पूर्वा – स्त्री जीवन को बारीकी से उकेरती कथाएँ

किरण सिंह जी निरंतर साहित्य साधना में लगी वो साहित्यकार हैं, जो लगभग हर विधा में अपनी लेखनी की प्रतिभा दिखा चुकी हैं, फिर चाहें वो कविताएँ, लघुकथाएँ, दोहे, मुक्तक, कुंडलियाँ छंद, गजल हो या कहानियाँ लिखकर साहित्य को समृद्ध कर रही हैंl आज उनके जिस कहानी संग्रह पर बात कर रही हूँ वो हाल ही में वनिका पब्लिकेशन से प्रकाशित हैl “पूर्वा” जैसे आकर्षक नाम और कवर पेज वाला यह संग्रह उनका तीसरा कहानी संग्रह है, जो उनकी कथा-यात्रा के उत्तरोंतर विकास का वाहक हैl
अपनी बात में किरण सिंह जी मैथली शरण गुप्त जी की कुछ पंक्तियाँ लेते हुए लिखती हैं

“केवल मनोरंजन ही न कवि का करम होना चाहिए,
उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए”
मैथली शरण गुप्त जी की इन पंक्तियों से मैं बहुत प्रभावित हूँ, इसलिए भी मेरी हमेशा कोशिश रहती है कि कविता हो या कहानी कुछ न कुछ उपदेश दे ही l”

इस संग्रह की कहानियाँ उनके कथन पर मोहर लगाती हैंl जिसकी विषय वस्तु में आम जीवन हैl दरअसल हमारा घर परिवार हमारे रिश्तों की आधार भूमि है और समाज की ईकाई l इस इकाई को नजर अंदाज कर स्वस्थ समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती l “पूर्वा” में संकलित किरण सिंह जी की कहानियाँ घर-परिवार की इसी दुनिया को कई बिंदुओं से देखती परखती एक्स रे करती चलती हैंl बहुधा कहानियों के केंद्र में स्त्री ही है l वही स्त्री जो घर की धुरी हैl कथाओं के मध्य अमूर्त रूप से कई प्रश्न ऐसे गूँथे हैं, जो पाठक को अपने ही जीवन से जूझ कर उत्तर खोजने पर विवश करते हैंl चाहें वो विधवा स्त्री का बैरंग जीवन हो, दहेज की प्रथा हो, घर में अकेली पड़ गई अपने सपनों के लिए संघर्ष करती स्त्री होl
कहानियों की खास बात यह है कि किरण सिंह जी की स्त्रियाँ कहीं से भी बनावटी स्त्रियाँ नहीं नजर आतीl ये स्त्रियाँ बौद्धिक विमर्श नहीं करतीं बल्कि हमारे कस्बों और छोटे शहरों की स्त्रियाँ हैं, जो घर परिवार और सपनों से संतुलन बनाते हुए बहुत सधे कदमों से धीरे-धीरे एक-एक बेंड़ी खोलते हुए आगे बढ़ रही है, सीधे तौर पर पुरुष पर उँगली उठाने के विपरीत ये समाज और रूढ़ियों पर उँगली उठाती हैl वो समाज जो स्त्री पुरुष से मिलकर बना हैl ये कहानियाँ संतुलन में ही स्त्री और पुरुष दोनों का भला है की हिमायती हैंl

एक महत्वपूर्ण प्रश्न जो कहानियों से उभरकर आता है, वो है एक अच्छी स्त्री के मन का अंतरदवंद l आमतौर पर परिवार को ले कर चलने वाली, सबकी खुशियों के लिए त्याग करने वाली स्त्री, अपने ही परिवार की अन्य स्त्रियों की राजनीति की शिकार हो उम्र के किसी ना किसी दौर में ये सोचती जरूर है कि, “अपने जीवन की आहुति देकर उसे मिल क्या?” फिर चाहे वो “मुझे स्पेस चाहिए” की नेहा हो, दहेज की निधि हो, या “बलिदान की कथा” की निशा होl हालाँकि अततः सब अच्छाई के पक्ष में ही खड़ी होती हैं, क्योंकि अच्छा होना या बुरा होना मनुष्य की मूल प्रकृति है, और घर-परिवार की इस सुंदर दुनिया की नींव में इन्हीं स्त्रियों के दम पर हैl

कहानी “मुझे स्पेस चाहिए” की मूल कथा परिवार की दो स्त्रियों देवरानी और जेठानी के मध्य की हैl जो स्वार्थ और नासमझी से टूटते संयुक्त परिवार के दर्द को ले कर आगे बढ़ती है l पर मुझे इस दृष्टि से भी खास लगी क्योंकि यह कहानी देवर और भाभी के स्वस्थ दोस्ताना रिश्ते पर संदेह कि नजर पर सवाल उठाती हैl आज भी जब हम स्त्री पुरुष मित्रता की बात करते हैं तब भी घर के अंदर पनप रहे ऐसे सुंदर मित्रवत रिश्तों पर “दाल में कुछ काला है?” का तेजाबी प्रहार क्यों करते हैं? स्त्री का ये मित्रवत रिश्ता चाहे जीजा साली का हो, जेठ या देवर से हो, हमें घर के अंदर भी दोस्ती को संदेह के घेरों से मुक्त करना होगा l
एक लांछन जो आम तौर पर स्त्रियों पर लगता है कि वो ससुराल की इतना अपना नहीं समझतीं, सास हो या जेठानी/देवरानी की बात को माँ की डाँट समझ कर नहीं भूल जातीं l कहानी में एक स्थान पर नेहा अंतर्मन उसी का जवाब देता है l

“माता-पिता का तो दिल बड़ा होता है वो माफ कर देते हैंl भाई भी खून के रिश्ते के आगे कमजोर पड़ जाते हैंl पर मेरा तो दिल का रिश्ता था, जब दिल ही टूट गया तो जुड़ेगा कैसे?”

जिसे कोर्ट- कचहरी सिद्ध नहीं कर सकती, उसे स्त्री की संवेदनशील दृष्टि पकड़ लेती हैl कहानी पक्षपात एक लेखिका और उसे भाई का वार्तालाप हैl जहाँ भाई अपनी लेखिका बहन पर आरोप लगाता है कि वह स्त्रियों का ही पक्ष लेती हैl अपनी बात को सिद्ध करने के लिए वो कोर्ट का एक किस्सा सुनाता हैl जहाँ एक पत्नी अपने पति के नौकरी से निकाले जाने का बदला लेने के लिए उसके घर में काम करने आती हैl वो ना सिर्फ सबका विश्वास जीतती है बल्कि मालिक को अपने स्नेह-देह-पाश में बाँध भी लेती हैlबाद में न सिर्फ घर से पैसे लेकर भागती है बल्कि मालिक को रेप केस में भी फँसा देती और मालिक के पास भारी जुर्माना अदा करने के अतरिक्त कोई रास्ता नहीं रहता l बेचारा पुरुष के भाव से आगे बढ़ती कहानी अंत में लेखिका के संवेदनशील मन के एक प्रश्न पर स्त्री के पक्ष में आ खड़ी होती हैl
मैंने कहा, “वो तो ठीक है लेकिन इसमें भी तो आलाकमान पुरुष (ड्राइवर) ही है ना ? औरत (मालती) तो उसके हाथ की कठपुतली है जैसे नचाया वैसे नाची l”

इस एक वाक्य से भले ही भाई फिर से पक्षपात की बात कह कर बात खत्म कर देता है पर पाठक की संवेदनाएँ मालती से जुड़ जाती है, जो अपने पति द्वारा एक हथियार की तरह इस्तेमाल की गईl पर लेखिका ये फैसला पाठक की दृष्टि पर छोड़ देती हैं l

“पैरवीकार” कहानी एक उम्र गुजर जाने के बाद स्त्री के अपनी सपनों को पहचानने और उनके लिए संघर्ष करने की कहानी हैl इसमें लेखन से जुड़ी कई महिलाओं को अपना अक्स नजर आएगा l कहानी की नायिका घर के कामों से समय चुरा-चुरा कर लेखन करती हैl पर घर के लोग स्त्री की प्रतिभा के सहयात्री बनने की जगह उसे बात-बात पर ताने देते हैं कि कलम घिसने की जगह कोई और काम करतीं तो चार पैसे आतेl वो कितनी मुश्किल से इस संतुलन को साधती है इसकी एक बानगी देखिए…

“उसकी नजर सभागार की वॉल पर टँगी घड़ी पर पड़ी तो वो अचानक एक नायिका से आम गृहिणी बन गईl और जल्दी जल्दी घर भागी l रास्ते में उसके मन में यह भय सता रहा था कि अब तो निश्चित ही घर जाकर घर परिवार की खरी-खोंटी सुननी पड़ेगी, इसलिए वो रणक्षेत्र में जाते हुए योद्धा की तरह मन ही मन रणनीति तय करने लगीl”
प्रकाशन जगत की परते खोलती कहानी सकारात्मक अंत के साथ लेखन जगत में प्रवेश कर रहे युवा लेखकों को एक प्रेरणा भी देती हैl

संग्रह के नाम वाली कहानी “पूर्वा” एक शहीद की पत्नी के दर्द को उकेरती है, तो दोबारा सास द्वारा उस के जीवन को जी लेने के अधिकार की वकालत भी करती हैl यहाँ एक स्त्री दूसरी स्त्री की शक्ति बन कर उभरती हैl “बेरंग” उन रूढ़ियों की बात करती है, जिसका शिकार वो मासूम स्त्री है जिसका जीवन साथी उसे बीच राह में छोड़ उस पार चला गया हैl कहानी स्त्री मन के उस कोने को चीन्हती है जो रूढ़ियों को तोड़ बिंदी, चूड़ी धरण करने के बाद भी बेरंग ही रह जाता हैl
“दहेज” “बलिदान की कथा,”दोनों कहानियाँ परिजनों द्वारा स्त्री की इमोशनल ब्लैकमेलिंग कर अपना हित साध लेने की क्रूर कथा हैl पर स्त्री जानते बूझते हुए भी त्याग की उसी दिशा में आगे बढ़ जाती है, इस क्यों का उत्तर कहानी में हैl “अति सर्वत्र वर्जियेत” “शिक्षित होना जरूरी है” टूटते संयुक्त परिवार और अंधविश्वास का विरोध करती उल्लेखनीय कहानियाँ हैंl

कुल मिल कर 120 पेज में समाई संग्रह की बारह कहानियों कि धुरी बहले ही स्त्री जीवन हो पर ये हमारे पूरे समाज का आईना हैंl ये समाज के उन अवगुंठनों को खोलतीं है जिसका शिकार स्त्री जीवन बन गया है l लेकिन ये परिस्तिथियों से उलझते हुए पाठक के मन में एक सकारात्मकता बो देती हैं l

एक सार्थक संग्रह के लिए किरण सिंह जी को बहुत बहुत बधाई व शुभकामनाएँ

समीक्षक – वंदना वाजपेयी

लेखक – किरण सिंह

प्रकाशक – वनिका पब्लिकेशंस

मूल्य – 200 रूपये

पृष्ठ – 120 पेपर बैक

Poorva https://amzn.eu/d/dpjSggP

Advertisement

चारो धाम

चारो धाम 

वरिष्ठ नागरिकों की गोष्ठी चल रही थी। सभी अपने-अपने रिटायर्मेंट के बाद की जिंदगी जीने के अपने-अपने तरीके साझा कर रहे थे। 

रमेश बाबू बोले ” मैं देश – विदेश का भ्रमण कर समय का सदुपयोग करता हूँ ” 

सिद्धेश्वर बाबू ने कहा – “मैं तो समाज सेवा में अपना समय व्यतीत करता हूँ। 

अमरेंद्र बाबू ने कहा – मैं तो भजन कीर्तन और तीर्थ आदि करता हूँ। 

सुन्दर बाबू सभी की बातें सुन रहे थे तभी सबने कहा” आप भी अपनी सुनाइये सुन्दर बाबू ।” 

सुन्दर बाबू ने कहा – मुझे तो नौकरी वाली जिंदगी में बहुत ऐशो आराम मिला, कमी रह गई थी तो गाँव की सहज, सरल जीवन शैली तथा अपनेपन की इसलिए मैं तो रिटायर्मेंट के बाद अपना अधिकांश समय गांव पर बिताता हूँ जहाँ मुझे गंगा के किनारे कश्मीर की झील नज़र आती है तो खेतों में वहाँ की वादियाँ। वहाँ के मंदिर में चारो धाम और बड़े – बुजुर्गों में देव… । “

सुन्दर बाबू की बातें सुनकर वहाँ बैठे सभी लोग अचम्भित हो उनका मुंह ताकने लगे। 

तुम इन फूलों जैसी हो

अनिता  ससुराल में कदम रखते ही अपने व्यवहार से परिवार के सभी सदस्यों के दिलों पर राज करने लगी थी। इसलिए उसके दाम्पत्य की नींव और भी मजबूत होने लगी।

अजय की आमदनी काफी अच्छी थी और परिवार में सिर्फ वही कमाऊ था तो परिवार की अपेक्षाएं उससे काफी थी। जिसे वह पूरी इमानदारी और निष्ठा से निभाया। अजय के इस नेक काम में उसकी पत्नी अनिता भी सहयोग की जिससे परिवार तथा रिश्तेदार काफी खुश थे। इसीलिए बदले में उन दोनों को भी अपने परिवार तथा रिश्तेदारों से काफी मान सम्मान मिलता था।

लेकिन परिस्थितियां सदैव एक समान नहीं रहतीं। अजय का बिजनेस फ्लाप होने लगा जिसके कारण वह परिवार तथा रिश्तेदारों को  पहले जितना नहीं कर पाता था। धीरे-धीरे उसकी आर्थिक स्थिति का असर रिश्तों पर भी पड़ने लगा। जो रिश्तेदार उनकी प्रशंसा करते नहीं थकते वह अब उनकी शिकायतें करने लगे और गलतफहमी इतनी बढ़ी कि एक – एक करके रिश्ते दूर होते चले गये। 

आर्थिक तंगहाली में अजय ने अपनी जमीन बेचने का फैसला किया। जमीन बेचकर उसने आधे पैसों से कर्ज चुकता किया और आधे से डाउन पेमेंट करके बैंक से लोन लेकर एक छोटा सा फ्लैट खरीद लिया यह सोचकर कि घर का जितना किराया देंगे उतने में स्टालमेंट पे करेंगे । 

अजय और अनिता गृह प्रवेश में अपने रिश्तेदारों को भी आमंत्रित किये । लेकिन कुछ रिश्तेदार नाराज थे इसलिए उसके इस खुशी के मौके पर नहीं पहुंचे । नाराजगी इसलिये भी थी कि किसी को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि अजय वास्तव में तंगहाली में है। क्योंकि सभी को तो यही लग रहा था कि अजय झूठ बोल रहा है क्योंकि यदि  तंगहाली होती तो वह फ्लैट कैसे ले सकता था ।

रिश्तेदारों के ऐसे व्यवहार अजय तो दुखी हुआ ही अनिता भी बहुत आहत हुई और मन ही मन उसने निर्णय लिया  कि अब से वह भी उसके साथ जो जैसा व्यवहार करेगा उसके साथ वैसा ही बर्ताव करेगी । वह सोचती आखिर मैं ही क्यों अच्छी बनती फिरूँ? अब जब मैं भी उनकी खुशी में शामिल नहीं होऊंगी तो पता चलेगा। 

समय बीता और महीने दिन बाद उसी रिश्तेदार के बेटे के शादी का आमन्त्रण आया जो कि उनके गृह प्रवेश में नहीं आये थे । बदले की आग में उबलती अनिता ने अजय से कहा “हम नहीं जायेंगे शादी में, आखिर एकतरफा रिश्तों को हम ही क्यों निभाते रहें ?” 

कुछ हद तक अनिता भी बात तो सही ही कह रही थी इसीलिए अजय ने उस समय चुप रहना ही उचित समझा और पत्नी से चाय लाने के लिए कहकर अपने छत की छोटी सी बगिया में बैठ गया। 

अनिता ट्रे में दो कप  चाय और साथ में गर्मागर्म पकौड़े लेकर आई तो अजय ने उसकी तारीफ़ में एक शायरी पढ़ दी। 

अनिता अपने पति को अच्छी तरह से समझती थी इसीलिए पति को मीठी झिड़की देते हुए कहा – “अच्छा – अच्छा बड़ी रोमैंटिक हो रहे हो, साफ – साफ कहो न जो कहना है। ” 

अजय ने गमले में लगे हुए एक लाल गुलाब के फूल को उसके जूड़े में लगाते हुए कहा – “डार्लिंग इन गुलाबों को यदि मसल भी दिया जाये तो ये सुगन्ध फैलाना तो नहीं छोड़ते न? और देखो इन काँटों की फितरत को कि जिन्हें प्रयार से छुओ भी तो वे चुभेंगे ही। इसलिए हम अपना स्वभाव क्यों बदलें? 

तुम इन फूलों जैसी हो।

अजय की बातें सुनकर अनिता का चेहरा गुलाब के फूलों की तरह ही खिल गया। और वह विवाह में जाने की तैयारी करने लगी।

धीरे-धीरे

दिल के पन्ने पलटती रही धीरे-धीरे,
जिंदगी को समझती रही धीरे-धीरे।

जो थे खरगोश वे राहों में  सो गये।
मैं तो कछुए सी चलती रही धीरे-धीरे।

ख्वाब जिंदा रहें इसलिए आँखों में ,।
प्यार की नींद भरती रही धीरे-धीरे।

जिंदगी है बड़ी लाडली सुन्दरी,
पगली मैं उसपे मरती रही धीरे-धीरे ।

खुशी की घुंघरू बांधकर पाँवों में ,
जिंदगी फिर थिरकती रही धीरे-धीरे ।

पुरस्कार

कवयित्री रत्ना को लेखन का बहुत शौक था इसीलिए उनके मन में जो भी आता उसे लिख दिया करती थीं और सोशल मीडिया पर पोस्ट कर दिया करती थीं। शौक मन पर इतना हावी हो गया कि उसकी रचनाएँ पुस्तकों में संकलित होने लगीं। परिणामस्वरूप उसकी जमा – पूंजी पुस्तकें प्रकाशित करवाने में खर्च होने लगीं जिससे उसे कुछ आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ा और घर परिवार में भी आवाज़ उठने लगी कि पुस्तकें प्रकाशित करवारना फिजूलखर्ची के सिवा कुछ भी नहीं है। इस बात से रत्ना बहुत आहत हुई। वह मन ही मन सोच रही थी कि मुझसे तो अच्छी घर की काम वाली बाई है कम से कम वह तो अपने मन से अपनी कमाई खर्च तो कर सकती है। हम घरेलू औरतें चौबीसों घंटा घर परिवार में लगा देती हैं लेकिन उसका कोई मोल नहीं, यह सोचते – सोचते उसकी आँखों से आँसुओं की कुछ बूंदें गालों पर टपक गये। फिर रत्ना ने अपने आँसुओं को आँचल के कोरों से पोछते हुए मन ही मन निर्णय लिया कि अब से मैं इस फिजूलखर्ची में नहीं पड़ूंगी और घर के काम में व्यस्त हो गई।
तभी मोबाइल की घंटी बजी, मोबाइल पर किसी अन्जान का नम्बर था इसीलिए उसने थोड़ा झल्लाते हुए ही मोबाइल उठाया।
उधर से आवाज़ आई “आप रत्ना जी बोल रही हैं?”
रत्ना – “जी बोलिये क्या बात है?”
उधर से आवाज़ आई “जी मैं संवाददाता हिन्दुस्तान से बोल रहा हूँ, सबसे पहले तो हार्दिक बधाई।”
रत्ना – “बधाई…. किस बात की?”
आपको नहीं मालूम?आपको हिन्दी संस्थान से एक लाख रूपये पुरस्कार राशि की घोषणा हुई है।”
रत्ना -“क्या? हार्दिक धन्यावाद…….. अब रत्ना के गालों पर खुशी के आँसू छलक पड़े।
वह मन ही मन ईश्वर का आभार प्रकट करते हुए अपना निर्णय बदल लेती है और संवाददाता द्वारा पूछे गये प्रश्नों का उत्तर देती है।

बाढ़ आँखों की

बाढ़ आँखों की सपने बहा ले गई। 

दर्द देकर हमें हर दवा ले गई। 

रूह घायल पड़ी माँ की खूँ से सनी , 

मौत गठरी दुआ की उठा ले गई। 

लाख पहरा बिठाये रखी जिंदगी, 

चोरनी आके सांसे चुरा ले गई।

रात काली थी तो सो गई जिंदगी, 

नींद सांसों की लड़ियाँ छुड़ा ले गई। 

जाने किसकी लगी है नज़र जिंदगी , 

आज हमको कहाँ से कहाँ ले गई। 

सुन सकी आंधियों की न आहट किरण, 

आशियां मेरी आके उड़ा ले गई।

पर्दाफाश

पर्दाफाश 

एक विशिष्ट सम्मान के लिए रेणुका जी के नाम की घोषणा होते ही संस्था के सभी सदस्य आपस में कानाफूसी करने लगे। 

आज रेणुका जी के ग्रुप में दिये गये उस मैसेज की गुत्थी सुलझने लगी। 

उनका मैसेज था – 

“फिलहाल मेरी नीजी व्यस्तता बहुत अधिक है अतः मैं कार्यकारिणी से स्तीफा तो दे रही हूँ, मगर मैं इस संस्था में अपनी सेवा पूर्ववत देती रहूंगी” रेनुका जी का  मैसेज देखकर ग्रुप में हलचल मच गयी ।

आखिर इतनी सक्रिय सदस्य की ऐसी कौन सी मजबूरी आ पड़ी है कि उन्हें यह निर्णय लेना पड़ा और जब सेवा देती ही रहेंगी तो फिर व्यस्तता कैसी? सभी अपने-अपने सोच के अनुसार अनुमान लगाने लगे  थे।कुछ सदस्य तो रेणुका जी के महानता की गाथा तक गाने लगे थे। 

किन्तु आज कानाफूसी के बाद उस मैसेज के राज़ का पर्दाफाश हो ही गया। 

दरअसल  संस्था का नियम है कि कार्यकारिणी की सदस्य या पदाधिकारियों का नाम पुरस्कार के लिए चयनित नहीं होगा। 

होली की हुड़दंग

ऋतु फागुन में घोल – घोल रंग ।
करुंगी हुड़दंग री सखि।

साँसें छेड़ रही हैं सरगम
पायल संग – संग बाजे छम – छम
हुआ जाये मेरा मन मतंग
करुंगी हुड़दंग री सखि

महकी – महकी है अंगड़ाई
बदली – बदली है पुरवाई
बदल लूंगी मैं अपना भी ढंग
करुंगी हुड़दंग री सखि

सावन से लेकर हरियाली
टेसू से माँगूंगी लाली
लगाके रंग बसंती को अंग
करुंगी हुड़दंग री सखि

लेकर सरसों से रंग पीला
और गगन से थोड़ा नीला
सागर से चुरा के तरंग
करुंगी हुड़दंग री सखि।

मस्ती में कर के करताली
दूंगी मैं चुन – चुन कर गाली
अब किसी ने किया जो मुझे तंग
करुंगी हुड़दंग री सखि

अक्षर – अक्षर तोल – मोल कर
शब्दों में रस प्रेम घोलकर
भर कर के मैं भावों का भंग
करुंगी हुड़दंग री सखि

सप्रेम भेंट

फेसबुक पर लेखिका, समीक्षक मीनाक्षी जी के द्वारा की गई एक पुस्तक की समीक्षा पढ़ते हुए दीक्षा के मन में आ रहा था कि अभी पुस्तक आर्डर कर दें । वह खुद भी भी बहुत अच्छी कवयित्री, लेखिका व समीक्षक थी।

तभी अचानक मोबाइल पर मीनाक्षी जी का काॅल आ गया।

” अरे मैं आपकी लिखी समीक्षा पर टिप्पणी कर ही रही थी, वाकई आपकी लिखी समीक्षा का कोई जोड़ नहीं, ऐसी ही समीक्षा होनी चाहिए कि किसी का भी पुस्तक पढ़ने के लिए मन हो जाये। अभी देखिये न मैं  पुस्तक ही आर्डर करने जा रही थी ।” दीक्षा ने मीनाक्षी जी की तारीफ़ करते हुए कहा।

” अरे नहीं मत मंगाइये, पुस्तक में कुछ खास नहीं है आपका पैसा व समय दोनों ही जाया होगा। “मीनाक्षी जी ने कहा।” 

दीक्षा ” फिर आपने इतनी अच्छी समीक्षा क्यों लिखी?” 

मीनाक्षी ” कभी-कभी लोग इतने प्यार से कहते हैं कि इन्कार नहीं किया जा सकता। “

इस प्रकार बातों-बातों में दीक्षा ने उनके द्वारा समीक्षा की गई और भी बड़ी – बड़ी लेखिकाओं, कवयित्रियों की पुस्तकों के बारे में पूछा तो मीनाक्षी जी ने सभी के बारे में कुछ न कुछ नकारात्मक बातें बताकर पुस्तक खरीदने के लिए मना कर दिया। 

तभी दरवाजे की घंटी बजी और दीक्षा ने दरवाजा खोला तो देखा डाकिया एक पार्सल लेकर आया है। पार्सल भेजने वाले का नाम पढ़ते ही दीक्षा कौतूहलवश मीनाक्षी का काॅल काटकर जल्दी – जल्दी पार्सल खोलने लगी तो देखी कि पार्सल के अंदर वही पुस्तक है जिसकी वह समीक्षा पढ़ रही थी। पुस्तक को लेखिका ने सप्रेम भेट किया था। 

चूंकि मीनाक्षी जी ने उस पुस्तक की आलोचना कर दी थी इसीलिए वह पुस्तक पढ़ने के लिए और भी उत्सुक हो गई कि आखिर पुस्तक है कैसी? 

जब दीक्षा उस पुस्तक को पढ़ने लगी तो पढ़ती ही चली गई क्योंकि पुस्तक का कथानक, प्रवाह, कौतूहल प्रचुर मात्रा में था। लेखन शैली भी उत्कृष्ट थी। 

पुस्तक पढ़ने के बाद दीक्षा के मन में बार – बार यह प्रश्न उठ रहा था कि आखिर मीनाक्षी जी ने पुस्तक की शिकायत की क्यों? 

फिर कुछ सोचते हुए उसने वो सभी पुस्तकें आर्डर कर दिया जिसके लिए मीनाक्षी जी ने लेने से मना किया था।

कहाँ गये वे दिवस

कहाँ गये वे दिवस सखी री , कहाँ गईं अब वे रातें।

झगड़ा – रगड़ा, हँसी ठिठोली, वह मीठी – मीठी बातें।

दादी की उस कथा – कहानी में रहते राजा – रानी ।

रातों में सुनते थे पर दिन में करते थे मनमानी।

भीग रहे थे हम मस्ती में, जब होती थी बरसातें।

कहाँ गये वे दिवस सखी री………………………

पूछा करते थे कागा से, अतिथि कौन आयेगा कह।

पवन देवता से करते थे , मिन्नत की जल्दी से बह।

रात चाँदनी बाँट रही थी, छत पर सबको सौगातें।

कहाँ गये वे दिवस सखी री………………………

रिश्तों में तब था अपनापन, सब अपने से लगते थे ।

बिना दिखावा के मिलजुलकर, हम आपस मे रहते थे।

मन था हम सबका ही निश्छल, कोमल थी हर जज्बातें।

कहाँ गये वे दिवस सखी री………………………

छत पर हम तारे गिन – गिनकर, सपनो में रंग भरते थे।

संग हमारे अपने थे तो , नहीं किसी से डरते थे।

विकट घड़ी में भी रहते थे, तब हम सब हँसते गाते।

कहाँ गये वे दिवस सखी री………………………

चौखंडी आँगन में तुलसी, लहरा कर अपना आँचल।

बुरी बला को दूर भगाकर, भर देती थी हममे बल।

शायद इसी वजह से हम तब, नहीं बेवजह घबराते।

कहाँ गये वे दिवस सखी री………………………

दिवाली के बाद दियों को, तुला बनाकर हम खेले । 

पता नहीं क्यों याद आ रहे, बचपन वाले वे मेले। 

मिट्टी के वे खेल – खिलौने तोल – मोल कर  ले आते। 

कहाँ गये वे दिवस सखी री……………………… 

आइस – बाइस कित – कित गोटी, खेल हमारे होते थे। 

बातें करते – करते छत पर, निश्चिंत हो सोते थे। 

मीठे – मीठे सपने आकर, मन हम सबका बहलाते। 

कहाँ गये वे दिवस सखी री……………