पता नहीं ब्रम्ह ने स्त्रियों के हृदय को ही कुछ विशेष रूप से बनाया है या फिर बचपन से परिवार व समाज के द्वारा दिये गये संस्कारों का असर है कि लाख कोशिश करने के बावजूद भी वह मोह – माया के बंधन से मुक्त नहीं हो पातीं।
कभी-कभी वह पुरुषों से प्रतिस्पर्धा में उन्हीं की भांति ठोस निर्णय लेना चाहती भी हैं तो वह सफल नहीं हो पातीं क्योंकि उनका स्वभाव तो पानी की तरह होता है जो कि बर्फ की तरह ठोस तो हो जाता है किन्तु ज्यों ही स्नेह और ममता की तपिश उनपर पड़ती है तो उनका हृदय पिघलने लगता है और वह ठोस निर्णय लेने में नाकामयाब हो जाती हैं।
शायद यही वजह है कि औरत बुद्ध नहीं हो सकती।
इस बात को अति संवेदनशील युवा कवयित्री अन्नपूर्णा सिसोदिया ने बखूबी महसूसा और बहुत ही खूबसूरती से कविता में गढ़ कर एक पुस्तक में संग्रहित किया, जिसका शीर्षक ही है औरत बुद्ध नहीं होती ।
पुस्तक का आवरण चित्र जिसमें मुक्तिमार्ग की तरफ़ बढ़ती हुई स्त्री तो है लेकिन रिश्तों की डोर से बंधी हुई है ही इतना सुन्दर व सारगर्भित है कि वह स्वयं ही पुस्तक में संग्रहित रचनाओं का सार बयाँ करने में समर्थ है।
मैं शुरूआत करती हूँ कवयित्री के आत्मकथन से जहां वह स्वयं कहती हैं –
“कविता मानव हृदय के गूढ़ भावों की अभिव्यंजना के साथ नवीन चेतना की वाहक बन, समाज में व्याप्त रुढ़िवादिता, अंधविश्वास, राजनीतिक, सामाजिक और व्यवस्थागत विसंगतियों पर विरोध का स्वर मुखर करती है। केवल परिस्थितियों का चित्रण कविता का उद्देश्य कभी नहीं रहा क्योंकि किसी भी रचना की उत्कृष्टता का आधार मात्र कला व बिम्ब नहीं हो सकते, उसमें युगमंथनकर्ता विषयवस्तु एवम् मानव समाज के महान ऐतिहासिक मूल्यों की प्रतिष्ठा का समावेश भी आवश्यक है।….
उक्त बातें कवयित्री सिर्फ कहती ही नहीं हैं, बल्कि उन्होंने अपनी कविताओं में सभी मूल्यों का समावेश भी किया है।
वैसे तो यह पुस्तक पूर्णतः स्त्री विमर्श पर आधारित है किन्तु कवयित्री ने करीब – करीब सभी विषयों पर पैनी दृष्टि डालते हुए अपनी कलम चलाई है जो कि काबिलेतारीफ है।
पुस्तक की पहली ही कविता मदारी आया खेल दिखाने में कवयित्री सामाजिक विद्रुपताओं पर व्यंग्य वाण छोड़ते हुए लिखती हैं –
रुपयों की बरसात और डुगडुगी की आवाज़ चरम पर थी और बंदर,
बंदरिया के पास धरती पर
आवाज़ बंद हो गई, भीड़ छँट गई
मुफ्त के घुंघरू दोनो के निष्प्राण देह से अलग कर
चल दिया मदारी रुपयों की पोटली संभालता
फिर से
नये बंदर और बंदरिया की खोज में
डुग – डुग – डुग – डुग……
शाशन व्यवस्था पर कुठाराघात करते हुए कवयित्री लिखती हैं –
प्रजा रोई, चिल्लाई
राजा की नींद में खलल पड़ा
उसने बैचैनी से करवट बदली
और कानो पर तकिया रख लिया
कोड़े अब भी बरस रहे हैं
प्रजा अब भी रो रही है
लेकिन राजा सुकून से सो पा रहा है
देश की व्यवस्था दुरुस्त हो रही है
पढ़ाई, बस्तों तथा अभिभावकों के महत्वाकांक्षा के बोझ तले तबे बच्चों के दर्द को महसूसते हुए कवयित्री लिखती हैं –
मैदान में अब शोर नहीं गूँजता, सन्नाटा पसरा है वहाँ
सारी गेंदे आसमान ने लील ली है या उस भारी बस्ते ने…….
आगे लिखती हैं –
बच्चे अब दादी – नानी के घर भी नहीं जातेऊ
क्यों कि उन्हें बच्चा रहने की इजाजत नहीं
उन्हें रोबोट बनना है
ऐसा रोबोट, जिसे बनते ही दौड़ लगानी है
और हमेशा आगे रहना इस दौड़ में अनिवार्य शर्त है
उसे इजाजत नहीं है पीछे रहने या असफल होने की
बच्चे खिलौनों को हाथ नहीं लगाते
क्यों कि खेलना फालतू होता है
और बच्चे अब फालतू नहीं
माता-पिता की उम्मीदों का बोझ ढोने वाले कुली हैं,……….
जैसा कि मैंने पूर्व में ही कहा कि यह पुस्तक पूर्णतः स्त्री विमर्श पर आधारित है तो आसमान सी वह शीर्षक कविता के माध्यम से कवयित्री स्त्रियों की स्थिति का सटीक चित्रण करते हुए लिखती हैं –
रोटी के साथ जब भी फूली थोड़ी खुशी से
अगले ही पल फटकार कर पिचका दिया घी लगाकर
और बंद हो गई कटोरदान में
सलीके से काटा सब्जी के साथ, अपनी हर इच्छा को
और मिला दिये छद्म मुस्कान के मसाले
स्त्रियों को लेखन के क्षेत्र में भी दोयम दर्जे पर रखने वालों को बहुत ही तुलनात्मक अंदाज़ में समझाते हुए कवयित्री लिखती है मन कविता के माध्यम से कहती हैं –
एक पुरुष लिखता है
क्यों कि उसे लिखना है
सब कुछ सोच समझ कर
जाँच परख कर
वह पारखी है
बहुत बड़ा ज्ञानी है
उसे अपने लेखन से
आने वाली पीढ़ियों का
मार्ग दर्शन करना है
अपनी विद्वता की धाक जो जमानी है
जब स्त्री लिखती है
तो बस इसलिये
क्योंकि
उसे कुछ कहना है
अपने मन का
वह बहुत नहीं जानती
बस अपने भावों के साथ
बहती है
वो प्रेम लिखती है
तो केवल लिखती नहीं
जीती है उसे
अपने शब्दों में जब वो “प्रकृति” लिखती है
तो तितली के परो सवार हो
नाप आती है सारा जंगल
महिला सशक्तिकरण झंडा गाड़ते हुए कवयित्री कहती हैं –
झुकूंगी नहीं
जब बढ़ाती हूँ, कदमों की गति
और मेरी आँखें देखने लगती है
संभावनाओं का आसमान
मेरे पंख खुलने से पहले ही
तुम प्रमाणपत्र जारी कर देते हो
मेरे व्यक्तित्व और चरित्र का
तुम्हारे साथ भीड़ बढ़ने लगती है
और मैं हिल जाती हूँ…..
ये तुम्हारी, मेरी या उसकी बात नहीं
ये हमारे सफ़र की कहानी है
मंजिल तक पहुंचना ही होगा
उस हर बेटी के लिए
जिसे उड़ना है, अपनी उड़ान
अपने पंखों से
चलाओ वाण जितना चाहे
मेरे हौसलों ने जवाब देना सीख लिया है
अब नहीं, नहीं झुकूंगी मैं
कभी नहीं।
और आगे पुस्तक के शीर्षक औरत बुद्ध नहीं होती में कवयित्री स्त्री मन की भावनाओं व संवेदनाओं का बहुत ही तर्कसंगत पक्ष रखते हुए कई वजहें बताती हैं कि औरत क्यों नहीं बुद्ध हो सकती –
वह न प्रेम त्यागती है, न घर न परिवार
क्यों कि जिस दिन औरत के मन में विरक्त होकर,
महान बनने के भाव जाग्रत हुए
वह दिन संसार में खुशियों का शायद अंतिम दिन होगा
श्रृंगार, प्रेम, ममता, करुणा हर भाव हृदय में सजाकर
वह गढ़ती है, ऐसा समाज
जहाँ मनुष्यता वास कर सके
वह जब माँ होती है तो कुछ और नहीं होती,
इसलिए और बुद्ध नहीं होती
इस प्रकार 150 पृष्ठों में संकलित इस संग्रह में कुल इक्यावन (51) कविताएँ हैं। सभी कविताएँ मुखर होती हुई अपनी बात कहने में समर्थ व सशक्त हैं। कहा जाता है न कि साहित्य समाज का दर्पण है तो निश्चित ही इस पुस्तक को समाज का दर्पण कहा जायेगा। पुस्तक के पन्ने स्तरीय हैं और छपाई भी स्पष्ट है, । अतः यह पुस्तक पठनीय व संग्रहणीय है। मैं कवयित्री की पहली पुस्तक के लिए हृदय से बधाई संग शुभकामनाएँ देती हूँ।
समीक्षक – किरण सिंह
पुस्तक का नाम – औरत बुद्ध नहीं होती
लेखिका – डॉ. अन्नपूर्णा सिसोदिया
प्रकाशक – दिव्य प्रकाशन , पूर्व मुम्बई
मूल्य – 200

पुस्तक की समीक्षा से ही लगता है कि स्त्री के मन के भावों का बहुत सुंदर व जीवन्त चित्रण लेखिका ने किया है । समीक्षा बहुत ही सुंदर की गयी है ,मैं इस पुस्तक को जरूर पढ़ूंगी 😊
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हार्दिक धन्यावाद 😊
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हार्दिक धन्यावाद
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