नायिका एक साथ पति-पत्नी की तरह पूजा करते हुए भविष्य के सुन्दर कल्पना में विचरण करने लगते हैं। जहाँ नायक – नायिका के संयोग की यह खूबसूरत घटना कहानी के नायक के आँखों की नींद उड़ा देती है वहीं इन सब बातों से अनजान भोली भाली पत्नी निर्भेद सो रही होती है।
संग्रह की सातवीं कहानी, कहानी की कहानी में कथाकार ने समाज में व्याप्त जाति, धर्म तथा लिंग के भेदभाव पर व्यंगात्मक तरीके से जमकर प्रहार किया है। कहानी में ब्राम्हण को सवर्ण का बड़ा बेटा दिखाया गया है जिसकी सभी भाई तो सुनते हैं लेकिन मुस्लिम भाई से हमेशा ही ठन जाती है। एक दिन पंडित और मुस्लिम भाई में हाथापाई हो गई। इस वजह से पंडित का सिर फट गया और काफी खून बह गया। आखिरकार पंडित को मुस्लिम का ही खून चढ़ाना पड़ा।
इसी प्रकार संग्रह की आठवीं कहानी में भी कथाकार ने समाज की जाति व्यवस्था पर जमकर प्रहार करते हुए अपनी कलम चलाई है।
संग्रह की नौवीं कहानी धारा 497 अवैध है भारतीय समाज के आम स्त्री की कहानी है जिसमें कहानी की नायिका अर्पिता अपने पति की मर्जी के खिलाफ सामाजिक संस्था में कार्यरत है। इसलिए उसे घर लौटने में कभी-कभी देर हो जाता है। जब पति धमकी देता है कि जिसके साथ आती-जाती हो उसी के साथ रहो तो वह गुस्से में आकर अपने पति को दिखाने के लिए कहानी के नायक को अपने साथ घर में ले आती है। जब नायक ने वजह पूछा तो उसने बताया कि यह तरीका अपनी घरेलू समस्या से निजात पाने का के लिए था। संग्रह की तेरहवी कहानी घिन्न तो मुझे मर्दों से आने लगी है भी स्त्री विमर्श की वकालत करती हुई कुछ इसी तरह की है।
कहानी नम्बर दस गाँधी मैदान की सैर में तो सचमुच लेखक ने कहानी के नायक – नायिका के वार्तालाप के रेलगाड़ी पर अपने पाठकों को बिठाकर बड़ी खूबसूरती से घर परिवार से लेकर समाज तक की सैर करा दी।
संग्रह की बारहवीं कहानी पुरस्कार एक
साहित्यकार को केंद्र में रखकर लिखी गई है जिनकी बहुत सी पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं किन्तु उन्हें एक भी पुरस्कार मयस्सर नहीं हो पाया। अपनी फटेहाल जिंदगी से परेशान होकर वह सोचते भी हैं कि कोई एक पुरस्कार मिल जाता तो कम से कम आगे की जिंदगी सुधर जाती। आखिरकार उन्हें पुरस्कार तो मिला लेकिन दुनिया से जाने के बाद।
संग्रह की चौदहवीं कहानी लपक चाटते जूठा पत्तल हृदय को झकझोर कर रख देने वाली तथा इंडिया शाइनिंग पर प्रश्न चिन्ह लगाती हुई कहानी है। जिसमें कचरे में से खाने की वस्तुओं आदि पर टूट पड़े बच्चों की गतिविधियों का सजीव चित्रण किया गया है।
संग्रह की पन्द्रहवीं कहानी बक – बक चुप हो गई का अनुमान कहानी के शीर्षक से ही लगाया जा सकता है। इस कहानी में पति के मोबाइल पर दिन – रात काॅल आने से परेशान पति-पत्नी के बीच बक – झक का वर्णन बहुत रोचक तरीके से किया गया है। किन्तु कहानी का अंत पत्नी का बक – बक बन्द होकर बहुत ही मार्मिक हो जाता है।
संग्रह की सोलहवीं कहानी गर्भ – जात में कथाकार ने समसामयिक समस्या लव जेहाद पर अपनी कलम चलाई है।
संग्रह की सत्रहवीं कहानी हम क्यों न मुसलमान बन जायें में भी जाति – पाति के भेदभाव के चलते उठे विद्रोह को बहुत ही बारीकी से दिखाया गया है। जिसमें एक विधायक जो कि मंदिर निर्माण में काफी मदद करते हैं से मंदिर का उद्घाटन सिर्फ इसलिए नहीं करवाया जा रहा है क्योंकि वह दलित है तो एक दलित के कण्ठ से विद्रोह के स्वर फूट पड़े और वह बोला कि क्यों न हम मुसलमान बन जायें जहाँ इस तरह का भेदभाव तो नहीं न होगा।
और इस संग्रह की अंतिम कहानी अधिकार लेकर रहेंगे में कथाकार की लेखनी ने नक्सलवाद की समस्या को उठाते हुए गन्दी राजनीति को नंगा कर दिया है।
इस तरह से इस संग्रह की प्रत्येक कहानी हमारे आस-पास के परिवेश तथ समाज के किसी न किसी व्यक्ति की कहानी प्रतीत होती है जिसे कथाकार ने अपने उत्तर कथन में स्वीकारा भी है। कहानी पढ़ते हुए पाठक किसी न किसी किरदार से स्वयं को जुड़ा हुआ पाता है जो कि लेखक की सफलता का द्योतक है। अपनी कहानियों में कथाकार ने वर्ण व्यवस्था, सामाजिक परिवेश, प्रेम की मधुरता, स्त्री-पुरुष के सम्बन्ध आदि पर बहुत ही सूक्ष्मता से कलम चलाई है अतः यदि हम इस पुस्तक को समाज का आइना कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी ।
इस प्रकार हम इमानदारी से कह सकते हैं की यह पुस्तक पठनीय तथा संग्रहणीय है ।इस पुस्तक के लेखक माननीय शम्भू पी सिंह जी को मैं बधाई और शुभकामनाएँ देती हूँ और आशा करती हूँ कि भविष्य में हमे उनकी और भी कहानियाँ पढ़ने को मिलेंगी।
कहानी संग्रह “दलित बाभन”बहुत सारगर्भित समीक्षा।हर कहानी का विस्तार से वर्णन किया गया है।किरण जी को बहुत बहुत बधाई
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सादर आभार 🙏
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