कवि तू धर्म निभाता चल
विश्व चमन का बनकर प्रहरी
आशा दीप जलाता चल
कवि तू धर्म निभाता चल
नीरसता जग में भर जाये
नीरवता से मन घबराये
सुर सुमनो को चुन – चुनकर के
लय बद्ध कर गाता चल
कवि तू धर्म निभाता चल
दिखे अकेला कोई पथ में।
बनकर साथी जीवन रथ में
लक्ष्य साधना सीखलाकरके
राह सही दिखलाता चल
कवि तू धर्म निभाता चल
जब जन जायें भूल नीतियाँ
हो जायें जब कुटिल प्रवृत्तियाँ
सदाचार का पाठ पढ़ाकर
उन्हें नीति समझाता चल
कवि तू धर्म निभाता चल
समक्ष रोगियों का वैद्य बन
सहलाकर उनका दुखता मन
छूकर मर्म सृजन कर कोई
जन – जन को बहलाता चल
कवि तू धर्म निभाता चल
शत्रु करे जब कभी आक्रमण
शष्त्र उठाकर तू भी तत्क्षण
बनकर योद्धा युद्ध भूमि में
अपना शौर्य दिखाता चल
कवि तू धर्म निभाता चल
बहुत ही खूब कहा है… अति सुंदर रचना 👌
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बेहतरीन रचना।👌👌
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