अन्त: के स्वर – दोहों का सुंदर संकलन

सतसैयां के दोहरे, ज्यूँ नाविक के तीर |
देखन में छोटे लगे, घाव करें गंभीर ||

वैसे ये दोहा बिहारी के दोहों की ख़ूबसूरती के विषय में लिखा गया है पर अगर हम छन्द की इस विधा पर बात करें जिसके के अंतर्गत दोहे आते हैं तो भी यही बात सिद्ध होती है | दोहा वो
तीक्ष्ण अभिव्यन्जनायें हैं जो सूक्ष्म आकर में होते हुए भी पाठक के अन्त:स्थल व् एक भाव चित्र अंकित कर देती हैं | अगर परिभाषा के रूप में प्रस्तुत करना हो तो, दोहा, छन्द की वो विधा है जिसमें चार पंक्तियों में बड़ी-से बड़ी बात कह दी जाती है | और ये (इसकी चार पंक्तियों में (13, 11, 13, 11 मात्राएँ के साथ ) इस तरह से कही जाती है कि पाठक आश्चर्यचकित हो जाता है | हमारा प्राचीन कवित्त ज्यादातर छन्द बद्ध रचनाएँ हीं हैं | दोहा गागर में सागर वाली विधा है पर मात्राओं के बंधन के साथ इसे कहना इतना आसान नहीं है | शायद यही वजह है कि मुक्त छन्द कविता का जन्म हुआ | तर्क भी यही था कि सामजिक परिवर्तनों की बड़ी व् दुरूह बातों को छन्द में कहने में कठिनाई थी | सार्थक मुक्त छन्द कविता का सृजन भी आसान नहीं है | परन्तु छन्द के बंधन टूटते ही कवियों की जैसे बाढ़ सी आ गयी | जिसको जहाँ से मन आया पंक्ति को तोड़ा-मरोड़ा और अपने हिसाब से
प्रस्तुत कर दिया | हजारों कवियों के बीच में अच्छा लिखने वाले कवि कुछ ही रह गए | तब कविता का पुराना पाठक निराश हुआ | उसे लगा शायद छन्द की प्राचीन विधा का लोप हो जाएगा | ऐसे समय में कुछ कवि इस विधा के संरक्षण में आगे आते रहे, जो हमारे साहित्य की इस धरोहर को सँभालते रहे |उन्हीं में से एक नाम है किरण सिंह जी का | किरण सिंह जी छन्द बद्ध रचनाओं में न सिर्फ दोहा बल्कि मुक्तक,रोला और कुंडलियों की भी रचना की है |

“अन्त: के स्वर” जैसा की नाम सही सपष्ट है कि इसमें किरण जी ने अपने मन की भावनाओं का प्रस्तुतीकरण किया है | अपनी बात में वो कहती हैं कि, “हर पिता तो अपनी संतानों के लिए अपनी सम्पत्ति छोड़ कर जाते हैं, लेकिन माँ …? मेरे पास है ही क्या …? तभी अन्त : से आवाज़ आई कि दे दो अपने विचारों और भावनाओं की पोटली पुस्तक में संग्रहीत करके , कभी तो उलट –पुलट कर देखेगी ही तुम्हारी अगली पीढ़ी |” और इस तरह से इस पुस्तक ने आकर लिया | और कहते है ना कि कोई रचना चाहे जितनी भी निजी हो …समाज में आते ही वो सबकी सम्पत्ति हो जाती है |
जैसे की अन्त: के स्वर आज साहित्य की सम्पत्ति है | जिसमें हर पाठक को ऐसा बहुत कुछ मिलेगा जिसे वो सहेज कर रखना चाहेगा |

भले ही एक माँ संकल्प ले ले | फिर भी कुछ लिखना आसान नहीं होता | इसमें शब्द की साधना करनी पड़ती है | कहते हैं कि शब्द ब्रह्म होते हैं | लेखक को ईश्वर ने अतरिक्त शब्द क्षमता दी होती है | उसका शब्दकोष सामान्य व्यक्ति के शब्दकोष से ज्यादा गहन और ज्यादा विशद होता है | कवित्त का सौन्दर्य ही शब्द और भावों का अनुपम सामंजस्य है | न अकेले शब्द कुछ कर पाते हैं और ना ही भाव | जैसे प्राण और शरीर | इसीलिए किरण जी एक सुलझी हुई कवियित्री की तरह कागज़ की नाव पर भावों की पतवार बना कर शब्दों को ले चलती हैं …

कश्ती कागज़ की बनी, भावों की पतवार |
शब्दों को ले मैं चली , बनकर कविताकार ||

अन्त: के स्वर का प्रथम प्रणाम

जिस तरह से कोई व्यक्ति किसी शुभ काम में सबसे पहले अपने ईश्वर को याद करता है , उनकी वंदना करता है | उसी तरह से किरण जी ने भी अपनी आस्तिकता का परिचय देते हुए पुस्तक के
आरंभ में अपने हृदय पुष्प अपने ईश्वर के श्री चरणों में अर्पित किये हैं | खास बात ये है कि उन्होंने ईश्वर से भी पहले अपने जनक-जननी को प्रणाम किया है | और क्यों ना हो ईश्वर ने हमें इस सुंदर सृष्टि में भेजा है परन्तु माता –पिता ने ही इस लायक बनाया है कि हम जीवन में कुछ कर सकें | कहा भी गया है कि इश्वर नेत्र प्रदान करता है और अभिवावक दृष्टि | माता–पिता को नाम करने के बाद ही वो प्रथम पूज्य गणपति को प्रणाम करती है फिर शिव को, माता पार्वती, सरस्वती आदि भगवानों के चरणों का भाव प्रच्छालन करती हैं | पेज एक से लेकर 11 तक दोहे पाठक को भक्तिरस में निमग्न कर देंगे |

संस्कार जिसने दिया, जिनसे मेरा नाम |

हे जननी हे तात श्री, तुमको शतत् प्रणाम ||

..
अक्षत रोली दूब लो , पान पुष्प सिंदूर |

पहले पूज गणेश को, होगी विपदा दूर ||

शिव की कर अराधना, संकट मिटे अनेक |
सोमवार है श्रावणी , चलो करें अभिषेक ||

अन्त: के स्वर का आध्यात्म

केवल कामना भक्ति नहीं है | भीख तो भिखारी भी मांग लेता है | पूजा का उद्देश्य उस परम तत्व के साथ एकीकर हो जाना होता है | महादेवी वर्मा कहती हैं कि,

“चिर सजग आँखें उनींदी, आज कैसा व्यस्त बाना,
जाग तुझको दूर जाना |”

मन के दर्पण पर परम का प्रतिबिम्ब अंकित हो जाना ही भक्ति है | भक्ति है जो इंसान को समदृष्टि दे | सबमें मैं और मुझमें सब का भाव प्रदीप्त कर दे | जिसने आत्मसाक्षात्कार कर
लिए वह दुनियावी प्रपंचों से स्वयं ही ऊपर उठ जाता है | यहीं से आध्यात्म का उदय होता है | जिससे सारे भ्रम दूर हो जाते हैं | सारे बंधन टूट जाते हैं | किरण जी गा उठती हैं …

सुख की नहीं है कामना, नहीं राग , भय क्रोध |
समझो उसको हो गया , आत्म तत्व का बोध ||
……………………….

अंतर्मन की ज्योति से, करवाते पहचान |
ब्रह्म रूप गुरु हैं मनुज, चलो करें हम ध्यान ||

अन्त : के स्वर में नारी

कोई स्त्री स्त्री के बारे में ना लिखे … असंभव | पूरा संसार स्त्री के अंदर निहित है |जब एक स्त्री स्त्री भावों को प्रकट करने के लिए कलम का अवलंबन लेती है तो उसमें सत्यता अपने अधिकतम प्रतिशत में परिलक्षित होती है | अन्त : के स्वर का नारी की विभिन्न मन : स्थितियों के ऊपर
लिखे हुए दोहों वाला हिस्सा बहुत ही सुंदर है | एक स्त्री होने के नाते यह दावे के साथ कह सकती हूँ कि ये हर स्त्री के मन को स्पर्श करेगा | इसमें चूड़ी हैं, कंगना है, महावर है और है एक माँ की पत्नी की बेटी की स्त्री सुलभ भावनाएं जो मन के तपती रेत पर किसी लहर सम आकर नमी सृजित कर देती हैं |

जीवन हो सुर से सजा , बजे रागिनी राग |
ईश हमें वरदान दो , रहे अखंड सुहाग ||
………………….

लिया तुम्हें जब गोद में , हुआ मुझे तब बोध |
सर्वोत्तम वात्सल्य है, सुखद सृष्टि का शोध ||
…………………….

करती हूँ तुमसे सजन, हद से अधिक सनेह
इसीलिये शायद मुझे , रहता है संदेह ||
…………………..

मचल-मचल कर भावना, छलक –छलक कर प्रीत |
करवाती मुझसे सृजन , बन जाता है गीत ||

अन्त: के स्वर में नीति मनुष्य को मनुष्य बनाता है सदाचार | मनुष्यत्व का आधार ही सदाचार है | दोहों में नीति या जीवन से सम्बंधित सूक्तियाँ ना हों तो उनका आनंद ही नहीं आता | कबीर , तुलसी रहीम ने नीति वाले दोहे आज भी हम बातों बातों में एक दूसरे से कहते रहते हैं |रहीम दास जी का ये दोहा देखिये ...

जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग |
चन्दन विष व्याप्त नहीं, लिपटे राहत भुजंग ||

बिहारी यूँ तो श्रृंगार के दोहों के लिए अधिक प्रसिद्ध हैं पर आम प्रचलन में उनके नीति के ही
दोहे हैं | ‘अन्त : के स्वर में भी किरण जी ने कई नीति के दोहे सम्मिलित किये हैं| हर दोहा अपने साहित्यिक सौन्दर्य के साथ एक शिक्षा दे जाता है |

अपनों से मत कर किरण, बिना बात तकरार |

जो हों जैसे रूप में , कर लेना स्वीकार ||

कर यकीन खुद पर किरण , खिलना ही है रूप |

मूर्ख मेघ कब तक भला, रोक सकेगा धूप ||

सुख में रहना संयमित, दुःख में धरना धीर |
संग समय के आ पुन :, हर लेगा सुख पीर ||

अन्त: के स्वर में प्रेम

प्रेम मानव मन की सबसे कोमल भावना है | प्रेम के बिना तो जीवन ही पूरा नहीं होता तो कोई पुस्तक पूरी हो सकती है भला ? किरण सिंह जी ने भी प्रेम के दोनों रंगों संयोग और वियोग के दोहे इस पुस्तक में लिखें हैं | प्रेम केवल दैहिक नहीं होता यह मन व आत्मा से भी होता है | अक्सर देह के अनुराग को ही प्रेम समझ बैठते हैं पर देह तो प्रेम की तरफ बढ़ाया पहला कदम मात्र है | प्रेम की असली अभिव्यंजना इसके बाद ही पल्लवित –पुष्पित होती है जहाँ से यह मन और आत्मा के स्तर पर अवतरित होता है | प्रेम पर अपनी कलम चलाने से पूर्व ही वो प्रेम का परिचय देती हैं |

प्रेम नहीं है वासना, प्रेम नहीं है पाप |

प्रेम पाक है भावना, नहीं प्रेम अभिशाप ||

प्रेम नहीं है वासना , प्रेम नहीं है भीख |
प्रेम परम आनंद है, प्रेम प्रेम से सीख ||
अन्त: के स्वर :राजनीति

वो कवि ही क्या जिसकी कलम देश की स्थिति और समकालीन समस्याओं पर ना चले | आज की
राजनीति दूषित हो चुकी है चुनाव के समय तो नेता वोट माँगने के लिए द्वार –द्वार जाते हैं |याचना करते हैं पर चुनाव जीतते ही उनके दर्शन दुर्लभ हो जाते हैं | इस भौतिकतावादी युग में नेता सबसे ज्यादा भ्रष्ट हैं ये कहना अतिश्योक्ति ना होगी |पीड़ित, शोषित , दुखी व्यक्ति कराहते रह जाते हैं और सत्ता जन प्रतिनिधियों की मुट्ठी गर्म करती रहती है | ये बात कवियित्री को मर्मान्तक पीड़ा से भर देती है |

जनता के दुःख दर्द से, जो रहते अनभिज्ञ |
उसको ही कहते यहाँ , किरण राजनीतिज्ञ ||

…………………….

घूम रहे बेख़ौफ़ हो, करके कातिक खून |
कैसे होगा न्याय जब , अँधा है क़ानून ||

अन्त :के स्वर में स्त्री विमर्श

आज कल साहित्य में स्त्री विमर्श की बाढ़ आई हुई है | जिसे पुरुष बड़ी संदिग्ध दृष्टि से देखते हैं | उसे लगता है कि उसके अधिकार क्षेत्र में महिलाओं की दखलंदाजी हो रही है | वो अभी भी अपने उसी नशे के मद में रहना चाहता है | स्त्री विमर्श सत्ता की नहीं समानता की बात करता है | यूँ तो स्त्री विमर्श हर काल में स्थित था परन्तु महादेवी वर्मा ने इसकी वकालत करते हुए कहा कि स्त्री विमर्श तभी सार्थक है जब स्त्री शिक्षित हो और अर्थ अर्जन कर रही हो | वर्ना ये सिर्फ शाब्दिक प्रलाप ही होगा | मैत्रेयी पुष्पा , उषा किरण खान, प्रभा खेतान, सुधा अरोड़ा, चित्रा मुद्गल आदि स्त्री विमर्श की अग्रणीय लेखिकाएं रही है | इससे पितृसत्ता की जंजीरे कुछ ढीली तो हुई है पर टूटी नहीं है | आगे की कमान समकालीन लेखिकओं को संभालनी है | किरण जी ये दायित्व पूरी जिम्मेदारी के साथ उठाते हुए कहती हैं कि …

अपनी कन्या का स्वयं, किया अगर जो दान |

फिर सोचो कैसे भला , होगा उसका मान ||

करके कन्यादान खुद, छीन लिया अधिकार |

इसीलिये हम बेटियाँ , जलती बारम्बार ||

जो दहेज़ तुमने लिया, सोचो करो विचार |
बिके हुए सुत रत्न पर , क्या होगा अधिकार ||

अन्त: के स्वर में प्रकृति

प्रकृति मनुष्य की सहचरी है | ये लताएं ये प्रसून , ये हवाएं, नदी झरने ,वन, विविध जलचर वनचर | ईश्वर भी क्या खूब चितेरा है उसने अपनी तूलिका से प्रथ्वी पर अद्भुत रंगों की छटा बिखेर दी है| प्रकृति को देखकर ना जाने कितनी बार प्रश्न कौंधता है, “वो चित्रकार है ?” श्री राम चरित मानस किष्किन्धा कांड में जब प्रभु श्री राम अपने लघु भ्राता लक्ष्मण के साथ पूरा एक वर्ष सुग्रीव द्वारा माता सीता की खोज का आदेश देने की प्रतीक्षा में बिताते हैं तो तुलसी दास जी ने बड़ी ही सुंदर तरीके से सभी ऋतुओं का वर्णन किया | उन्होंने हर ऋतु के माध्यम से शिक्षा दी है |

रस-रस सूख सरित सर पानी ,
ममता त्याग करहिं जिमी ज्ञानी ||

दादुर ध्वनि चहुँ दिशा सुहाई |
वेड पढई जनु वटू समुदाई ||

कवियित्री के मन को भी प्रकृति विह्वल करती है | यहाँ पर किरण जी ने हर ऋतु की सुन्दरता को अपने शब्दों में बाँधने का प्रयास किया है |

पिघल गया नभ का हृदय, बरसाए है प्यार |

धरती मैया भीगती, रिमझिम पड़े फुहार ||

हरियाली ललचा रही , पुरवा बहकी जाय |
हरी धरा की चुनरी , लहर –लहर बलखाय ||

अंत में … कवयित्री ने इस छोटी सी पुस्तक के माध्यम से अपनी भावनाओं का दीप जलाया है| जिसकी लौ उनके अनुभवों से प्रदीप्त हो रही है | उन्होंने प्रकृति , नारी , स्त्री विमर्श , आध्यात्म , भक्ति , पर्यावरण ,साहित्य व् समकालें राजनैतिक दशा हर तरह के अँधेरे को अपनी परिधि में लिया है | खास बात ये हैं कि पुस्तक के सभी दोहों में लयात्मकता व् गेयता है | हिंदी साहित्य की इस विधा को जीवित रखने का उनका अप्रतिम योगदान है | 111 पृष्ठ वाली इस पुस्तक का कवर पृष्ठ आकर्षक है |

*अगर आप भी दोहे की विधा में रूचि रखते हैं तो ये पुस्तक आपके लिए एक अच्छा विकल्प है |

अन्त: के स्वर –दोहा संग्रह
लेखिका –किरण सिंह
प्रकाशक जानकी प्रकाशन
पृष्ठ – 111
मूल्य – 300 रुपये

वंदना बाजपेयी

पुस्तक अमेजन पर उपलब्ध है

Advertisement

एक उत्तर दें

Fill in your details below or click an icon to log in:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  बदले )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  बदले )

Connecting to %s