कृति: बातों-बातों में
कृतिकारः किरण सिंह
प्रकाशकः वनिका प्रकाशन,
एन ए-168, गली नंबर-06
विष्णु गार्डन, नई दिल्ली-110018
पृष्ठः 104 मूल्यः 190/-
समीक्षकः मुकेश कुमार सिन्हा‘चूँकि आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में व्यक्ति के पास समयाभाव है, इसलिए वो शाॅर्टकट रास्ता खोज लेते हैं। ऐसे में साहित्य की दुनिया में लघुकथाओं के प्रति पाठकों का रुझान बढ़ना स्वाभाविक है।’
अनेक विधाओं में पुस्तकों के लेखन के बाद पुस्तक ‘बातों-बातों में’ के साथ लघुकथा की दुनिया में पाँव रखने वाली किरण सिंह की ऊपरवर्णित बातें सच की कसौटी पर खरी उतरती है। अब लोगों के पास फुर्सत कहाँ है? कौन पढ़ने में इतनी जहमत उठाता है? शीर्षक पढ़कर अखबारों को एक ओर पलटने वाली पीढ़ी को कहाँ पसंद है लंबी कहानियों को पढ़ना?
साहित्य की यह विधा यानी लघुकथा आजकल ज्यादा पसंद की जा रही है, ऐसा इसलिए कि भागती-दौड़ती जिंदगी के बीच लोग गोता डालकर आसानी से उससे निकल जा सकें। दोहे की तरह लघुकथाएँ भी साहित्यप्रेमियों को ज्यादा आकर्षित कर रही है।
लघुकथाकार किरण सिंह भी लिखती हैं-‘काव्य में जिस तरह से दो ही पंक्तियों में दोहे अपना प्रभाव छोड़ते हैं, ठीक उसी प्रकार लघुकथाएँ भी कम शब्दों में बहुत कुछ कहने, सोचने-समझने, जीवन के उलझनों को सुलझाने तथा निष्कर्ष निकलने की क्षमता रखती है और पाठकों के मन-मस्तिष्क पर अपना प्रभाव छोड़ती है।’
लघुकथा संग्रह का नाम है-‘बातों-बातों में’। सुंदर नाम है! सच ही तो है कि बातों-बातों में न जाने कितनी बातें निकल आती हैं। बातें कभी रुलाती हैं, तो कभी हँसाती हैं। और, कभी सोचने को विवश भी कर देती हैं। बातें कभी समझाती हैं, कभी पथ प्रदर्शक बनकर खड़ी हो जाती हैं। बातों-बातों में निकली कई बातों को लघुकथाकार ने शब्द रूपी माला में गूँथकर भावनाओं को कागज पर उतारने की सुंदर और सफल कोशिश की हैं।
कुल 85 लघुकथाएँ हैं संग्रह में। यह संग्रह समर्पित है समाज को, क्योंकि समाज में घटित घटनाओं ने ही किरण सिंह को झकझोरा, जिसकी वजह से उनकी कलम लिखने को मचल उठी।
अपनी बात में किरण सिंह लिखती हैं-‘मैं बहुत ही ईमानदारी से स्वीकार करती हूँ कि इस संग्रह की सभी लघुकथाएँ सत्य घटना पर आधारित हैं और बातों-बातों में ही बनी है जिन्हें मैंने कलमबद्ध करने का प्रयास किया है।’
यूँ कहा जाये, तो यह लघुकथा संग्रह समाज का आईना है। समाज में जो कुछ भी दिखा, उसे इस लघुकथा संग्रह में संजोया गया है। अब बात लघुकथाओं की।
हम शहरी हो गये हैं, कहाँ गाँव जाना पसंद करते हैं? गर्मी की छुट्टी भी होती है, तो गाँव जाने की कहाँ सोचते हैं? हालाँकि मोहित का फैसला प्रेरणादायी है। गर्मी की छुट्टियों में जम्मू जाने का फैसला कैंसिल कर वह गाँव जाने का निर्णय किया। ‘एक पंथ दो काज’ में लघुकथाकार का संदेश है-‘गाँव में क्या नहीं है, क्या कश्मीर से कम है गाँव?’ ‘चारों धाम’ में सुंदर बाबू ने भी ठीक ही कहा-‘मुझे तो नौकरी वाली जिंदगी में बहुत ऐशो आराम मिला, कमी रह गई थी तो गाँव की सहज, सरल जीवन शैली तथा अपनेपन की इसलिए मैं तो रिटायरमेंट के बाद अपना अधिकांश समय गाँव पर बिताता हूँ जहाँ मुझे गंगा के किनारे कश्मीर की झील नज़र आती है तो खेतों में वहाँ की वादियाँ। वहाँ के मंदिर में चारों धाम और बड़े-बुजुर्गों में देव…।’ गाँव मझौआं (बलिया) में जन्म लेने वाली लघुकथाकार की कलम गाँव की खासियत का कैसे नहीं बखान करती?
घर में भाइयों के बीच अनबन का होना कोई नयी बात नहीं है। जहाँ बर्तन होते हैं, वहाँ बर्तनों का ढनमन होना लाजिमी है। लेकिन, क्या हम अनबन की स्थिति में भाइयों से बात करना बंद कर दें? एक मासूम सा आर्षी ने क्या खूब कहा-‘मम्मी, इस घर का रूल (नियम) बना दीजिए कि चाहे जो भी हो जाए फैमिली का कोई भी मेम्बर एक-दूसरे से बात करना नहीं बंद कर सकता। आर्षी के मुँह से निकली यह बात सोचने को बाध्य करता है।
हमें हठधर्मी नहीं होना चाहिए, इस बात की सीख है ‘मन्नत’ में। हम कई बार यह सोचते हैं कि मैं क्यों बात करूँ? वो क्यों नहीं कर सकता है? इस चक्कर में दूरियाँ बढ़ती हैं। सच यह है कि बात-चीत करने से न केवल मन हल्का होता है, बल्कि संशय की स्थिति भी खत्म हो जाती हैं।
हम अक्सर हर गलतियों पर वर्तमान पीढ़ी को ही दोषी ठहरा देते हैं। लेकिन, क्या गलतियाँ हमारी ‘परवरिश’ की वजह से नहीं हो रही है? ‘परवरिश’ में यह समझाने की कोशिश की गयी है कि दोष आज की जेनरेशन में नहीं, परवरिश में है। हम बच्चों को नैतिकता का पाठ पढ़ायें, उन्हें बड़ों का आदर करना सिखलायें, ताकि रत्ना जैसी माँओं को कभी रोना नहीं पडे़।
‘संस्कार’ में नयी पीढ़ी के लिए संदेश है। यह सच है कि नयी पीढ़ी संस्कार को भूलते जा रही है। काश! रोहित की तरह हर कोई बुजुर्ग के लिए अपनी कुर्सी छोड़ दे। मगर ऐसा होता कहाँ है? नयी पीढ़ी कहाँ सोच पाती है इतना? एक बात और। हम-आप के मन में यह धारणा घर गयी है कि पूत परदेशी हो जाता है, तो यह समझ लिया जाता है कि उसके पास संस्कार नहीं बचा, संस्कृति नहीं बची। जब श्याम बाबू को यह पता चलता है कि उनका ‘परदेशी पूत’ आरोह दादाजी के श्राद्ध अवसर पर खाना पैक करवाकर मंदिरों और स्टेशनों पर बाँटने चला गया है, तो वो गर्व से भर उठते हैं। नयी पीढ़ी मतलब बेटे से जब मान बढ़ता है, सम्मान बढ़ता है, तो पिता की आँखों में आँसू ढलक पड़ते हैं। महेश बाबू की आँखें भी रोयी, मगर आँसू ‘गर्व के आँसू’ थे।
‘सवाल’ संदेश छोड़ता है। हम अक्सर ही औलादों पर अपनी मर्जी थोप देते हैं। हम चाहते हैं कि वो बड़ों की मर्जी का विषय चुने, पढ़े। ऐसा नहीं होना चाहिए। बच्चों को उसकी अभिरुचि पर भी ध्यान दिया जाना जरूरी है। अपनी रुचि का विषय कितना भी कठिन हो, आसान-सा लगता है। ‘दीक्षा’ में भी नयी पीढ़ी के लिए सीख है। ‘एकौ साधे सब सधे, सब साधे सब खोय। अर्थात एक की साधना करने से सब साधित हो जाएगा और सभी को साधने के चक्कर में सब कुछ भूल जाएगा।’ गुरु की इस दीक्षा से अक्षरा की आँखें खुली। केवल अक्षरा ही नहीं, हर युवाओं के लिए यह सीख है।
कम समय में सब कुछ पा लेने वाली नयी पीढ़ी में संयम है ही नहीं। पढ़ाई तो साधना है। शिखर का कथन उदाहरण है। ‘एक्सपीरियंस’ भी कोई चीज होती है। शिखर ने अपने भाई प्रखर को इस रूप में समझाया-‘देख भाई, सक्सेस का कोई शाॅर्टकट नहीं होता और बिना मेहनत किए कुछ भी नहीं मिलता है। सफलता का मूल मंत्र है मेहनत, मेहनत और मेहनत। देखो इंसान को कभी न कभी तो मेहनत करनी ही पड़ती है। जो आज ज़्यादा मेहनत करेगा उसे कल आराम वाला काम मिलेगा और जो आज कम मेहनत करेगा उसे जीवन भर संघर्ष करना पड़ेगा।’
समाज में ऐसी मान्यता है कि सास और माँ में अंतर होता है। ‘दिल की जीत’ में लघुकथाकार द्वारा यह संदेश छोड़ा गया है कि सास और माँ में कोई अंतर नहीं होता है। सीमा के लिए उसकी सास सुबह से शाम तक पूजन-अर्चना करती, प्रार्थना करती। ऐसे में सीमा की आँखों से गंगा-जमुना का बहना लाजिमी था। ‘मुस्कान’ एवं ‘सुकून भरी दृष्टि’ में भी सास-बहू के किस्से हैं।
ठीक ही कहा गया है न कि ‘आई हैव अ प्राॅब्लम विथ द कांसेप्ट आॅफ मदर्स डे…।’ हमारे लिए तो हर दिन मातृ दिवस है। माँ को दिवस में क्यों बाँधना? ‘आंतरिक सौंदर्य’ में एक माँ का कहना कितना मार्केबल है, सोचा जा सकता है? ‘बेटा, लड़की देखने जा रहे हो तो इतना ध्यान रखना कि हमें माॅडल और हिरोइन नहीं घर में एक परिवार चाहिए जो तुम्हारी बीवी बन सके और हमारी बहू इसलिए लड़की के बाह्य सौंदर्य से अधिक आंतरिक सौंदर्य को तवज्जो देना।’ यह सच है कि आजकल लड़कियों का आंतरिक सौंदर्य कौन देखता है? मगर, कलम ने आंतरिक सौंदर्यता की वकालत की है। सच भी यही है!
हालाँकि दूसरी ओर ‘नौकरी वाला लड़का’ में इस बात को प्रमुखता से रखा गया है कि एक माँ अपनी बिटिया को एकल परिवार में देखना चाहती हैं। चाहती हैं कि उसके परिवार में केवल वो और उसका पति रहे, लेकिन अपनी बहू को संयुक्त परिवार में रहने की नसीहत देती हैं। आखिर ऐसा क्यों है? माँ के दो स्वरूपों से पाठकों को रू-ब-रू कराया गया है। यह है कलम की निष्पक्षता!
‘रिश्तों का गणित’ यह समझाने को काफी है कि आजकल रिश्ते के क्या मायने रह गये हैं? रिश्तों पर पैसे का प्रभाव हो गया है। महन्ती देवी ने क्या कहा, देखिए-‘वो क्या है न कि तुम्हारा कमाऊ पति है, और परिवार के सभी सदस्य उसपर आश्रित हैं, इसलिए तुम्हें मान देना उनकी मजबूरी है, वर्ना…।’
‘तुलना’ लघुकथा सोचने को बाध्य करती है। किसकी जिंदगी अच्छी है, रमा की या श्यामा की? श्यामा बेटे-बहू के साथ रहकर भी अकेली होती हैं, क्योंकि बेटे-बहू से उनकी बातचीत बंद है, वहीं रमा वृद्धाश्रम में होती हैं, मगर बेटा दिन में चार-पाँच बार काॅल कर लेता है, तो माह में एकाध बार यहाँ आकर माँ को देख भी लेता है।
लघुकथाकार ने सच लिखा कि कभी-कभी आदमी को ‘भ्रम’ में भी जी लेना चाहिए। इससे रिश्ता बना रहता है और विश्वास भी नहीं डोलता है। मोना ने कितनी अच्छी बातें कही-‘अच्छा है मैं खूबसूरत भ्रम में ही जीऊँ।’ पति के अवैध संबंध पर ठीक ही कहती हैं-‘अगर यह बात झूठ हुआ, तो विशाल को लगेगा कि मुझे उन पर विश्वास नहीं है और अगर सच हुआ, तो मेरा विश्वास अपने विश्वास पर से ही उठ जायेगा।’ ‘लाल गुलाब’ पति-पत्नी के प्रेम का उदाहरण है। इसमें यह नसीहत है कि हम बहुत जल्द किसी के प्रति कोई नकारात्मक धारणा नहीं बना लें।
यह घर-घर की कहानी है। घरेलू महिलाएँ दिन-रात अपना समय घर-परिवार को देती हैं, लेकिन कहाँ कोई मोल देता है उन्हें? रत्ना भी घरेलू महिला है, लिखने-पढ़ने में अभिरुचि है। जब उसकी किताबें छपीं, तो घर-परिवार में विरोध होने लगा कि किताब प्रकाशित करना, मतलब पैसे में आग लगाना है, लेकिन जब उसे लेखन का पुरस्कार मिला, तो आँखें खुशी से भर गयी।
‘खुशी के आँसू’ में जहाँ कलम की जय है, वहीं ‘धन की महिमा’ में धन की। ज्योति जैसी साहित्यकार इसलिए बस कलम घिसती रह जाती हैं कि उसके हिस्से की खुशियों को कोई धन से खरीद लेता है। ‘संपादक बनने का शौक’ यह बताने को काफी है कि जिसे लिखना भी नहीं आता है, वो भी संपादक बने फिर रहे हैं। ‘सप्रेम भेंट’, ‘उपहार’ ‘आॅनलाइन माजरा’, ‘रचना चोर’ ‘साहित्यिक राजनीति’ और ‘पर्दाफाश’ साहित्यिक दुनिया की खबर लेती है।
आजकल पुरस्कार लेने के लिए क्या-क्या करने पड़ते हैं, इसकी बानगी है ‘पर्दाफाश’ में। वहीं रचनाओं पर जब पारिश्रमिक मिलता है, तो कैसे चेहरा खिल उठता है, यह है ‘पारिश्रमिक’ में। ‘पुरस्कार का जादू’ में यह दर्शाया गया है कि पुरस्कार की कितनी अहमियत है। कल तक जिनको अलग बैठने के लिए कहा जाता था, पुरस्कार के बाद उनके साथ बैठने की आपा-धापी लगी रहती है। गजब की है दुनिया! ‘समय की बात’ है न। समय जो न कराये। कल तक कन्नी काटने वाले कैसे बात करने को मचल उठते हैं, ताज्जुब होता है।
समाज में ऐसी मान्यता है कि दान ऐसा कीजिए कि इस मुट्ठी से दीजिए, तो उस मुट्ठी को भी पता नहीं चले। लेकिन, अब दान प्रदर्शन का विषय हो गया है। दान देते हुए तस्वीर न हो, तो दान संपूर्ण माना ही नहीं जाता है। अब दान के नाम पर केवल ड्रामा होता है, नौटंकी केवल नौटंकी! मुँह से स्वतः यह बात निकल आती है कि ‘यह कैसा दान है’?
एक बात मानिए जरूर। हम किसी की मदद करते हैं, तो ऊपर वाला भी फरिश्ता बनकर मदद को खड़ा रहता है। ‘ईश्वर का रूप’ प्रत्यक्ष उदाहरण है। ‘एहसान’ में लघुकथाकार ने बेहतर बिंब खींचने की कोशिश की हैं। हर बार मदद माँगने वाला हाथ मदद को ही आये यह जरूरी नहीं है, वह देना भी जानता है। श्याम बाबू को किडनी देने की बात सुनकर सविता को खुद को कोसना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। आदमी गरीब होता है, तो इसका यह मतलब नहीं कि उसमें स्नेह नहीं होता है। कांताबाई का स्नेह देखकर निशा की आँखों में ‘पश्चाताप के आँसू’ का बहना स्वाभाविक था।
हम स्वार्थी हो गये हैं। हम अपने स्वार्थ में भूल जाते हैं पर का दुख। क्या डाॅक्टर इंसान नहीं होते? उन्हें भी भूख लगती है, प्यास लगती है। लेकिन, जरा सा विलंब होने पर हम चिकित्सकों को भला-बुरा कहने लगते हैं। सीनियर डाॅक्टर ने रेखा से ठीक ही कहा-‘आपका गुस्सा जायज़ है लेकिन एक इंसानियत के नाते आप भी सोचिए कि क्या डाॅक्टरों को खाने-पीने की भी ‘इजाज़त’ नहीं है? डाॅक्टर कभी नहीं चाहते कि किसी भी मरीज की मौत हो! ‘डंडे की भाषा’ में डाॅक्टर की बातों को लघुकथाकार लिखती हैं-‘अगर आपके तोड़-फोड़ मचाने और मुझे जान से मारने से आपका मरीज जीवित हो जाए तो जरूर मारिए। आपके इन्हीं कारनामों की वजह से चाहकर भी कोई डाॅक्टर गाँव में नहीं आना चाहता है। मुझे भी मेरे परिजन नहीं आने दे रहे थे लेकिन मैं आपकी सेवा के लिए आया था।‘ खैर, लघुकथा में यह प्रश्न छोड़ा गया है कि भीड़ कैसे हटी, डाॅक्टर की बात से या पुलिसिया डंडे से?
‘आदर्श बाबू और होशियार बाबू’ में तंज है। आज कल सेटिंग-गेटिंग का जमाना है। यदि सेटिंग-गेटिंग में कोई महारत हासिल नहीं किया, तो समझ लीजिए, वह धूल फाँकते रह जायेगा! अब आदर्श बचा कहाँ है? नैतिकता भी तेल लेने गयी है। ‘ऊपरी आमदनी’ में भ्रष्टाचार पर व्यंग्य है। विभाग पर नेताओं के शिकंजे की पोल खोलती है-‘दादागिरी’। सिस्टम कितना गड़बड़ हो गया है, ‘नए साहब’ से जाना-समझा जा सकता है। सिस्टम की गड़बड़ी की वजह से नये आदमी को भी भ्रष्ट आचरण में मजबूरन संलिप्त होना पड़ता है। बड़े बाबू का व्यंग्यात्मक टिप्पणी-साहब अभी नए-नए हैं, सिस्टम के पोल खोलने को काफी है।
क्या हम स्वास्थ्य को लेकर गंभीर हैं? शायद नहीं। निश्चित, हम स्वास्थ्य से ज्यादा प्रोपर्टी का ख्याल करते हैं। अमूमन हम सब मेडिकल रिपोर्ट को इधर-उधर रख देते हैं, मगर प्रोपर्टी के पेपर को बिल्कुल सुरक्षित रखते हैं। ‘संकल्प’ में चिकित्सक की इस बात से संकल्प लेना जरूरी है-‘आप अपनी प्रोपर्टीज के पेपर्स तो तिजोरी में सुरक्षित रखे हुए हैं और इतने अनमोल शरीर के पेपर को सँभाल कर नहीं रख सकते हैं? बताइए, जब आपका शरीर ही स्वस्थ नहीं रहेगा तो प्रोपर्टी कैसे सँभालेंगे?’
‘गुहार’ में एक तरफ माँ की ममता है, तो दूसरी तरफ पद के अनुरूप आचरण का अभाव। महेश्वरी देवी न्याय की कुर्सी पर बैठी होती हैं, मगर बेटे की वजह से जब उनकी प्रतिष्ठा पर आँच आती है, तो वो पीड़िता से गुहार लगाने लगती हैं, पीड़िता को नोटों से भरा लिफाफा थमाती हैं। अक्सर ही ऐसा होता है, हम बातें बड़ी-बड़ी करते हैं, लेकिन कथनी और करनी में बड़ा फर्क आ जाता है। लघुकथाकार की तीक्ष्ण आँखों से भला ऐसी चीजें कैसे अछूती रह जाती?
‘जमाना बदल गया है‘ और ‘नई मालकिन’ में बहुएँ क्या सोचती हैं, का ताना-बाना है। श्वेता भी बहू थी, जो यह कह रही थी कि वो आरव यानी पति के परिवार वालों का कोई काम नहीं करेगी। सेजल भी बहू ही है, जो अपनी ननद की शादी के लिए ज्वेलरी बैग को अपनी सास के हाथों में यह कहकर थमा देती है कि ‘जब आपने मुझे मेरी मुँह दिखाई पर घर की चाबियाँ दी थी तो इस घर की जिम्मेदारी मेरी भी हुई न? गहनों का क्या है, फिर जब पैसे होंगे, तो बन जाएँगे।’
‘पच्चीसवीं वर्षगाँठ’ आधुनिक सोच पर तमाचा है। हम फैशन में इस कदर चूर हो गये हैं कि भूल गये हैं अपनी संस्कृति को, अपने संस्कार को। हल्दी, वरमाला और सिंदूर दान का फिर से होना क्या परंपरा के साथ मजाक नहीं है?
शराबबंदी की वजह से समाज में क्या बदलाव आया, इसका लेखा-जोखा है ‘शराबबंदी’ में। शराबबंदी वरदान है। इसकी वजह से घर-परिवार की इज्जत बच रही है, पैसे बच रहे हैं। हिंसा से मुक्त हो रहा है घर-समाज। सोनी एक उदाहरण है, सोनी जैसी अनगिनत महिलाओं के चेहरे पर आज शराबबंदी की वजह से खुशी है।
‘अभी बताता हूँ’ में पुलिसिया रौब की जबर्दस्त खबर ली गयी है। पता नहीं समाज से पुलिसिया रौब का अंत कब होगा? कब मुफ्तखोरी की आदत छूटेगी? महसूस कीजिए गरीब की बेबसी को इस लघुकथा में- ‘न बेटा, तू पढ़ाई कर, मैं बेच लूँगा, हम गरीब छोटी-मोटी बीमारी में बैठ जाएँगे तो बीमारी से मरे न मरे भूख से ज़रूर मर जाएँगे।’ ‘सौदा’ लघुकथा भी प्रश्न छोड़ती है। गरीब को कितना सौदा करना पड़ता है, आश्चर्य होता है? एक गरीब युवती की शादी अधेड़ के साथ करा दी जाती है। वजह क्या है, देखिए-‘दरअसल हम बहुत गरीब हैं। घर में खाने के भी लाले पड़े हैं, उस पर पिता की बीमारी भी…। मुझे यही एक सही और सुरक्षित रास्ता लगा, इसलिए मैंने इनसे विवाह कर लिया ताकि मुझे घर मिल जाए, मेरी माँ को पैसे और अभी जो गए हैं उनकी जान बच जाए। इसलिए मैं इन्हें अपनी किडनी स्वेच्छा से दे रही हूँ।’ ‘दहेज’ भी इसी ताना-बाना के साथ बुनी हुई लघुकथा है। पंक्ति देखिए-‘चुप कर, मैंने यूँ ही अपने बेटे का विवाह एक कंगाल बाप की बेटी से बिना दहेज के थोड़े न किया है।’ मतलब, पूरा परिवार जानता था कि रोहित की किडनी खराब है। उसकी पत्नी किडनी देगी, इसी आस में बिना दहेज की शादी करायी गयी। वाह रे समाज! वाह रे सोच!
‘गरीबों की मजदूरी’ की भी पंक्तियाँ सोचने को मजबूर करती हैं-‘डर लगता है कि कब कौन हमारी बेटियों के साथ कुछ गलत काम न कर दे इसीलिए जल्दी से शादी करके हम गरीब गंगा नहा लेते हैं।’ यह एक माँ की वेदना है और सभ्य समाज पर तमाचा भी। बेटियों पर बुरी नजर से आँखों में दर्द, भय, चिंता और आक्रोश क्यों नहीं होगा? हालाँकि ‘चण्डी रूप’ में बेटियों को चण्डी रूप धारण करने की अपील है। यह नसीहत है कि वक्त पर औरत को रौद्र रूप धारण कर लेना चाहिए। यदि औरत रौद्र रूप अख्तियार कर ले, तो प्रतिकूल समय को भी अनुकूल बना सकती हैं। मीरा ने अपनी बहू को ठीक ही कहा-‘वक्त पर औरतों को चण्डी का रूप धारण करना जरूरी हो जाता है।’
हिन्दी में लिखने वाली लघुकथाकार किरण सिंह मातृभाषा हिन्दी की वकालत करती हैं। हम हिन्दी भाषियों को अपने ही देश में सिर्फ अंग्रेजी नहीं बोलने की वजह से बार-बार अयोग्यता का दंश झेलना पड़ता है, ऐसा कदापि न हो, यह संदेश है ‘हिंदी में प्रश्न’ का। रानी जैसी कई प्रतिभावान बस इसलिए अयोग्य करार दी जाती हैं कि उन्हें अंग्रेजी नहीं आती। लघुकथाकार द्वारा हिन्दी भाषियों के मन की बात को पूरजोर ढंग से रखने की यथेष्ट कोशिश की गयी है।
पुरानी परंपरा को आधार मानकर ‘उल्लू’ की रचना की गयी है। उल्लू का बैठना अपशगुन माना जाता है, लेकिन प्रश्न यह भी है कि सावन-भादो में उसके बसेरा को हटाना कैसे शगुन माना जा सकता है? रोहित ने कहा-‘सीमा, तुम ज़रा विचार करो कि सावन-भादो के इस महीने में किसी का घर उजाड़ने से कैसे शगुन हो सकता है? ये पक्षी भी तो एक जीव हैं।’ तंत्र-मंत्र पर प्रहार है-‘तंत्र-मंत्र’। यह संदेश भी कि बीमार पड़ने पर हमें चिकित्सक के पास जाना चाहिए, न कि किसी तांत्रिक के पास। पतिव्रता धर्म की आड़ में आडम्बर बिल्कुल भी नहीं करना चाहिए, ऐसी नसीहत है लघुकथा ‘पतिव्रता धर्म’ की। अंधविश्वास पर चोट है-‘लाल ड्रेस’।
एक बात है, समाज में बेवजह के मुद्दे को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने वालों की कोई कमी नहीं है। इस पर भी लघुकथाकार की नजर गयी है। ‘भरोसा’ को देख लीजिए। सिर पर इंफेक्शन होने की वजह से अतुल अपने पिता की मौत पर बाल नहीं मुड़ाता है। इस तथ्य को जाने-समझे लोग कितनी बातें कहने लगते हैं? माँ का कहना था-‘बेटा मुझे तुम पर और अपनी परवरिश पर भरोसा है। लोगों को तो दुख हो या सुख बात बनाने का मुद्दा चाहिए।’
लघुकथा ‘तुम इन फूलों जैसी हो’ में बेहतर व्यवहार करने की नसीहत है। निश्चित, काँटों को प्यार से भी छुआ जाये, तो वो चूभेगा ही और गुलाब को मसल भी दिया जाये, तो वो सुगंध फैलाना नहीं छोड़ेगा। इसलिए, व्यवहार में रुखापन किसी भी सूरत में न हो, इसका सदैव ख्याल रखना चाहिए। ‘वादा’ यह संदेश देता है कि हमें किसी के चढ़ावे में नहीं आना चाहिए। सोचिए, यदि रत्ना बातों में आकर पति से शिकायत कर लेती, तो क्या इज्जत रह जाती? ‘मानवता धर्म’ लघुकथा मानवता को जीवंत रखने की वकालत करती है।
‘कुकिंग टीचर’, ‘मदद’, ‘ईश्वर का रूप’ एवं ‘आत्मबोध’ लघुकथाएँ कोरोना काल में उपजे परिदृश्यों को आधार बनाकर रची गयी हैं। वहीं ‘यक्ष प्रश्न’ ‘जस्ट बी व्हाट यू आर’, ‘छोटी सी बात’ एवं ‘मासूम सवाल’ बच्चों के मुख से निकली बातों के आधार पर रचित है। बदले हुए जमाने की तस्वीर है-‘रिलेक्स माॅम’। ‘जल’ मार्मिक लघुकथा है, तो ‘मन की गिरह’ गिरह खोलती है। बेटियों के जन्म पर आँसू बहाने वाला यह समाज कैसे बेटियों की तरक्की पर इठलाता है की खबर लेती है लघुकथा ‘बेटियाँ’। ‘हमें कुछ नहीं चाहिए’ में सचबयानी है।
सत्य घटनाओं पर आधारित इन लघुकथाओं में बनावटीपन का कोई प्रश्न ही नहीं है। हम और आप जब इन लघुकथाओं से होकर गुजरेंगे, तो महसूस करेंगे कि ऐसी घटनाएँ हमारी और आपकी आँखों के सामने घटित हुई हैं। लघुकथाओं में घर-परिवार-समाज के किस्से हैं। इसमें व्यंग्य है, तंज है, चिंता है, सुझाव है। लघुकथाकार की माइक्रोस्कोपिक दृष्टि को सलाम है! लघुकथाओं की भाषाशैली बिल्कुल सहज और सरल है, जो पाठकों को कहीं अटकाती-भटकाती नहीं है। हालाँकि कुछेक स्थानों पर प्रूव की कमी है।
द्वारा सिन्हा शशि भवन
कोयली पोखर, गया-823001
चलितवार्ता-9304632536
