कहाँ गये वे दिवस सखी री , कहाँ गईं अब वे रातें।
झगड़ा – रगड़ा, हँसी ठिठोली, वह मीठी – मीठी बातें।
दादी की उस कथा – कहानी में रहते राजा – रानी ।
रातों में सुनते थे पर दिन में करते थे मनमानी।
भीग रहे थे हम मस्ती में, जब होती थी बरसातें।
कहाँ गये वे दिवस सखी री………………………
पूछा करते थे कागा से, अतिथि कौन आयेगा कह।
पवन देवता से करते थे , मिन्नत की जल्दी से बह।
रात चाँदनी बाँट रही थी, छत पर सबको सौगातें।
कहाँ गये वे दिवस सखी री………………………
रिश्तों में तब था अपनापन, सब अपने से लगते थे ।
बिना दिखावा के मिलजुलकर, हम आपस मे रहते थे।
मन था हम सबका ही निश्छल, कोमल थी हर जज्बातें।
कहाँ गये वे दिवस सखी री………………………
छत पर हम तारे गिन – गिनकर, सपनो में रंग भरते थे।
संग हमारे अपने थे तो , नहीं किसी से डरते थे।
विकट घड़ी में भी रहते थे, तब हम सब हँसते गाते।
कहाँ गये वे दिवस सखी री………………………
चौखंडी आँगन में तुलसी, लहरा कर अपना आँचल।
बुरी बला को दूर भगाकर, भर देती थी हममे बल।
शायद इसी वजह से हम तब, नहीं बेवजह घबराते।
कहाँ गये वे दिवस सखी री………………………
दिवाली के बाद दियों को, तुला बनाकर हम खेले ।
पता नहीं क्यों याद आ रहे, बचपन वाले वे मेले।
मिट्टी के वे खेल – खिलौने तोल – मोल कर ले आते।
कहाँ गये वे दिवस सखी री………………………
आइस – बाइस कित – कित गोटी, खेल हमारे होते थे।
बातें करते – करते छत पर, निश्चिंत हो सोते थे।
मीठे – मीठे सपने आकर, मन हम सबका बहलाते।
कहाँ गये वे दिवस सखी री……………