हमेशा औरों की मदद करने वाली धार्मिक प्रवृत्ति की मनोरमा की आँखें, स्वयं ही मदद की गुहार लगाती हुई याचक की तरह टकटकी लगाये हुए थी कि कोई भी कोविड से बेहाल उसके पति के लिए बेड की व्यवस्था कर दे। लेकिन कोविड मरीजों की भीड़ इतनी ज्यादा थी की वह अपने नम्बर की प्रतीक्षा में परेशान हुए जा रही थी। वह बार-बार कभी हास्पिटल के कर्मचारियों से गुजारिश कर रही थी तो कभी ईश्वर का स्मरण कर रही थी, लेकिन इस विकट घड़ी में उसका गुहार कोई भी नहीं सुन रहा था। वह मन ही मन सोच रही थी कि बड़े बुजुर्ग हमेशा कहते हैं कि किसी की मदद यदि तुम करते हो तो तुम्हारी मदद भगवान करेंगे। लेकिन “कहाँ हैं भगवान?” उसका विश्वास ईश्वर पर से उठने लगा था।
उसे लगने लगा था कि भगवान भी पैरवी और पैसे वालों की ही सुनते हैं। तभी तो खादी धारी नेताओं तथा वर्दीधारियों के लिए हल्के सर्दी-जुकाम में भी तुरंत वी आई पी इंतजाम हो जाता है और आम आदमी की कोई सुनने वाला नहीं है। उसके पति की तेज चलती हुई सांसे उसकी धड़कने तेज कर रही थीं। उसके मन में बुरे – बुरे खयालात आने लगे थे । अब उसे ईश्वर के प्रार्थना में भी मन नहीं लग रहा था।
तभी हास्पिटल का कर्मचारी आकर बोला कि एक बेड खाली है और वह उसके आगे वाले व्यक्ति जो कि करीब अस्सी वर्ष के होंगे को अंदर आने के लिए कहा।
मनोरमा ने कर्मचारी से पूछा – “मेरे पेशेंट का नम्बर कब आयेगा”? देखिये मेरे पति की तबियत लगातार बिगड़ती जा रही है। कुछ तो करिये।
कर्मचारी – ” जबतक कोई बेड नहीं खाली हो जाता है मैं कुछ भी नहीं कर सकता हूँ मैडम”।
मनोरमा मिन्नतें कर रही थी लेकिन कोई सुनवाई नहीं हो रही थी। अन्ततः वह हारकर ईश्वर को याद करने लगी। उसके आँखों से आँसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। तभी उसके आगे वाले अस्सी वर्षीय वृद्ध ने हास्पिटल के कर्मचारी से कहा मुझसे अधिक इस महिला के पेशेंट को बेड की आवश्यकता है। मेरा क्या मैं तो अपनी जिंदगी जी चुका हूँ अभी इस बेचारी औरत के पति की उम्र पैंतालीस से पचास वर्ष की है। इसके बीवी – बच्चे हैं इसलिए इसकी जिंदगी मुझसे अधिक महत्वपूर्ण है।मेरे बदले इसको बेड दे दो। हास्पिटल कर्मचारी उस वृद्ध को अचम्भित होकर देखने लगा और मनोरमा ने उनके दोनो चरण पकड़ लिया। उसे लग रहा था जैसे मानव रूप में स्वयं ईश्वर उसकी गुहार सुनकर मदद करने के लिए आ गये हों।
हास्पिटल का कर्मचारी उस वृद्ध से कागज पर कुछ औपचारिक हस्ताक्षर करवाकर मनोरमा के पति को अंदर आने का इशारा करता है।

मित्र आपकी रचना का शीर्षक “ईश्वर का रूप” ही बताता है कि आपने उस सज्जन में जरा बहुत ईशानुभूति तो मानी है.. मेरे मत में तो उस समय वे स्वयंं ही दयालु कृपालु भगवान थे!
क्योंकि ईश्वर ने, सदैव ही, धरती पर अपनी उपस्थिति, जागृत विवेक के स्वामियों के अंदर बैठकर ही दर्शाई है..! श्रीराम 12 कलाओं में तो श्रीकृष्ण 16 कलाओं से पारंगत हो ईशानुभूति के पौराणिक उदाहरण हैं … महर्षि दधीचि, महर्षि बाल्मीकि आदि से लेकर अब तक अनेकानेक जागृत विवेकी मनुजों में चेतना सक्रिय होकर उन्हें शक्तिसंपन्न करती रहती है…! किसी किसी को इतनी शक्ति भी प्राप्त होती है कि वे बहुजन हित में या अन्यजन हित में स्वयंं के उत्सर्ग को तत्पर हो सकें…!
युद्ध में अपनी टुकड़ी अपने देश के हित में बलिदान देने वाले सेनिक भी इसी श्रेणी में आते हैं… और ये वृद्ध सज्जन भी… ये आज के दधीचि हैं…
इनको मेरा प्रणाम !
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जी बिल्कुल सही कहा आपने…. हार्दिक धन्यावाद 😊
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