जीवन की लय

कृति: जीवन की लय
कृतिकार: किरण सिंह
प्रकाशकः अयन प्रकाशन,
जे-19/39, राजापुरी,
उत्तम नगर, नई दिल्ली।

पृष्ठः 104 मूल्यः 260/-

समीक्षकः मुकेश कुमार सिन्हा

जीवन का मतलब ही होता है, कभी गिरना, तो कभी उठना। अर्थात जीवन में उतार-चढ़ाव का आना-जाना लगा रहता है। दुख और सुख दोनों से वास्ता पड़ता है। जब दुख का हमारे जीवन में प्रवेश होता है, तो हम चाहते हैं कि वह जल्दी से हमारी जिंदगी से विदा ले ले, मगर सुख को हम बहुत देर तक रोके रखना चाहते हैं। यानी उस पल में हम ठहराव चाहते हैं। लेकिन, जीवन की अपनी लय है न!
सुख और दुख के बीच समंवय जरूरी है। ऐसा नहीं हुआ, तो हमारी जिंदगी रसहीन हो जायेगी, एकदम नीरस सी हो जायेगी जिंदगी! जीवन भी तो लय की तरह है, कभी उतार, तो कभी चढ़ाव। हम-आप जब गीतों को सुनते हैं, तो अक्सर ही यह पाते हैं कि कुछ शब्द बहुत शीघ्रता से बोले जाते हैं, तो कुछ शब्द बहुत धीरे से। लेकिन, गति रहती है। यह गति प्राण फूँकती है जीवन में भी और गीतों में भी।
जीवन में लय जरूरी है। यदि जीवन में लय न हो, तो जीवन सूना-सूना सा लगेगा, दिखेगा। न हँसी का दौर मिलेगा और न ही खिलखिलाने का अवसर। इसलिए, जरूरी है जीवन में लयात्मकता। लयात्मक जिंदगी हमें निराशा से दूर ले जाती है, ले जाती है आशा के पास। विपरीत हवाओं के बीच हमें जीना सिखाती है, प्रतिपल मुस्कुराना सिखाती है।
विभिन्न विधाओं में कलम चलाने वाली वरिष्ठ साहित्यकार किरण सिंह की कलम ने गीतों को गढ़ा है, नवगीतों को गढ़ा है। डायरी के पन्नों पर बिखरी पड़ी इन रचनाओं को एकत्रित कर उसे पुस्तक रूप दिया गया है, जिसका नाम है-‘जीवन की लय’। इसमें 59 गीत-नवगीत हैं।
किरण सिंह लिखती हैं-‘मैंने समय-समय पर मचलती, बहकती, भटकती, थिरकती, सहमती, सिसकती व सँवरती अपनी कोमल भावनाओं को शब्दों में पिरोने का प्रयास किया है।’ सच भी है कि कभी भावनाएँ मचलती हैं, कभी बहकती हैं, कभी भटकती हैं, कभी थिरकती हैं। भावनाएँ कभी सिसकती हैं, कभी सहकती हैं, तो कभी सँवरती हैं। ऐसे में उन भावनाओं को कागज पर उतारने की सुंदर कोशिश की गयी है। ठीक ही कहती हैं-‘यह सिर्फ मेरी ही बात नहीं है, मुझे लगता है कि ऐसी स्थितियाँ प्रत्येक लेखक-लेखिकाओं, कवि-कवयित्रियों के जीवन में आती होंगी और उन्हें लिखने के लिए बाध्य करती होंगी।’
संग्रह की शुरुआत माँ की प्रार्थना से की गयी है। कवयित्री माँ की वंदना करती हैं। उनकी प्रार्थना है कि लेखनी निडर होकर चले, ज्ञान के दीप से अँधकार दूर छिटक जाये, धरा पर केवल प्रकाश ही प्रकाश हो। सभी जन की अच्छी कामना पूर्ण हों। मतलब, कवयित्री कहाँ स्वयं के लिए कुछ माँगती हैं, उनकी प्रार्थना में जगहित है, परहित है, स्वहित तो बिल्कुल भी नहीं है। जग की कल्याण चाहने वाली कवयित्री लिखती हैं-
मानवी जीते हमेशा
दानवी की हार हो
नफरतें मिट जाये उर में
प्यार का संचार हो।

किशोरावस्था में मैं यह सोचा करता था कि कौन है जो नदियों में जल भरता है? कौन है जो हवाओं को गति देता है? आखिर कैसा है नियंता? ‘तुमको नमन’ पढ़कर मैं स्वयं किशोरावस्था में लौट गया। अमूमन, यह सवाल हर किसी के मन को मथता है। कई सवाल होते हैं, जैसे इन्द्रधनुष में सात रंग क्यों होते हैं? पत्तियों को कौन रंगता है? इस चमन को सुरभित कौन रख रहा है? कौन है, जिसके निर्देशन में सृष्टि चल रही है? कवयित्री उस आदि शक्ति से मिलना चाहती हैं। आदि शक्ति को नमन करना जरूरी है, क्योंकि आदि शक्ति ने ही तो हमें जन्म दिया। मानव योनि पाकर हम कितना इठलाते हैं? कवयित्री लिखती हैं-
तुम मिलोगे ज्ञान से या,
प्रेम-भक्ति आराधना से?
या मिलोगे छंद के इस
भावमय आराधना से
चाहती हूँ तुमको जानूँ,
करती हूँ चिंतन मनन।

बाल साहित्य के संवर्द्धन में कवयित्री किरण सिंह का महत्वपूर्ण योगदान है। गोलू-मोलू, अक्कड़-बक्कड़ बाॅम्बे बो की रचना करने वाली कवयित्री ने बच्चों को राम के चरित से सीख लेने की नसीहत ‘श्रीराम कथामृतम्’ में दी हैं। हम राम को भूलते जा रहे हैं। राम यूँ ही मर्यादा पुरुषोत्तम नहीं हैं, उनके जैसा होना मुश्किल है। हम राम-सा आचरण करें, राम सा बनें, यह कोशिश होनी चाहिए। राम को जीवन में उतारने का आह्वान करने वाली कवयित्री लिखती हैं-
राम-सीता पूर्ण जप हैं
राम-सीता पूर्ण तप हैं
एक स्वर में, एक लय में
राम की जय बोलिये।

सृष्टि के कल्याण के लिए राम ने क्या नहीं किया? ताड़का का वध कर ऋषियों का उद्धार किया। हर बाधाओं को हँसते-हँसते पार करने वाले राम ने शबरी का जूठा फल खाकर समाज को वर्ग-जात से ऊपर उठने का संदेश दिया। माता-पिता की आज्ञा पर आराम को त्यागा, राज सिंहासन छोड़ा। कवयित्री लिखती हैं कि राम के नाम का कितना बखान किया जाये? उन्हें समझ पाना बूते के बाहर है। इस बीच, उनकी कलम प्रश्नचिह्न भी लगाती है। यह है कलम की निष्पक्षता! मतलब, जो जिस रूप में है, उन्हें उसी रूप में प्रकट किया गया है।
त्याग सिया को स्वयं दिया था, एक धोबी के कहने पर।
राजदुलारी को कर डाला, निष्ठुरता से क्यों बेघर।
प्रश्नचिह्न लग गया तभी से, तुम पर भी आवाम का।

भोले का गुण गाने वाली कलम ने माँ को गंगा कहा, तो माँ को यमुना। गंगा और यमुना की तरह ही तो माँ होती हैं। कलम ने सच कहा-कष्टनिवारणी होती हैं माँ, लेकिन बदले में क्या पाती हैं पुत्रों से उलाहना के सिवाय। आज गंगा-यमुना की हालत किसी से छिपी नहीं है। सर्वस्व लुटाने का क्या फल मिला? माँ तो माँ होती हैं। संकट में ढाल बनकर खड़ी हो जाती हैं। वो डाँटती हैं, फटकारती हैं, मगर उसमें भी प्यार छिपा हुआ होता है। डर को दूर भगाती हैं, मन में हिम्मत भरती हैं। सुबह-सुबह कौन जगाता है हमें माँ के अलावा? माँ ही तो रात पहर को लोरी सुनाती हैं। माँ की अद्भुत महिमा है, उन्हें शब्दों में नहीं बाँधा जा सकता है। अपनी नींद भुलाकर माँ हमें सुलाती हैं। माँ हर बलाएँ अपने माथे पर ले लेती हैं। कवयित्री लिखती हैं-
माँ वेद है, माँ मंत्र है, माँ गीता का सार है
माँ गंगा है, माँ यमुना है, माँ से ही संसार है।

विरह आग में धधक रही प्रियतमा के मन की बात को कलम लिखती है। विरह की आग में कौन धधकना चाहता है? प्रियतमा कभी नहीं चाहती है विरह की आग में धधकना। प्रियतमा की सदैव ख्वाहिश होती है प्रियतम की बाँहों में सिर रखकर सोना। मगर, जब प्रियतम दूर चला जाये, तो प्रियतमा के भाग्य में केवल रोना बचता है। कलम प्रियतमा की बेबसी को कहती है-‘मैं धरा सी हूँ तो तुम पिया हो गगन’। ऐसे में मुश्किल है न दोनों का मिलना। इसी बात को लेकर प्रियतमा चिंतित है। हालाँकि प्रियतमा को उम्मीद है कि प्रियतम सारे वचनों को निभायेंगे। पति-पत्नी का रिश्ता विश्वास पर ही टिका हुआ होता है। दोनों मजबूत डोर से बँधे होते हैं, माना परिस्थितिवश दोनों दूर-दूर हैं, मगर दिल से दोनों एक होते हैं। एक सा होता है मन, एक सा होता है उर। प्रियतम का इंतजार करती प्रियतमा की चाहत देखिए-
रात हो या कि दिन या हो कोई प्रहर
सोचता है हमेशा तुम्हें मेरा मन।

सावन में चारों ओर हरियाली दिखती है। इंद्रधनुषी रंग नभ को शोभता है। सावनी फुहार से तन और मन रोमांचित हो उठता है। नभ धरती पर प्यार बरसाता है और धरती प्यार पाकर खिल उठती है। धरा की सुंदरता देखते बनती है। मगर विरहिणी? विरहिणी की आँखें बरस पड़ती हैं प्रियतम को न पाकर। यहाँ कवयित्री की कलम मनुहार करती है कि
धानी चूनरिया
ला दे सजना
ले चल मोहे
करा के गौना
तेरी याद बड़ी आये
मुझे चैन नहीं आये
नींद नयनों की उड़ी-उड़ी जाये रे।

अपने आस-पास की हरियाली को देखकर किसका मन नहीं बहकेगा? मनोनुकूल मौसम को पाकर प्रियतमा चाहेगी प्रियतम के अंग में समा जाना! देखिए ख्वाहिश-
भीगी है धरती मैया
भीगा है उसका कण-कण
फिर भी जाने क्यों मेरा
प्यासा है दिल और तन मन
कहती तुम्हारी गुइयाँ
आ जाओ मेरे सइयाँ।

प्रियतम बिन क्या सावन, क्या वसंत? कवयित्री अपने मनमीत को ऋतु वसंत की कहानी सुनाती है। कहती है-वसंत हृदय को जीत ले रहा है। वसंती बयार से कौन नहीं मता उठता है? कोयलिया की कुहुक-कुहुक से दिल बहक उठता है। ऐसा होता है वसंत? और, इस वसंत में जब मनमीत पास न हो, तो मन मायूस हो उठता है। लेकिन, मनमीत के आने की खबर पाकर प्रियतमा चहक उठती है। सखी से भी कहती है-
अक्षर-अक्षर तोल-मोल कर
शब्दों में रस प्रेम घोलकर
भर कर के मैं भावों का भंग
करुंगी हुड़दंग री सखि।

कोयल की मीठी आवाज सुनकर प्रियतमा का दिल खिल उठता है। कोयलिया जब गाती है, तो प्रियतमा को ऐसा लगता है कि वो प्रिय का ‘संदेशा’ सुना रही है कि वो रंग-अबीर लेकर आयेंगे। कोयल की कुहुक और बायें आँखों के फड़कने से प्रियतमा को उम्मीद जग जाती है कि इस बार की होली धमाल होगी। जब प्रियतम का साथ हो, तो प्रियतमा कैसे धमाल नहीं मचायेगी? इस बीच, प्रियतमा अंदेशा से भी भर उठती है कि यदि कुहुक-कुहुक के बाद भी प्रियतम नहीं आये, तो? देखिए मन के भाव-
बात तोरी सच्ची हुई
तो कोयलिया
सबसे करुंगी
मैं तोरी बड़इया
नाहीं तो तुम्हें दूंगी मैं
जी भर के गाली।

‘आपके बिन’ में देखिए विरहिणी की मनोदशा का वर्णन किस रूप में है। विरहिणी मन को बहलाना चाहती है, लेकिन चंचल मन प्रियतम की याद में खो उठता है। पंक्ति देखिए-
लाख बहलाऊँ मन को बहलता नहीं।
तेरी यादों से पल भर निकलता नहीं,
नीर नयनों से मेरे निरन्तर बहे
आ भी जाओ कि मेरा जिया ना लगे।
आगे-
तन भी उनका मन भी उनका, उन तक ही मेरी राहें।
लेकिन वे हैं निष्ठुर मैं तो भरती रहती हूँ आहें।

एक रचना है ‘मोहे नींद न आये’। इसमें बियाह के बंधन में बँधने को तैयार एक युवती के अंतर्मन की बातें हैं। शादी से पहले रिवाज होता है, देखा-देखी, फिर फलदान। इन रिवाजों से गुजरने के बाद होती है शादी। इस अवधि में तेजी से धड़कते हैं दो दिल! दोनों दिल मिलने को उत्सुक होते हैं। कहाँ नींद आती है? कहाँ मन को चैन मिलता है? यादें तड़पाती हैं रात भर? मन करता है कि एक झटके में ही समय बीत जाये और सजन डोली लेकर आ जायें।
माँग सिंदूरी
भर दो पूरी
मैं बैठी तैयार रे
आजा मेरे सांवरिया।

प्रेम में डूबी हुई स्त्री के मन के भाव को समेटा गया है ‘चलो लिखें हम गीत’ में। प्रेम सागर में डूबी स्त्री की चाहत देखिए-
मन्नतें तुम कर दो पूरी
अब सहा जाये न दूरी
आओ मिलके यूँ निभाएँ
प्रीत की कुछ रीत
चलो लिखें हम गीत।

रचना में देश की सरहद पर शहीद हुए जवान की पत्नी की बेबसी है। शहीद की पत्नी को यह इंतजार था कि सजन होली में आयेंगे, प्यार का रंग लगायेंगे। लेकिन, कहाँ आये सजन? सजन के बिना बेरंग रहा तन और मन। नयी-नयी चुनरी पहनने की लालसा मन में थी, मगर कहाँ पूरी हुई? सीमा पर तैनात पति की हर दिन घर लौटने की राहें ताकती हैं उनकी पत्नी, अनगिनत स्वप्न होते हैं नयन में। देश की रक्षा में शहीद सैनिक की पत्नी के मन की बातों को कलम ने आवाज दी-
अब कैसे कट पायेगा प्रिय, कहो पहाड़-सा यह जीवन।
रंग उतार माँग का मेरे, कहाँ गये मेरे सजन?

कवयित्री आशावादी हैं, उनकी रचनाएँ उत्साह को बढ़ाती हैं, प्रेरणा देती हैं। वो मध्यम मार्ग को अपनाकर जिंदगी जीने की नसीहत देती हैं। मध्यम मार्ग को तो सर्वश्रेष्ठ मार्ग माना गया है। जिंदगी लय में चले, इसलिए जरूरी है सुर में थोड़ा सुर मिलाने की। जिंदगी में यदि चुनौती आये, तो सहर्ष स्वीकृति देकर हम जीवन को रसमय बना सकते हैं। यथार्थ है कि आजकल की पीढ़ी चुनौती को स्वीकार्य करने से घबराती है। जिंदगी में तो कंटकों से भी मुलाकात होगी, तो फूलों से भी। हमें हर परिस्थिति को स्वीकार करना होगा। कवयित्री आह्वान करती हैं-
स्वर्ण हो तुम याद रखना
तुमको हरदम है चमकना
सह के ताप तुम भी थोड़ा
गल के प्रेम में ढलो
ज़िंदगी लय में चलो।

कवयित्री पाठकों को रिश्तों का सूत्र समझाती हैं। वो इस बात पर बल देती हैं कि रिश्तों की डोरी हमेशा जुड़ी रहनी चाहिए। डोरी चाहे निस्वार्थ भाव से जुड़ी हो या फिर स्वार्थ से, मगर जुड़ी होनी चाहिए। ‘रिश्तों का सूत्र’ पढ़कर पाठकों को यह लगेगा कि कवयित्री ने कितनी गंभीर बातें कह डाली हैं। जिंदगी के सफर में जरूरी नहीं कि सब आपके हिसाब से ही चले, खेले, खाये। हम किसी भी सूरत में अपने मुँह को नहीं फुलायें, लड़ाइयाँ नहीं करें, बातें करना नहीं छोड़ों। जीवन का सफर बहुत लम्बा है। इस लम्बे सफर को सुहाना बनाने के लिए रिश्तों की डोरी जरूरी है।
साथ हैं अपने यही
एहसास होता है बहुत
वर्ना होकर हम अकेले
बन बैठेंगे बुत
बात अच्छी न लगे
तो भी सुनो उनकी कही।

कवयित्री का मानना है कि मुक्त हस्त से खुशियों को बाँटा जाये, लेकिन गम को नहीं। यदि गम आये, तो स्वयं उससे निबटने की क्षमता विकसित की जानी चाहिए।
बाँट खुशियाँ खोलकर जी
गम को चुपके से ही पी ले
ज़िंदगी जी भर तू जी ले।

कवयित्री को कमियाँ देखने की फुर्सत नहीं है। मित्रता की आड़ में स्वार्थ का खेल जारी है, लेकिन कवयित्री का अलग मत है। कहती हैं-उन्होंने हर रिश्ते को तौल कर देखा, मगर दोस्ती से भला कुछ भी नहीं। सच भी है यह। कृष्ण-सुदामा याद हैं न, ऐसे अनेक किस्से हैं। मित्रता में स्वार्थ का कोई स्थान नहीं है। मित्रता में तो स्नेह भरा हुआ होता है। बरसात में भी आँखों से गिरे आँसू की पहचान करना ही दोस्ती की कसौटी है। कवयित्री लिखती हैं-
अच्छे हों या बुरे, बात हर वह सुने,
उससे कुछ कहने से दिल, डरा ही नहीं।
समझे जो मरम, मित्र मेरा परम्,
तो लगे वह कहीं, खुद खुदा तो नहीं।

यह बात सत्य है कि नारी सशक्त हो रही हैं, लेकिन अभी भी नारी की आवाज को दबाने का प्रयास हो रहा है। नारी की शक्ति को कहाँ कागज पर उतारा जा रहा है? ऐसे में कवयित्री कवि से कहती हैं-सुनो कवि मैं ही कविता हूँ। स्पष्ट है कि कवयित्री को नारी समाज की उपेक्षा कतई बर्दाश्त नहीं है। कवयित्री की चाहत है कि यदि नारी के नख शिख का वर्णन होता है, तो शक्ति का भी वर्णन हो, उसे भी कागज पर उतारा जाये। यदि नारी सृजन करना जानती है, तो संहार करना भी उन्हें आता है। ऐसे किस्सों से इतिहास भरा पड़ा है। ऐसे में शक्ति को अनदेखा करना कवयित्री को कैसे अच्छा लगेगा? इसलिए लिखती हैं-
मुझसे ही घर है ज्योतिर्मय
जलती हूँ बाती-सी निर्भय
त्याग मूर्त्ति प्रतिमान हूँ मैं ही
सावित्री सीता हूँ
सुनो कवि मैं ही कविता हूँ।

नारी के त्याग की अनगिनत कहानियाँ हैं। वो अपना हर फर्ज निभाती हैं। पति की लंबी आयु के लिए तीज करती हैं, वट वृक्ष की पूजा करती हैं। करवा चौथ में चाँद का इंतजार करती हैं भूखी-प्यासी। यह समर्पण है प्रिय के प्रति। यही शाश्वत प्रेम है। इतिहास में दर्ज है कि पति की जान बचाने के लिए यमराज से भिड़ गयी हैं नारी। करवा चौथ में चाँद का बड़ा महत्व है, चाँद भी उस दिन खूब ‘ऐंठन’ में होता है। मगर, चाँद का दीदार तो जरूरी है। कवयित्री चाँद से कहती हैं-
सजे जीवन में राग
हो अमर ये सुहाग
कामना पूरी कर दो न सब।

एक ओर जहाँ कवयित्री भारत माँ की महिमा का मुक्त कंठ से बखान करती हैं, तो दूसरी ओर वो उनकी बेबसी को भी बेबाकी से रखती हैं। भारत एक उपवन है। इस उपवन में अलग-अलग फूल खिले हुए हैं और इन फूलों से बगिया महकती रहती है। हिमालय सरताज बना हुआ है। जब भारत का तिरंगा शान से लहराता है, तो सारी दुनिया देखती रहती है। दुनिया नतमस्तक है भारत के सामने। कहाँ कोई आँख दिखाने की कोशिश करता है अब? बदल-सा गया है भारत। हालाँकि भारत की समस्याओं पर कवयित्री चिंतित हैं। चिंतित होना स्वाभाविक है। भारत को किसी की नजर लग गयी है, तभी तो यहाँ जात-धर्म की फसलें लहलहाने लगी हैं। कौन है जो बारूद उपजा रहा है खेतों में? अपनी ही धरती पर भारत माँ बेबस पड़ी हैं। किसे अपना दुख बताये? किससे कहे कि मेरा हाल बेहाल है? एक बार भारत माँ का आगमन कवयित्री के स्वप्न में होता है। जब सभी जगह से उम्मीदें टूट जाये, तो कलम से ही उम्मीदें बढ़ जाती हैं। कवयित्री इन शब्दों में भारत की बेबसी को रखती हैं।
याद करो माँ के लालों को
जिसने जान गँवाई थी
अपना लहू बहाकर हमको
आजादी दिलवाई थी
दिखा भूत का चित्र मुझे वो
वर्तमान को तोल रहीं थी
रात स्वप्न में भारत माता
हमसे आकर बोल रही थीं।

उदासी का माहौल है। वातावरण विषाक्त-सा है। अँधेरा पसरा पड़ा है। ऐसे वक्त में कवयित्री दीप जलाने का फैसला लेती हैं, ताकि अँधेरा छँट जाये, रात भी सवेरा-सवेरा सा लगे। देहरी पर दीप जल जाये, तो अँधकार से मुक्ति पायी जा सकती है। कवयित्री को पता है कि दरिद्रता-दुख को दूर करने के लिए, समृद्धि-सुख को बढ़ाने के लिए दीपक का जलाना जरूरी है। यह दीपक देहरी-देहरी पर जले, हर उर में जले, ऐसी कामना है, ताकि सृष्टि का कल्याण हो सके।
विश्वास की बाती में
घृत प्रेम का मिलायें
खुशियों की ज्योति में हम
दुख का तिमिर मिटायें
चलो दीप हम जलायें।

पेड़ की महिमा बताने वाली कवयित्री पेड़ लगाने का आह्वान करती हैं। कहती हैं कि प्रकृति पूजा जरूरी है। प्रतिवर्ष एक पेड़ का अर्पण जग को जरूर करना चाहिए। सच बात भी है कि हम प्रत्येक साल केवल एक पेड़ लगायें, उसकी हिफाजत करें, तो धरती खिल उठेंगी। प्रकृति का संतुलन बना रहेगा। मगर, हम ऐसा कहाँ कर पाते हैं? पेड़ का अर्पण करने की बजाय हम पेड़ों को ही क्षति पहुँचा रहे हैं। लगे हाथ कवयित्री नयी पीढ़ी से आलस त्यागने की अपील करती हैं। आलस को त्याग कर सदैव आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है रचना-‘चलते रहना है’। यह गीत विपरीत परिस्थितियों में हमारे लिए जीने का सहारा है।
शूरवीर-सा कठिनाई से, तुमको डटकर लड़ना है
तुमको भी गंगा के जैसा लक्ष्य स्वयं तय करना है।

क्यों दान मुझे भी कर दिया? में समाज से सवाल है। यह सवाल हर लड़की का है। आखिर बेटी की ही विदाई क्यों? लड़कियाँ ताउम्र नहीं समझ पाती हैं कि कौन घर ‘अपना’ घर है? दोनों घरों को सजाने-सँवारने में लड़कियों की उम्र बीत जाती है, मगर न तो ससुराल में हक मिलता है और न ही नैहर में। नैहर वाले कहते हैं कि ससुराल तेरा घर है और ससुराल वाले कहते हैं-जाओ पीहर। कशमकश में जिंदगी जीती हैं लड़कियाँ। बेचारगी देखिए-लड़कियों को घर की परी कहा जाता है, जिगर का टुकड़ा कहा जाता है, तो क्या कोई जिगर के टुकड़े को अलग करता है? लड़की का यह सवाल पूछा जाना निहायत जरूरी है-
सोना-चाँदी, धन-दौलत से, यूँ तो मुझको भर दिया।
पर पापा क्यों वस्तु समझकर, दान मुझे भी कर दिया।

क्या श्रमिक के भाग्य में केवल रोना है? श्रमिक की आँखों में आँसू कब आते हैं? इस पर कवयित्री ने बेबाकी से अपनी कलम चलायी हैं। कवयित्री का कहना है कि जब-जब श्रमिक अपने घावों को टटोलता है, तब-तब वह रो पड़ता है। यह विडंबना ही है कि महल-अटारी बनाने वाले मजदूर को एक अदद छत भी नसीब नहीं हो पाता है, उसे फुटपाथ पर सोना पड़ता है। मजदूरों के श्रम से फसलें उगती हैं, बदले में श्रमिकों को क्या मिलता है? भूखे पेट रहने की नियति, यही न। वस्त्र बनाते हैं, मगर चिथड़ों में ही कट जाती है जिंदगी। ऐसी दशा में आँसू गिरेंगे ही। और, गिरते आँसू को देखकर कलम का पिघलना लाजिमी है। कवयित्री लिखती हैं-
करती है सरकार बहुत कुछ
फिर भी मिलता कहाँ उन्हें कुछ
खा जाते हैं स्वयं बिचैलिये
जो उनके हक का होता है
तब श्रमिक भाग्य पर रोता है।

हिन्दी भाषा की गुणगान करती तीन रचनाएँ हैं। कवयित्री का सवाल उठाना जरूरी है कि आखिर आज तक हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा क्यों नहीं मिला? हिन्दी तो भारत माँ के माथे की बिंदी है। हिन्दी जैसी सरल भाषा कहाँ है? यह सुंदर है, लचीली है, प्रवाहमयी है। हिन्दी हम भारतीयों की आन है, शान है। फिर भी, अधिकतर लोगों को हिन्दी बोलने से परहेज क्यों है? क्यों उन्हें झिझक होती है? भारत में विदेशी भाषा क्यों सीना ताने खड़ी है? कवयित्री को अंग्रेजी से तौबा नहीं है, बल्कि अंग्रेजी पढ़कर अंग्रेज बनने से नाराजगी है। उनकी कलम हिन्दी की वकालत करती है-
फिर बेमतलब जड़ से कटकर, इधर-उधर मत डोलिये।
सरल, सुन्दरम्, मधुरम् भाषा हिन्दी में ही बोलिये।

कवयित्री का जन्म गाँव में हुआ है। कलम कैसे बिसार देती गाँव को, गाँव की यादों को। माना, गाँव का आज परिवेश बदल गया है। गाँव की रीतियाँ बदल गयी हैं, नीतियों में बदलाव आ गया है। कोकिला की स्वर लहरी कौए के काँव-काँव की आवाज में दबी पड़ी है। अब तो कोयल दिखती भी नहीं। बावजूद गाँव में थोड़ा सा गँवईपन आज भी बचा हुआ है। कवयित्री के लिए मुश्किल है गाँव की यादों को बिसार देना, इसलिए लिखती हैं-
यादों की शाखी पर बैठी, छुपी हृदय के ठाँव में।
कूक रही है आज भी सखि, कोयल मेरे गाँव में।

‘कहाँ गये वे दिवस’ में बचपन की यादें हैं, पुराने रीति-रिवाज हैं। पहले कितना अपनापन था रिश्तों में, आज वैसा अपनापन है क्या? पहले दिखावा नहीं था, अब रिश्तों में दिखावापन है। विकट घड़ी में सभी लोग साथ रहते थे, साथ हँसते थे, साथ गाते थे, अब नहीं। अब रिश्तों में दुरियाँ बढ़ गयी हैं। रिश्तों के बीच दीवार खड़ी हो गयी हैं। घर कई टुकड़ों में बँटा पड़ा है। कहाँ किसी का मन निश्छल है? न आँगन में तुलसी चौरा है, न मिट्टी के खेल-खिलौने हैं। कवयित्री बचपन की यादों में खोयी पड़ी हैं। लिखती हैं-
कहाँ गये वे दिवस सखी री, कहाँ गई अब वे रातें।
झगड़ा-रगड़ा, हँसी-ठिठोली, वह मीठी-मीठी बातें।

लड़कियाँ ससुराल आकर कहाँ भूल पाती हैं अपना मायका? मायके का प्यार? हर लड़कियों की अंतिम उम्मीद मायका ही है। उन्हें प्रतिपल मायके की याद आती है। माँ की झिड़की, बहन की घुड़की। मायके को कोई कैसे भूल जाये, यहीं तो बचपन बीता। खेलते-पढ़ते लड़कियाँ मायके में ही बड़ी होती हैं। कवयित्री लिखती हैं-
जितनी भुलाती मैं उतना बुलाती वो
यादों में आकर के बाबा की गलियाँ।

क्या कवि का मन भ्रमित होता है? दुनिया की हालत देखकर ऐसा लगता है कि कवि का मन कभी-कभी उलझ ही जाता है। यथार्थ है कि जब सभी जगह से उम्मीदें टूट जाती हैं, तो लोगों की निगाहें कलम पर ही टिक जाती हैं। ऐसे में कलम क्या करे? हरिया का दुख हरे या दुखनी के बदन को ढँके, रोते-बिलखते ननका के लिए रोटी का इंतजाम करे या फिर लहू के लिए प्यासी तलवार को शांत करे। लोगों की सलाह पर माना कवयित्री का मन उलझ पड़ता है, लेकिन यह भी सच है कि दुखियारी जब आवाज लगाती है, तो आँखों से आँसू बहने लगते हैं, जो यह दर्शाता है कि संवेदनाएँ जागृत हैं। ऐसे में कलम भी तनकर खड़ी हो जाती है व्यवस्था से सवाल पूछने को? समस्याओं के बीच खड़ी कवयित्री सवाल पूछती हैं-
एक जान हूँ मैं बेचारी
क्या-क्या लिख दूँ बोल?

समस्याओं को देखकर कलम कभी मुँह फेर ही नहीं सकती है। समाज को सही राह दिखाना कवि का फर्ज है, शासक को आईना दिखाना कलम का कर्तव्य है। नीरस भरे जग को लयबद्ध करने की जवाबदेही कलम की ही है। ऐसे में कवयित्री का शंखनाद है-
आशा दीप जलाता चल
कवि तू धर्म निभाता चल।

कवयित्री ‘अपनों’ को भी नसीहत देती हैं। अपनी बिरादरी को कहती हैं कि तू अपने मन की लिख। कविकर्म में अब मौलिकता का अभाव हो गया है। कवि को भी भेड़चाल में चलने की आदत पड़ गयी है। मंच का हाल पूछिए मत। कविताएँ कम, चुटकुले ज्यादा। गंभीर कविताएँ अब मंच से कहाँ पढ़ी जाती हैं? गंभीर श्रोता का भी टोटा हो गया है। कवयित्री का कहना कितना जायज है-
मिटा नफ़रतों को हर दिल से
भर दो थोड़ा प्यार
स्वयं बजेंगी तब तालियाँ
मत माँगना भीख
कवि तू अपने मन की लिख।

वैश्विक बीमारी कोरोना पर भी रचना है। कोरोना अभी पूरी तरह से गया नहीं है। स्वरूप बदलकर यह आम जनमानस को डरा रहा है। जब कोरोना की पहली लहर आयी थी, तो क्या-क्या नहीं देखने को मिला था? श्मशान घाटों पर लाशें बिछी हुईं थी, अस्पतालों में बेडों की कमी थी। ऑक्सीजन के लिए हाहाकार मचा हुआ था। कौन ऐसा घर या परिवार नहीं था, जो इसकी चपेट में नहीं आया हो! वैक्सीन और भारतीयों के आत्मबल ने कोरोना के खौफ को थोड़ा कम किया है। हाँ, अभी यह थमा सा है, लेकिन इसकी मुकम्मल विदाई नहीं हुई है। जब कभी यह तेवर दिखाने से बाज नहीं आ रहा है। ऐसे में कवयित्री लिखती हैं-
हम वीर सिपाही इस जग के, तो क्यों डर-डर कर रहना है।

कवयित्री को उम्मीद इस बात की भी है कि
हमने जीना सीख लिया अब, जी लेंगे हम किसी हाल में
झनक उठेगी पुनः ज़िंदगी, गुंजित हो लय और ताल में।

मृत्यु तो अटल है! एक-न-एक दिन तो सबको जाना ही है। इस बीच, कवयित्री मौत को ही थोड़ा चिंतन मनन करने को कहती हैं। कोरोना में हमने मौत का तांडव देखा, मौत ने किसे नहीं दबोचा? पत्ता-पत्ता डरा-सहमा था। हर कोई नजर बंद था। खेलने पर पाबंदी थी, खाने पर पाबंदी थी। लोग अपनी साँसें बचा रहे थे, फिर भी साँसें बच नहीं पा रहीं थी। हर तरफ मरघटी सन्नाटा-सा पसरा था। कौन मौत के तांडव से खुश था? जिस किसी भी घर में मौत ने दस्तक दी, लोगों ने भला-बुरा कहा। इसलिए तो कवयित्री मौत से कहती हैं-‘तू जरा चिंतन-मनन कर’। कवयित्री इस बात की वकालत करती हैं कि जिंदगी जीना आदमी का अधिकार है, इसलिए मौत अधिकारों का हनन नहीं करे, बिना बुलाये घरों में दस्तक नहीं दे, जिंदगी को डराये नहीं। कवयित्री मौत को समझाती हैं कि जब आदमी का धर्म-कर्म पूर्ण हो जायेगा, तो वो स्वयं तेरी खिदमत करेगा, तेरे पाँवों को धोयेगा। कवयित्री मौत को सीधे कहती हैं-
देख न बिखरा पड़ा हर
काम बाकी है अभी
मौत आना फिर कभी।

मौत जब मानने को तैयार नहीं है, तो कवयित्री मौत से भिड़ने को तैयार हो गयी हैं। सीधे कहती हैं-ज्यादा अकड़ मत दिखाओ, छुपकर मत आओ। यदि हिम्मत है, तो समर में आजमा लो खुद को। कितनी हिम्मत वाली हैं कवयित्री! मौत से तो हर कोई डरता है। हर कोई चाहता है कि मौत का नर्तन न हो, जिंदगी सँवरती रहे। लेकिन, मौत जब समझाने से भी नहीं समझे, तो कवयित्री जिंदगी को मजबूत रहने का आह्वान करती हैं-
राह रोके मौत भी गर
तुम भी डट कर के लड़ो
ज़िंदगी तुम मत डरो।

मौत को खुली चुनौती देती है कवयित्री की कलम-
मत दिखा मुझे अकड़
दो-दो हाथ आ करें
मौत तुझसे क्यों डरें?

मौत जब बार-बार डराये, तो ऐसे वक्त में कवयित्री जिंदगी को समझाती हैं। ऐसा करना भी जरूरी है।
डर अगर तुमको सताये
लग रही हों बद्दुआएँ
तो करो अन्तः परीक्षण
ईश वंदन फिर करो।

संग्रह की अंतिम चार रचनाएँ नैराश्य में लिखी गयी हैं। कवयित्री जानना चाहती हैं कि मौत कहाँ ले जाती है? क्या मौत को स्वीकार करने वाले भूल जाते हैं सब कुछ? तोड़ देते हैं मोह के बंधन को? क्या खाने को मिलता है? क्या पीने को मिलता है? अमूमन, जब आप मृत्यु के बारे में सोचेंगे, तो ऐसे विचार जरूर कौंधते हैं मन में। अंतिम कुछ रचनाएँ पाठकों को उद्वेलित करेगी। व्यक्तिगत कहूँ, तो हमेशा किरण सिंह जी को मैं सकारात्मक रचनाओं को गढ़ते देखा है, मगर दुख की काली बदरिया ने उनकी लेखनी में नकारात्मकता को भरा। जीवन को आनंदमय रखने की नसीहत देने वाली कलम जब ऐसी पंक्ति लिखती है, तो कौन नहीं रो देगा?
इस जहाँ में रहूँ कैसे मैं उसके बिन
मुझे भी ले चलो मौत उसके शहर।

‘अपनी बात’ में कवयित्री लिखती हैं-‘अगर आप पाठक मेरी रचनाएँ पढ़े होंगे, तो जीवन के प्रति मेरी सकारात्मक सोच से अवश्य अवगत होंगे। वास्तव में मैं जीवन के प्रति बहुत सकारात्मक एवं आशावादी दृष्टिकोण रखती थी। लेकिन समय के निष्ठुर चाल ने मेरे दिल दिमाग पर इतना कठोर प्रहार किया कि मेरे सारे स्वप्न टूटकर चकनाचूर हो गये। मेरी जिंदगी की तरह मेरी लेखनी भी निष्प्राण हो गई। फिर मेरे परिजनों, मित्रों और पाठकों की स्नेह की स्याही ने मेरी संगिनी लेखनी में प्राण फूँक कर उसे चलने के लिए विवश कर दिया।’
भगवान न करे कि ऐसा दुख किसी को मिले। आँखों के सामने जिगर के टुकड़े को खोने का गम संसार का सबसे बड़ा गम है।
बिना कहे चुपचाप तोड़ कर, नाजुक हृदय हमारा
चला गया है कौन देश में मेरा राज दुलारा।

हर माँएँ चाहती हैं कि बेटा खूब नाम कमाये। पुत्र की मनोकामना को पूर्ण के लिए माँ हर त्याग करती हैं, हर चुनौतियों को स्वीकार करती हैं। कवयित्री ने भी पुत्र के सपनों को सँवारने के लिए हर यत्न कीं। व्रत रखीं, उपवास रहीं, मंदिरों में मन्नत के धागे को बाँधीं। खुशियों की फसलें बोयी गयी थीं यह सोचकर कि दाने उगेंगे, लेकिन फसल हवा के हिलोरे से एक ही झटके में टूट पड़ी। ऐसे में कैसे नहीं डोलेगा विश्वास? भगवान को क्यों नहीं कटघरे में खड़ा किया जायेगा? क्यों नहीं पूछा जायेगा नीति नियंता से कि क्यों मौत हर बार जीत का जश्न मनाती है? कैसे निर्णायक हो तुम? कैसा न्याय है तुम्हारा? एक माँ की वेदना-
कौन पाप की सजा मिली है, हमको अब बतला दो क्यों?
निश-दिन बहती रहती मेरी, आँखों से जलधारा।

समर्पण में कवयित्री लिखती हैं-‘मुझे लिखने के लिए प्रेरित करने वाले सभी ऊर्जा स्रोतों को समर्पित’। लगातार अपनी कलम से समाज में जागृति फैलाने वाली किरण सिंह की कलम का रुक जाना लोगों को अखरता रहा है। साहित्यिक बगिया में कई बेमिसाल कृतियों को देने वाली कवयित्री की प्रस्तुत संग्रह में भी अन्य कृतियों की तरह प्रवाहमयता है, सरसता है। क्या नहीं है संग्रह में? भक्ति भावना है, बचपन और गाँव की यादें हैं, संदेश है, जीवन जीने का मूलमंत्र है। नारी मन की बातें हैं, भारत माँ की बेबसी है, श्रमिकों का रोना है। हिन्दी का गुणगान है, मायके का प्यार है, तो मृत्यु को चुनौती है और पुत्र गम में लेखनी का रोना है। अर्थात, विभिन्न भाव हैं।

द्वारा सिन्हा शशि भवन
कोयली पोखर, गया-823001
चलितवार्ता-9304632536

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