पूर्वा – स्त्री जीवन को बारीकी से उकेरती कथाएँ

किरण सिंह जी निरंतर साहित्य साधना में लगी वो साहित्यकार हैं, जो लगभग हर विधा में अपनी लेखनी की प्रतिभा दिखा चुकी हैं, फिर चाहें वो कविताएँ, लघुकथाएँ, दोहे, मुक्तक, कुंडलियाँ छंद, गजल हो या कहानियाँ लिखकर साहित्य को समृद्ध कर रही हैंl आज उनके जिस कहानी संग्रह पर बात कर रही हूँ वो हाल ही में वनिका पब्लिकेशन से प्रकाशित हैl “पूर्वा” जैसे आकर्षक नाम और कवर पेज वाला यह संग्रह उनका तीसरा कहानी संग्रह है, जो उनकी कथा-यात्रा के उत्तरोंतर विकास का वाहक हैl
अपनी बात में किरण सिंह जी मैथली शरण गुप्त जी की कुछ पंक्तियाँ लेते हुए लिखती हैं

“केवल मनोरंजन ही न कवि का करम होना चाहिए,
उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए”
मैथली शरण गुप्त जी की इन पंक्तियों से मैं बहुत प्रभावित हूँ, इसलिए भी मेरी हमेशा कोशिश रहती है कि कविता हो या कहानी कुछ न कुछ उपदेश दे ही l”

इस संग्रह की कहानियाँ उनके कथन पर मोहर लगाती हैंl जिसकी विषय वस्तु में आम जीवन हैl दरअसल हमारा घर परिवार हमारे रिश्तों की आधार भूमि है और समाज की ईकाई l इस इकाई को नजर अंदाज कर स्वस्थ समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती l “पूर्वा” में संकलित किरण सिंह जी की कहानियाँ घर-परिवार की इसी दुनिया को कई बिंदुओं से देखती परखती एक्स रे करती चलती हैंl बहुधा कहानियों के केंद्र में स्त्री ही है l वही स्त्री जो घर की धुरी हैl कथाओं के मध्य अमूर्त रूप से कई प्रश्न ऐसे गूँथे हैं, जो पाठक को अपने ही जीवन से जूझ कर उत्तर खोजने पर विवश करते हैंl चाहें वो विधवा स्त्री का बैरंग जीवन हो, दहेज की प्रथा हो, घर में अकेली पड़ गई अपने सपनों के लिए संघर्ष करती स्त्री होl
कहानियों की खास बात यह है कि किरण सिंह जी की स्त्रियाँ कहीं से भी बनावटी स्त्रियाँ नहीं नजर आतीl ये स्त्रियाँ बौद्धिक विमर्श नहीं करतीं बल्कि हमारे कस्बों और छोटे शहरों की स्त्रियाँ हैं, जो घर परिवार और सपनों से संतुलन बनाते हुए बहुत सधे कदमों से धीरे-धीरे एक-एक बेंड़ी खोलते हुए आगे बढ़ रही है, सीधे तौर पर पुरुष पर उँगली उठाने के विपरीत ये समाज और रूढ़ियों पर उँगली उठाती हैl वो समाज जो स्त्री पुरुष से मिलकर बना हैl ये कहानियाँ संतुलन में ही स्त्री और पुरुष दोनों का भला है की हिमायती हैंl

एक महत्वपूर्ण प्रश्न जो कहानियों से उभरकर आता है, वो है एक अच्छी स्त्री के मन का अंतरदवंद l आमतौर पर परिवार को ले कर चलने वाली, सबकी खुशियों के लिए त्याग करने वाली स्त्री, अपने ही परिवार की अन्य स्त्रियों की राजनीति की शिकार हो उम्र के किसी ना किसी दौर में ये सोचती जरूर है कि, “अपने जीवन की आहुति देकर उसे मिल क्या?” फिर चाहे वो “मुझे स्पेस चाहिए” की नेहा हो, दहेज की निधि हो, या “बलिदान की कथा” की निशा होl हालाँकि अततः सब अच्छाई के पक्ष में ही खड़ी होती हैं, क्योंकि अच्छा होना या बुरा होना मनुष्य की मूल प्रकृति है, और घर-परिवार की इस सुंदर दुनिया की नींव में इन्हीं स्त्रियों के दम पर हैl

कहानी “मुझे स्पेस चाहिए” की मूल कथा परिवार की दो स्त्रियों देवरानी और जेठानी के मध्य की हैl जो स्वार्थ और नासमझी से टूटते संयुक्त परिवार के दर्द को ले कर आगे बढ़ती है l पर मुझे इस दृष्टि से भी खास लगी क्योंकि यह कहानी देवर और भाभी के स्वस्थ दोस्ताना रिश्ते पर संदेह कि नजर पर सवाल उठाती हैl आज भी जब हम स्त्री पुरुष मित्रता की बात करते हैं तब भी घर के अंदर पनप रहे ऐसे सुंदर मित्रवत रिश्तों पर “दाल में कुछ काला है?” का तेजाबी प्रहार क्यों करते हैं? स्त्री का ये मित्रवत रिश्ता चाहे जीजा साली का हो, जेठ या देवर से हो, हमें घर के अंदर भी दोस्ती को संदेह के घेरों से मुक्त करना होगा l
एक लांछन जो आम तौर पर स्त्रियों पर लगता है कि वो ससुराल की इतना अपना नहीं समझतीं, सास हो या जेठानी/देवरानी की बात को माँ की डाँट समझ कर नहीं भूल जातीं l कहानी में एक स्थान पर नेहा अंतर्मन उसी का जवाब देता है l

“माता-पिता का तो दिल बड़ा होता है वो माफ कर देते हैंl भाई भी खून के रिश्ते के आगे कमजोर पड़ जाते हैंl पर मेरा तो दिल का रिश्ता था, जब दिल ही टूट गया तो जुड़ेगा कैसे?”

जिसे कोर्ट- कचहरी सिद्ध नहीं कर सकती, उसे स्त्री की संवेदनशील दृष्टि पकड़ लेती हैl कहानी पक्षपात एक लेखिका और उसे भाई का वार्तालाप हैl जहाँ भाई अपनी लेखिका बहन पर आरोप लगाता है कि वह स्त्रियों का ही पक्ष लेती हैl अपनी बात को सिद्ध करने के लिए वो कोर्ट का एक किस्सा सुनाता हैl जहाँ एक पत्नी अपने पति के नौकरी से निकाले जाने का बदला लेने के लिए उसके घर में काम करने आती हैl वो ना सिर्फ सबका विश्वास जीतती है बल्कि मालिक को अपने स्नेह-देह-पाश में बाँध भी लेती हैlबाद में न सिर्फ घर से पैसे लेकर भागती है बल्कि मालिक को रेप केस में भी फँसा देती और मालिक के पास भारी जुर्माना अदा करने के अतरिक्त कोई रास्ता नहीं रहता l बेचारा पुरुष के भाव से आगे बढ़ती कहानी अंत में लेखिका के संवेदनशील मन के एक प्रश्न पर स्त्री के पक्ष में आ खड़ी होती हैl
मैंने कहा, “वो तो ठीक है लेकिन इसमें भी तो आलाकमान पुरुष (ड्राइवर) ही है ना ? औरत (मालती) तो उसके हाथ की कठपुतली है जैसे नचाया वैसे नाची l”

इस एक वाक्य से भले ही भाई फिर से पक्षपात की बात कह कर बात खत्म कर देता है पर पाठक की संवेदनाएँ मालती से जुड़ जाती है, जो अपने पति द्वारा एक हथियार की तरह इस्तेमाल की गईl पर लेखिका ये फैसला पाठक की दृष्टि पर छोड़ देती हैं l

“पैरवीकार” कहानी एक उम्र गुजर जाने के बाद स्त्री के अपनी सपनों को पहचानने और उनके लिए संघर्ष करने की कहानी हैl इसमें लेखन से जुड़ी कई महिलाओं को अपना अक्स नजर आएगा l कहानी की नायिका घर के कामों से समय चुरा-चुरा कर लेखन करती हैl पर घर के लोग स्त्री की प्रतिभा के सहयात्री बनने की जगह उसे बात-बात पर ताने देते हैं कि कलम घिसने की जगह कोई और काम करतीं तो चार पैसे आतेl वो कितनी मुश्किल से इस संतुलन को साधती है इसकी एक बानगी देखिए…

“उसकी नजर सभागार की वॉल पर टँगी घड़ी पर पड़ी तो वो अचानक एक नायिका से आम गृहिणी बन गईl और जल्दी जल्दी घर भागी l रास्ते में उसके मन में यह भय सता रहा था कि अब तो निश्चित ही घर जाकर घर परिवार की खरी-खोंटी सुननी पड़ेगी, इसलिए वो रणक्षेत्र में जाते हुए योद्धा की तरह मन ही मन रणनीति तय करने लगीl”
प्रकाशन जगत की परते खोलती कहानी सकारात्मक अंत के साथ लेखन जगत में प्रवेश कर रहे युवा लेखकों को एक प्रेरणा भी देती हैl

संग्रह के नाम वाली कहानी “पूर्वा” एक शहीद की पत्नी के दर्द को उकेरती है, तो दोबारा सास द्वारा उस के जीवन को जी लेने के अधिकार की वकालत भी करती हैl यहाँ एक स्त्री दूसरी स्त्री की शक्ति बन कर उभरती हैl “बेरंग” उन रूढ़ियों की बात करती है, जिसका शिकार वो मासूम स्त्री है जिसका जीवन साथी उसे बीच राह में छोड़ उस पार चला गया हैl कहानी स्त्री मन के उस कोने को चीन्हती है जो रूढ़ियों को तोड़ बिंदी, चूड़ी धरण करने के बाद भी बेरंग ही रह जाता हैl
“दहेज” “बलिदान की कथा,”दोनों कहानियाँ परिजनों द्वारा स्त्री की इमोशनल ब्लैकमेलिंग कर अपना हित साध लेने की क्रूर कथा हैl पर स्त्री जानते बूझते हुए भी त्याग की उसी दिशा में आगे बढ़ जाती है, इस क्यों का उत्तर कहानी में हैl “अति सर्वत्र वर्जियेत” “शिक्षित होना जरूरी है” टूटते संयुक्त परिवार और अंधविश्वास का विरोध करती उल्लेखनीय कहानियाँ हैंl

कुल मिल कर 120 पेज में समाई संग्रह की बारह कहानियों कि धुरी बहले ही स्त्री जीवन हो पर ये हमारे पूरे समाज का आईना हैंl ये समाज के उन अवगुंठनों को खोलतीं है जिसका शिकार स्त्री जीवन बन गया है l लेकिन ये परिस्तिथियों से उलझते हुए पाठक के मन में एक सकारात्मकता बो देती हैं l

एक सार्थक संग्रह के लिए किरण सिंह जी को बहुत बहुत बधाई व शुभकामनाएँ

समीक्षक – वंदना वाजपेयी

लेखक – किरण सिंह

प्रकाशक – वनिका पब्लिकेशंस

मूल्य – 200 रूपये

पृष्ठ – 120 पेपर बैक

Poorva https://amzn.eu/d/dpjSggP

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