अपने जीवन के कार्यकाल की अवधि में प्रायः कार्यालय में कार्यरत व्यक्ति लोगों से घिरे होते हैं । जिसके हाथ में जितना पावर उसके उतने ही अधिक चमचे । ऐसे में मतलब से ही सही उन्हें सलामी ठोकने वाले संख्या असंख्य होती हैं। ऐसे में जब वह अवकाश प्राप्त करते हैं तो उन्हें कुछ ज्यादा ही खालीपन महसूस होने लगता है । उनके मन में एक नकारात्मक भाव उत्पन्न हो जाता है कि अब मैं किसी काम का नहीं रहा। अब मेरी कोई कद्र नहीं है। परिणामस्वरूप वह धीरे-धीरे अवसादग्रस्त होने लगते हैं। वह इतना अधिक चिड़चिड़े हो जाते हैं कि पराये तो पराये अपने भी उनसे कटने लगते हैं। स्थिति दिनोंदिन बद से बदतर होने लगती है। ऐसे में आवश्यकता है मनुस्मृति के अवलोकन की और चिंतन मनन की।
मनु ने मानव आयु को सामान्यत: एक सौ वर्ष की मानकर उसको चार बराबर भागों में बांटा है।
१) ब्रह्मचर्य, (२) गार्हस्थ्य, (३) वानप्रस्थ और (४) संन्यास।
जब सिर के बाल सफेद होने लगे और शरीर पर झुर्रियाँ पड़ने लगे तब मनुष्य जीवन के तीसरे आश्रम-वानप्रस्थ-में प्रवेश करता है।
यूँ तो वानप्रस्थ का अर्थ वन प्रस्थान करने वाले से है लेकिन आज के परिप्रेक्ष्य में घर के झंझावातों तथा राग द्वेष से मुक्त होकर सामाजिक कार्य करने वाले व्यक्ति भी एक तरह से वानप्रस्थी ही हैं और सामाजिक संस्थाएँ आश्रम। क्योंकि मनुस्मृति में भी वानप्रस्थ के बारे में कहा गया है महर्षिपितृदेवानां गत्वानृण्यं यथाविधि। पुत्रे सर्व समासज्य वसेन्पाध्यस्थ्यमास्थित:।। ढलती उम्र में अपने पुत्र को गृहस्थी का उत्तरदायित्व सौंप दें। वानप्रस्थ ग्रहण करें और देव पितर व ऋषियों का ऋण चुकाएं। वानप्रस्थ आश्रम में उच्च आदर्शों के अनुरूप जीवन ढालने, समाज में निरंतर सद्ज्ञान, सद्भाव और कुप्रथाओं के विरोध आदि में काम करने का मौका मिलता है। जिससे लोक-परलोक सुधरता है।
इस हिसाब से यदि हम सकारात्मकता के साथ सोचेंगे तो यह जीवन संध्या हमारे जीवन का सबसे खूबसूरत और सुनहरा पल होता है बस आवश्यकता है आत्मसाक्षात्कार की ।
प्रत्येक मनुष्य की अपनी अभिरुचि होती है, अपने सपने होते हैं लेकिन वह रोजी-रोटी के चक्कर में वह सब छोड़ देता है। सामाजिक दायित्वों को निभाते – निभाते स्वयं को भूल जाता है लेकिन कहीं न कहीं उनके मन के कोने में एक टीस रहती है कि काश मैं यह कर पाता।
ऐसे में अवकाशप्राप्त व्यक्तियों के लिए इससे अधिक सुनहरा समय भला क्या हो सकता है?
फिर निराश क्यों होना?
बस अपनी अभिरुचि को पहचानें और शुरु कर दें अपने मन का काम। जैसे किसी का रुझान संगीत की तरफ है तो गीत संगीत सीखने – सीखने में लग जायें। जिनको लेखन कार्य में अभिरुचि है तो लेखन आदि में लग जायें या फिर समाजसेवा में लग जायें। यदि चाहें तो अपनी अभिरुचि के अनुसार ही संगठन या संस्था से जुड़ जायें क्योंकि वहाँ आपके मनोनुकूल लोग मिलेंगे तो विचार विनिमय करना अच्छा लगेगा।
जिस विषय में आपकी अच्छी पकड़ हो उसकी मुफ्त सेवा दें।
इस तरह से कितने ही कार्य या शौक आपके कार्यकाल के दौरान समयाभाव के कारण छूट गये हैं उन्हें जरूर करें। क्योंकि जिंदगी न मिलेगी दुबारा।
ऐसा करने से आप स्वतः अनुभव करेंगे कि जीवन यह समय जीवन की संध्या नहीं, बल्कि जीवन की खूबसूरत सुरभित, चहकती नई भोर है ।
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