लाॅकडाउन में अपने दरवाजे के बाहर अपनी मालकिन के बेटे मोहित को देख शीला बाई कुछ घबराई हुई सी खाना छोड़कर झटपट बाहर निकलती और पूछा क्या बात है भैया मालकिन की तबियत तो ठीक है न? मुझे उनकी ही चिंता लगी रहती है कि जो मैडम एक कप भी नहीं धोती थीं वह घर का सारा काम कैसे कर रही होंगी। शीला बाई के स्वर में वाकई चिंता झलक रही थी।
आप चिंता न करें भैया मैं छुप छुपाकर किसी भी तरह आकर मैडम का काम कर दिया करूंगी।
मोहित बोला कोई जरूरत नहीं है अपनी और हम सबों की जान जोखिम में डालकर आने की। सरकार यूँ ही थोड़े न लाॅकडाउन की हुई है। और हाँ अगर सुन लिया न कि इस बीच किसी के यहाँ भी काम करने गई तो फिर मेरे यहाँ का काम छोड़ देना।
मोहित की बात सुनकर शीलाबाई कुछ रुआँसी सी हो गयी और मन ही मन सोचने लगी कि यह अमीर लोग गरीबों का दुख कैसे समझ सकेंगे भला। कहावत सच ही है जाकी पाँव फटी न बिवाई वो क्या जाने पीर पराई। उनके स्टोर में तो राशन भरा पड़ा होगा। फिर वो हमारा दुख क्या समझेंगे कि हम एक दिन काम नहीं करेंगे तो अगले दिन खायेंगे क्या..?
तभी मोहित अपनी जेब से कुछ रुपये निकाल कर शीलाबाई को देते हुए बोला लो यह पिछले महीने का तनख्वाह और इस महीने का एडवांस मम्मी भिजवाई हैं। जाकर राशन खरीद कर रख लेना । लाॅकडाउन बढ़ भी सकता है और यदि किसी भी तरह की मदद की जरूरत होगी तो काॅल कर लेना।
शीलाबाई अचम्भित मोहित का मुह ताकते रह गई और सोचने लगी कि गलत कहते हैं कि बड़े लोगों का दिल बड़ा नहीं होता।
©किरण सिंह