कथाकार,कवियत्री किरण सिंह की कहानी संग्रह “रहस्य” मेरी नजर में –
स्त्री विमर्श को स्वर देती कहानी संग्रह: “रहस्य” साहित्य का हमारे आसपास होना सिर्फ हमारी नहीं, साहित्य की भी मजबूरी है। क्योंकि साहित्य को भी खाद-पानी देने का काम समाज ही करता है। व्यक्ति के जीवन की घटनाओं से समाज प्रभावित होता है और समाज की घटनाओं से साहित्य। कथाकार किरण सिंह की सदः प्रकाशित कहानी संग्रह "रहस्य" से गुजरने का मौका मिला। कहते हैं चित्र के सामने भाषा अपने वजूद को तलाशता नजर आता है, तो मुझे लगता है एक लेखिका के सामने पुरुष प्रधान समाज। चौबीस कहानियों से सजी यह कहानी संग्रह समाज और परिवार के उतने ही करीब है, जितनी एक औरत। हर कहानी में एक औरत की मुखरित संवेदनाएं हैं। संवेदनाओं का गहरा समुद्र है। ऐसा सिर्फ इसलिए नहीं कि लेखनी एक औरत की है। शायद इसलिए है लेखिका ने अपने आसपास के परिवेश को सिद्दत से महसूस किया है। समाज और परिवार किसी भी वर्ग का हो, औरत की कहानी लगभग एक जैसी ही होती है। ग्रामीण जीवन की छोटी-छोटी आम घटनाओं से रूबरू कराती ये कहानियां शहरी जीवन की तंग गलियों से एक दूरी से ही हाथ मिलाती दिखाई देती है। संग्रह में शामिल अधिकांश कहानियां स्त्री के आसपास के स्त्री के दर्द को स्वर देती नजर आती हैं। लेखिका ने पुरुष प्रधान समाज के अहं और वर्चस्व को बहुत नजदीक से देखा है। स्त्री और पुरूष के सामाजिक, पारिवारिक भेद को महसूस किया है। यही कारण है कि कहानी के पात्र खुद ही मुखर है। कुछ वानगी देखते हैं -
‘गलत कहते हैं लोग कि स्त्री ही स्त्री की शत्रु होती है। सच तो यह है कि पुरूष ही अपनी अहम तथा स्वार्थ की सिद्धि के लिए एक स्त्री की पीठ पर बंदूक रखकर चुपके से दूसरी स्त्री पर वार करते हैं, जिसे स्त्री देख नहीं पाती और वह मूर्ख स्त्री को ही अपनी शत्रु समझ बैठती है।’
- (जीवन का सत्य, पृष्ठ 15)
‘हम स्त्रियां अपनी खुशी की परवाह ही कब करती हैं। वह तो हमेशा ही अपनों की खुशी में अपनी खुशी ढूंढ ही लेती हैं..कभी पिता, तो कभी पति की, तो कभी पुत्र की खुशियों में।’ – (प्रार्थना, पृष्ठ 51,52)
‘ये पुरूष लोग न हमेशा ही औरतों की समझ पर शक करते हैं।’ – (परख, 74)
‘रिश्तों की समझ और परख मर्दों से अधिक स्त्रियों को होती है।’ – (परख, 75)
‘स्त्रियों का दुर्भाग्य है कि यदि पुत्र निठल्ले निकल गए तो पति और पुत्र के मध्य पिसकर रह जाती है। एक तरफ उसका वर्तमान रहता है, तो दूसरी तरफ उसका भविष्य। … यदि किसी एक ने भी गलत कदम उठाया तो सारा दोष उस स्त्री पर मढ़ दिया जाता है।’ – (राम वनवास, पृष्ठ 94)
‘पतियों की आदत ही होती है हिदायत देने की, क्योंकि उनकी नजरों में तो दुनिया की सबसे बेवकूफ औरत उनकी पत्नी ही होती है।’ – (नायिका, पृष्ठ 108) लेकिन ऐसा भी नहीं है कि कहानी की महिला पात्र पुरुषों के प्रति किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित है। सधी लेखनी के सामने व्यक्ति गौण हो जाता है, परिवेश मुखर हो उठता है। तभी तो ‘जीवन संगीत’ की नायिका पुरुषों की तरफदारी करती भी नजर आती है –
‘सच कहते हैं। सभी स्त्रियों का स्वभाव ही शक्की होता है। लेकिन यह भी तो सही है कि जहां अधिक प्रेम होता है वहां शक पैदा हो ही जाता है।’ – (जीवन संगीत, पृष्ठ 119) कहानियां विविध रंगों से सजी हैं। एक गृहणी बाहर से अधिक घर के अंदर की विद्रूपताओं को नजदीक से देखती है। यही कारण है कि एक पुरुष लेखकों के कथा नायक, नायिका जिन मुद्दों को लेकर मुखर नहीं हो पाते, वहीं एक लेखिका की कलम से वैसे पात्र जीवंत हो उठते हैं। बात चाहे घरेलू हिंसा की हो या प्यार में छले जाने या विवाहेत्तर संबंधों के दंश को झेलने की। घर के अंदर के भेदभाव और तिरस्कार को रोजमर्रे की तरह लेने वाली नायिकाएं मौका मिलते ही पात्रों के बहाने सबकुछ उड़ेल कर रख देती हैं – ‘पीड़ा अधिक होने पर मरहम कहां काम कर पाता है और उसमें भी अपनों से मिली हुई पीड़ाएं तो कुछ अधिक ही जख्म दे जाती है।’ – (जीवन का सत्य,पृष्ठ 15)
‘बर्तन के खटर-पटर के साथ युगलबंदी करती चूड़ियों की खनक के साथ जीवन सरगम भी मन्द, मध्य और तार सप्तक के मध्य लयबद्ध हो ही जाती थी।’- (प्रतीक्षा, पृष्ठ 21)
‘स्त्रियों के लिए तो पति की प्यार भरी एक नजर ही उसे मल्लिकाए हिंदुस्तान की अनुभूति करा देती है।’ – (भगवती देवी, पृष्ठ 27) परंपराओं के निर्वहन की जिम्मेदारी भी हमने महिलाओं पर डाल दिया है। पूजा-पाठ, व्रत-त्योहार और गीत-संगीत को संजोए रखने का भार भी इन्हीं के कंधों सौंप हम निश्चिंत हो चुके हैं। काली, दुर्गा की आराधना में व्रत रखने वाली हजारों महिलाएं हर दिन घरेलू हिंसा का शिकार होती रहती हैं, लेकिन एक ने भी यदि दुर्गा, काली का रूप धारण कर लिया तो हमारे पुरुष प्रधान समाज की चूलें हिल जाती हैं। ‘भगवती देवी’ की नायिका बेटे न जन पाने के दंश की पूर्णाहुति अपने सौत की खोज में पूरी करती है। उसका पति हो या परिवार इस दर्द को दूसरा कोई नहीं समझ सकता। नायिका इस दर्द को भी लोकगीतों और मान्य परंपराओं के माध्यम से बयां करने का तरीका ढूंढ लेती है। –
‘भभूति देखले रे हम जरी गइली हो,
जटा देख जरे छाती जी
सवती देखत मोरे मनवा विलपेला
कइसे गंवइबो दिन राती जी।’ – (भगवती देवी,पृष्ठ 26) ‘विडंबना’ की नायिका का जेठ यदि नपुंसक है तो उसमें देवरानी की क्या गलती है, लेकिन सजा उसे ही मिलती है अपने पति द्वारा भाभी के यौन इच्छाओं की पूर्ति के रूप में। हमारा सामाजिक परिवेश ऐसा है कि घर की बातें बाहर न हो इसलिए इस दंश को भी नायिका अपने पति के भाभी के साथ के उसके अंतरंग रिश्तों को स्वीकार करने को बाध्य है। वह अपने पति के भाभी के साथ के संबंधों को भी आत्मसात करने को मजबूर है।
‘गलत कहते हैं लोग …….शत्रु मान बैठी है।’ – (विडंबना, पृष्ठ 47) वर्षों तक घरेलू हिंसा की शिकार महिलाएं भी पल भर के लिए भी पति का प्यार मिल जाने से बीते कल को भुलाकर परिवार को जोड़े रखने में तनिक भी झिझक महसूस नहीं करती हैं। ‘जीवन का सत्य’ की नायिका यही कहती है – ‘गलती चाहे स्त्री करे चाहे पुरूष, दोनों ही दशा में भुगतना स्त्री को ही पड़ता है।’- (जीवन का सत्य,पृष्ठ 17) आज की हमारी युवा पीढ़ी रिश्तों को भी यूज़ एंड थ्रो के रूप में जीती है। किरण सिंह की लेखनी का आधार आज की युवा पीढ़ी भी बनी है। लेकिन आज की पीढ़ी के बहाने रूढ़िवादिता पर भी कटाक्ष करने से बाज नहीं आती।- ‘भारत में तो लड़की से पांच-सात साल बड़े लड़के को ही विवाह के लिए ज्यादा अच्छा माना जाता है कि लड़कियां जल्दी ही अपने उम्र से बड़ी हो जाती हैं और लड़के देर्य से।’ – (प्रार्थना, पृष्ठ 50) ‘लाल गुलाब’ और ‘यू आर माइ बेस्ट फ्रेंड’ के बहाने लेखिका ने नई पीढ़ी को भी नहीं बख्शा है। ‘लाल गुलाब’ में जातीय बंधन से आज की पीढ़ी भी मुक्त नहीं हो पाई है और अपने प्रेमी के प्यार की निशानी लाल गुलाब की सूखी कलियों को वापस कर प्रेम का इति श्री कर सुकून का एहसास करती है। ‘प्यार करते ही लड़कियों को सजना-संवरना स्वयं ही आ जाता है।’ – (लाल गुलाब, पृष्ठ 62) ‘जब कोई तुम्हारे मन का न करे तो तुम खुद को उसकी जगह रखकर देखो कि तुम उसकी जगह होते तो क्या करते?’ – (यू आर माई बेस्ट फ्रेंड, पृष्ठ 41) और अंत में – ‘आत्मकथ्यात्मक संस्मरण संग्रह “दूसरी पारी” से लेखिका किरण सिंह के कुछ शब्द – ‘भावनाएं होती हैं बड़ी मनमौजी। सोते जागते कभी भी मस्तिष्क पटल पर उमड़ने-घुमड़ने लगती थीं।’- पृष्ठ – 21 ‘स्त्रियां तो होती ही हैं समझौतावादी।’ – पृष्ठ – 22 ‘कभी-कभी ईश्वर से भी शिकायती प्रश्न कर बैठती कि मेरी किस्मत में स्वर्ण पिंजरे में बंद पक्षी से ज्यादा क्या लिखा आपने।’ – पृष्ठ 22- को धता बताती, आज कहती हैं कि मेरी ये आठवीं पुस्तक है।
इसी पुस्तक की एक पंक्ति किरण सिंह के लेखन मर्म को रेखांकित करता है –
‘दर्द वही महसूस कर सकता है, जिसने दर्द झेला हो।’ – (जीवन संगीत, पृष्ठ 123)
‘रहस्य’ कहानी और यह कहानी संग्रह एक स्त्री का स्वर है। वेदनाओं का स्वर, संवेदनाओं का स्वर, जीवन का स्वर, चिंतन का स्वर, प्रेम की पराकाष्ठा का स्वर, गूंगे-बहरे समाज का स्वर और स्त्री विमर्श का स्वर। स्त्री विमर्श को रेखांकित करती यह कहानी संग्रह सिर्फ किरण सिंह को ही नहीं, पूरे सामाजिक परिवेश के दबे स्वर को मुखरता प्रदान करती नजर आती है। कुछ रहस्य और है, लेकिन इसे जानने के लिए “रहस्य” को पढ़ना होगा। इसलिए आगे के रहस्य को पढ़ने तक राज ही रहने देते हैं। लेखिका आगे क्या लेकर आ रही हैं, प्रतीक्षा मुझे भी है। - को धता बताती, आज कहती हैं कि मेरी ये आठवीं पुस्तक है।
समीक्षक – शम्भू पी सिंह
लेखक – किरण सिंह
पुस्तक का नाम – रहस्य
प्रकाशक – भावना प्रकाशन ( पंकज बुक्स)
मूल्य – 395
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