एक और दिन का इजाफ़ा
वैसे तो एक ही फूल अपनी खूबसूरती और सुगंध से मानव मन को मोह लेने के लिए पर्याप्त होता हैं, ऐसे में जब रंग विरंगे फूलों की वादियों में ही विचरण करने को मिल जाये तो मनुष्य किसी और लोक में विचरण करने की अनुभूति करने लगता है। एक फूलों से लदे पौधे को भर नज़र देख भी नहीं पाता कि दूसरी लतिकाएँ उनकी निगाहों को बरबस ही अपनी ओर खींच लेती हैं। ऐसे में उसे समझ में ही नहीं आता है कि कहाँ नज़रें टिकाये, किन फूलों की प्रशंसा करे। कुछ ऐसी ही स्थिति आज मेरी भी वरिष्ठ कवि, गीतकार, लेखक, माननीय भगवती प्रसाद द्विवेदी जी की पुस्तक एक और दिन का इज़ाफ़ा (काव्य संग्रह) पढ़कर हो रही है।
शीर्षक को प्रतिबिंबित करती हुई कवर पृष्ठ से सुसज्जित पुस्तक में आत्मकथ्य तथा आकलन के अलावा कुल इकसठ (61) कविताएँ हैं जो कि दो खण्डों में ( ऐसे खतरनाक समय में तथा जीवनराग ) बटी हुई एक सौ बावन पृष्ठों में संग्रहित हैं। पुस्तक की प्रायः हर कविता राष्ट्रीय स्तर के प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी है इसलिए उसके स्तर का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।
कवि की कविताओं की खूबसूरती की बखान किन शब्दों मैं करूँ यह मेरे लिए एक चुनौती है।
वैसे प्रत्यक्ष को प्रमाण क्या… इसीलिए मैं कवि के आत्मकथ्य की ही चंद पंक्तियों से ही शुरुआत करती हूँ –
मेरे लिए अन्तः की असह्य अकुलाहट ही अभिव्यक्ति का सर्वाधिक सशक्त जरिया है कविता, गीत – नवगीत। इस सन्दर्भ को ही कवि ने अपने आत्मकथ्य को एक नवगीत में बांधने की कोशिश की है, जिसकी कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत करती हूँ –
अंतर की
असह्य अकुलाहट
लिखने को उकसाये।
जब बँधुआ
मज़ूर की बेबस
सिसकी पड़े सुनाई,
खस्सी के आगे
धर जाई
हँसे ठठात कसाई
अदहन – से
उबले विचार में
दुश्मन दाल गलाये…….
आत्मकथ्य में ही आगे कवि लिखते हैं –
मगर यह हिन्दी कविता का दुर्भाग्य है कि मुक्त छंद की अतुकांत कविता ही समकालीन कविता के रूप में रुढ़ हो गई और गीत को गलदश्रु भावुकता का पर्याय मान लिया गया तथा इसकी मौत की भी बकायदा घोषणा कर दी गई……………..
मेरा स्पष्ट मानना है कि कविता अगर देह है तो गीत उसकी आत्मा। कविता यदि जिंदगी है तो गीत उसकी धड़कन। अतः गीत की बदौलत ही जिंदगी और उसकी जीवंतता बरकरार है।……..
कवि ने कुछ ऐसे
जब सिकोड़ लें
पंख तितलियाँ
और चहकना
भूल जाये चिड़ियाँ……
संग्रह की पहली ही कविता जिन्दा है गाँव में कवि की संवेदना घर लीपने वाले पोतन तक के लिए भी जागृत हो जाती है –
पता नहीं किसने रख छोड़ा था
उसका नाम – पोतन
निरर्थकता में भी बोध सार्थकता का
हर तरह से पहनने में नाकाबिल
फटा – चिटा चिरकुट
डुबोकर जिसे पानी – पियरी माटी के घोल में
गृहणियाँ लीपती – पोतती हैं – चूल्हा – चौका
और पसर जाता है रसोई पकाने के लिए
एक जरूरी पवित्र सोंधापन
कवि ने उम्र के आख़िरी पड़ाव पर पहुँचे व्यक्ति की भावनाओं पर पैनी दृष्टि रखते हुए बहुत मार्मिक ढंग से सत्य और सटीक चित्रण किया है –
एक और दिन का इजाफ़ा
आयु की ऊँचाई पर पहुँचकर
जब वे करते हैं कोई ऊँची सी बात
तो हम सिगरेट के धुएँ – सा
छल्ला बनाकर
उड़ाते हैं उनका मज़ाक –
उम्र के इस आखिरी पड़ाव पर
नाती – पोतों पर उनकी निर्भरता
बना देती है उन्हें हर तरह से परजीवी
अंदर- ही – अंदर कुढ़ते
राख की आग से सुलगते
बन कर रह जाते हैं वे
आत्मजीवी व अतीतजीवी
बैठा दिये जाते हैं
खेत में पड़े बिजुके – से
मकान के किसी फालतू कोने – अंतरे में
जहाँ उलझे रहते हैं वे
परम्परा, पोंगापंथी, और पोथी पतरे में ……………..
रात – रात भर करते हैं जिंदगी का लेखा-जोखा
बुनते हैं स्मृतियों का इन्द्रजाल
आते – जाते हैं चिर – परिचित आत्मीय चेहरे
सालता है अपनो का परायापन
पत्नी की बिछुड़न
और बेटे, बहू पोते, पतियों की भीड़ में
उनका निपट अकेलापन
लोगों को हैरत होती है उन्हें जीवित देखकर
मगर क्या सचमुच ज़िन्दा हैं वे?
क्यों ज़िन्दा हैं वे?
तभी जगा देती है उन्हें
दूध पीती उनकी पड़पोती
और निजात मिल जाती है
अंतहीन प्रश्नों की चुभन से
पोपले मुँह से गा उठते हैं प्रभाती
एकाएक भर जाते हैं
अग्नित्व व बालसुलभ उष्मा से
और हो जाता है उनकी लम्बी उम्र में
एक और दिन का इजाफ़ा।
कवि की लेखनी स्त्रियों की अस्मिता से परिचित करवाती हुई कुछ यूँ चली है –
आखिर क्या हो तुम?
आँगन की तुलसी
फुदकती – चहकती गौरैया
पिंजरे में फड़फड़ाती परकटी मैना
अथवा किसी बहेलिये के जाल में फँसी
बेबस कबूतरी?
तुम्हारे माथे पर
दहकता हुआ सिंदूर है
भट्ठे की ईंट है
टोकरियों का बोझ है
या काला – कलूटा पहाड़?
पहाड़
जिसे तुम ढोती हो अपने माथे पर
अनवरत /जीवन पर्यन्त……………..
गंगा – 1
सांस्कृतिक थाती में कवि ने गंगा का परिचय देते हुए लिखा है –
पतित पावनी गंगे। माँ भारती।
नहीं है तुम्हारा नाम
किसी नदी /महानदी का
अर्वाचीन, प्राचीन अथवा इक्सवीं सदी का
नहीं हो तुम पूजा – अर्चना मात्र
तुम तो हो एक लोक आस्था
जिसके कदमों में श्रद्धा से झुक जाता है माया
भारतीय संस्कृति की इकलौती थाती
तुम्हीं तो हो माँ।
तुम्हारी ममतामयी गोद में
खेलते – कूदते
किलकते हैं करोड़ों नवजात
मुरझाए अधरों पर नाच उठती है
मुस्कान की लहलहाती फसल
और थिरक – थिरक उठता है मन – मयूर
तुम्हारा जल नहीं मन का दर्पण है
भारतीयता के प्रति सच्चा समर्पण है………………
जब कवि की पैनी दृष्टि साहब के अट्टहास पर पड़ती है तो उनकी बेबाक लेखनी ठेठ बिहारी हिन्दी में लिखती है –
कुर्सी में धँसे काठवत
साहब का अट्टहास
कितना धाँसू /कितना विस्फोटक
कि आ जाता है सकते में
पूरा महकमा
कठुआ जाता है माहौल
काठ हो जाती है हवा
और सकपका उठते हैं मातहत
जैसे बुरे सपने देख
चकचिहा जाता है
किलकारी मारता बेसुध बबुआ……………….
कवि ने बच्चों के आने पर अपनी संवेदनाओं को यूँ अभिव्यक्त किया है –
तुम्हारे आने पर
लगा मानो
ऊसर में ही सीना ताने
अंकुरित हो आया हो बीज……….
तुम्हारी तुतली बोली की मिठास से
मुझे एकाएक मिल गई निजात
पारिवारिक कलह व खुद के अकेलेपन से
और चतुर्दिक मिसरी घोलने लगी
कलरव – किलकारी – कहकहों की
खुशनुमा अनुगूँजों की इन्द्रधनुषी उजास
जैसे एक बार फिर
लौट आया हो मेरा बचपन……………….
कवि जीवन राग में रोशनियों के मोती शीर्षक नामक गीत में लिखते हैं –
आप बड़े हैं
बहुत बड़े हैं
हम तो छोटे जन हैं
आप शीर्ष
मंचों की शैभा
दरी बिछाते हैं हम
बैठ ज़मीं पर
उजबुक- से
तालियाँ बजाते हैं हम
नारे – बैनर
झंडे को
कांधे पर ढोते जन हैं………………
कवि सोचिए श्रीमान जी। कविता में तो सचमुच हमें सोचने पर विवश कर दिये हैं –
कौन है
कितना निकम्मा
सोचिए श्रीमान जी।
आप तो
धन की तुला पर
नेह नाते तोलते,
सिर्फ मतलब
से ही मतलब
मान हरदम खौलते
हैं विवश
क्यों सेठ धन्ना?
सोचिए श्रीमान जी…………………..
चलते चलते कवि की कलम देश के लिए लिखती है –
क्रान्ति वीर ने
देश के लिए
प्राण गँवाए थै।
उनका जाना
महज एक
जीवन का अंत नहीं था,…………..
कवि हिन्दी भाषा को कुछ यूँ परिभाषित करते हैं –
भाषा बहती नीर
हमारी हिन्दी है,
तहज़ीबी तासीर
हमारी हिन्दी है।
इसमें गंगा जमुनी
संस्कृतियों की लय,
जन – मन की आशा
अभिलाषा का संचय
साखी – सबद – कबीर
हमारी हिन्दी है।
अम्मा के आँचल का
दूध भरा इसमें,
आखर – आखर स्नेह –
सुमन पसरा इसमें
हम सबकी तकदीर
हमारी हिन्दी है।………….
कवि की लेखनी एकाकी परदेशी के दर्द को यूँ बयाँ करती है –
उमड़े जन सैलाब मगर
है एकाकी परदेसी
शिखरों में भी कूट – कूटकर
भरा हुआ बौनापन
रिश्ते काँचो की किरचें
करता आहत अपनापन
निरख रहा चिलमन के
पीछे से झाँकी परदेसी।
वैसे तो कवि उत्तर प्रदेश बलिया से हैं, किन्तु उनकी कर्मभूमि बिहार रही है तो बिहारियों की तारीफ़ करना कैसे भूल सकते हैं –
जीवटता के धनी, बिहारी।
तेरी जय हो।
कीचड़ में रह कमल सरीखे खिलते आए
विधि गति वाम काल कठिनाई दाएँ – बाएँ
ऊसर – बंजर में भी बहा पसीना तर – बरू
काँटों में बिंधकर गुलाब – से फूल खिलाए
तुमने कभी न हिम्मत हारी,
तेरी जय हो।…………………
कवि की कलम परमार्थ हेतु नयी कोपलों की खातिर कुछ यूँ चली है –
तुम्हें मुबारक
रश्मि दूधिया
चकाचौंध वाली
हम तो दियना – बाती
तम में
जलते जायेंगे।
परीकथा – से
स्वर्ण – जड़ित दिन
रातें रजतमयी,
तुम्हें क्या पता,
सपना देखे
सदियाँ बीत गयीं।
तुम्हें मुबारक
हो बसंत की
आयातित थिरकन,
नयी कोपलों
की खातिर
हम झरते जायेंगे……………..
कवि की लेखनी प्रिया को सौन्दर्यबोध करवाते हुए लिखती है –
अन्तर्मन का
कल – कल – छल – छल,
लहरों पर
उठता – गिरता जल
भीतर बहती
एक नदी हो तुम।
मलय पवन की
खुशबू लेकर,
सोनजुही
चंपा सी बेकल
झुकी डाल – सी
पुष्पलदी हो तुम ।
आमंत्रण का
भाव जगाती
कला अजंता
को झुठलाती
रसिक काव्य की
चतुष्पदी हो तुम।
कवि की रचनाओं में भोजपुरी लोकोक्तियों और मुहावरों का खूबसूरत समन्वय देखने को मिलता है।
उनकी रचनाएँ चाहे छन्द मुक्त हों या छन्द बद्ध अपने कथ्य को बहुत ही सरलता, रोचकता एवम् प्रभाव पूर्ण तरीके से गढ़ी गई हैं।
इस प्रकार कवि की कलम करीब – करीब प्रत्येक विषय को बहुत ही निपुणता से उठाते हुए अपने कथ्य को बड़े ही खूबसूरती से अपने पाठकों तक पहुँचाने की बीड़ा उठाई है जो निश्चित ही प्रशंसा की पात्र है जो कि पुस्तक पढ़ने के पश्चात ही पाठक समझ पायेंगे।
मैं कवि की प्रखर लेखनी को नमन करते हुए उनकी इस कृति की जी खोलकर सराहना करती हूँ। आज के इस दौर में ऐसी रचनाएँ हमें बिरले ही पढ़ने को मिलती हैं।
मैं माननीय कवि को इस कृति के लिए हार्दिक बधाई देते हुए कामना करती हूँ कि आगे भी हम पाठकों को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ने को मिलती रहेंगी।
किरण सिंह
लेखक – भगवती प्रसाद द्विवेदी
प्रकाशक – अमिधा प्रकाशन
मूल्य – 300 ( तीन सौ रुपये )

Bahut shandar review
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