चारो धाम

चारो धाम 

वरिष्ठ नागरिकों की गोष्ठी चल रही थी। सभी अपने-अपने रिटायर्मेंट के बाद की जिंदगी जीने के अपने-अपने तरीके साझा कर रहे थे। 

रमेश बाबू बोले ” मैं देश – विदेश का भ्रमण कर समय का सदुपयोग करता हूँ ” 

सिद्धेश्वर बाबू ने कहा – “मैं तो समाज सेवा में अपना समय व्यतीत करता हूँ। 

अमरेंद्र बाबू ने कहा – मैं तो भजन कीर्तन और तीर्थ आदि करता हूँ। 

सुन्दर बाबू सभी की बातें सुन रहे थे तभी सबने कहा” आप भी अपनी सुनाइये सुन्दर बाबू ।” 

सुन्दर बाबू ने कहा – मुझे तो नौकरी वाली जिंदगी में बहुत ऐशो आराम मिला, कमी रह गई थी तो गाँव की सहज, सरल जीवन शैली तथा अपनेपन की इसलिए मैं तो रिटायर्मेंट के बाद अपना अधिकांश समय गांव पर बिताता हूँ जहाँ मुझे गंगा के किनारे कश्मीर की झील नज़र आती है तो खेतों में वहाँ की वादियाँ। वहाँ के मंदिर में चारो धाम और बड़े – बुजुर्गों में देव… । “

सुन्दर बाबू की बातें सुनकर वहाँ बैठे सभी लोग अचम्भित हो उनका मुंह ताकने लगे। 

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पुरस्कार

कवयित्री रत्ना को लेखन का बहुत शौक था इसीलिए उनके मन में जो भी आता उसे लिख दिया करती थीं और सोशल मीडिया पर पोस्ट कर दिया करती थीं। शौक मन पर इतना हावी हो गया कि उसकी रचनाएँ पुस्तकों में संकलित होने लगीं। परिणामस्वरूप उसकी जमा – पूंजी पुस्तकें प्रकाशित करवाने में खर्च होने लगीं जिससे उसे कुछ आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ा और घर परिवार में भी आवाज़ उठने लगी कि पुस्तकें प्रकाशित करवारना फिजूलखर्ची के सिवा कुछ भी नहीं है। इस बात से रत्ना बहुत आहत हुई। वह मन ही मन सोच रही थी कि मुझसे तो अच्छी घर की काम वाली बाई है कम से कम वह तो अपने मन से अपनी कमाई खर्च तो कर सकती है। हम घरेलू औरतें चौबीसों घंटा घर परिवार में लगा देती हैं लेकिन उसका कोई मोल नहीं, यह सोचते – सोचते उसकी आँखों से आँसुओं की कुछ बूंदें गालों पर टपक गये। फिर रत्ना ने अपने आँसुओं को आँचल के कोरों से पोछते हुए मन ही मन निर्णय लिया कि अब से मैं इस फिजूलखर्ची में नहीं पड़ूंगी और घर के काम में व्यस्त हो गई।
तभी मोबाइल की घंटी बजी, मोबाइल पर किसी अन्जान का नम्बर था इसीलिए उसने थोड़ा झल्लाते हुए ही मोबाइल उठाया।
उधर से आवाज़ आई “आप रत्ना जी बोल रही हैं?”
रत्ना – “जी बोलिये क्या बात है?”
उधर से आवाज़ आई “जी मैं संवाददाता हिन्दुस्तान से बोल रहा हूँ, सबसे पहले तो हार्दिक बधाई।”
रत्ना – “बधाई…. किस बात की?”
आपको नहीं मालूम?आपको हिन्दी संस्थान से एक लाख रूपये पुरस्कार राशि की घोषणा हुई है।”
रत्ना -“क्या? हार्दिक धन्यावाद…….. अब रत्ना के गालों पर खुशी के आँसू छलक पड़े।
वह मन ही मन ईश्वर का आभार प्रकट करते हुए अपना निर्णय बदल लेती है और संवाददाता द्वारा पूछे गये प्रश्नों का उत्तर देती है।

पर्दाफाश

पर्दाफाश 

एक विशिष्ट सम्मान के लिए रेणुका जी के नाम की घोषणा होते ही संस्था के सभी सदस्य आपस में कानाफूसी करने लगे। 

आज रेणुका जी के ग्रुप में दिये गये उस मैसेज की गुत्थी सुलझने लगी। 

उनका मैसेज था – 

“फिलहाल मेरी नीजी व्यस्तता बहुत अधिक है अतः मैं कार्यकारिणी से स्तीफा तो दे रही हूँ, मगर मैं इस संस्था में अपनी सेवा पूर्ववत देती रहूंगी” रेनुका जी का  मैसेज देखकर ग्रुप में हलचल मच गयी ।

आखिर इतनी सक्रिय सदस्य की ऐसी कौन सी मजबूरी आ पड़ी है कि उन्हें यह निर्णय लेना पड़ा और जब सेवा देती ही रहेंगी तो फिर व्यस्तता कैसी? सभी अपने-अपने सोच के अनुसार अनुमान लगाने लगे  थे।कुछ सदस्य तो रेणुका जी के महानता की गाथा तक गाने लगे थे। 

किन्तु आज कानाफूसी के बाद उस मैसेज के राज़ का पर्दाफाश हो ही गया। 

दरअसल  संस्था का नियम है कि कार्यकारिणी की सदस्य या पदाधिकारियों का नाम पुरस्कार के लिए चयनित नहीं होगा। 

सप्रेम भेंट

फेसबुक पर लेखिका, समीक्षक मीनाक्षी जी के द्वारा की गई एक पुस्तक की समीक्षा पढ़ते हुए दीक्षा के मन में आ रहा था कि अभी पुस्तक आर्डर कर दें । वह खुद भी भी बहुत अच्छी कवयित्री, लेखिका व समीक्षक थी।

तभी अचानक मोबाइल पर मीनाक्षी जी का काॅल आ गया।

” अरे मैं आपकी लिखी समीक्षा पर टिप्पणी कर ही रही थी, वाकई आपकी लिखी समीक्षा का कोई जोड़ नहीं, ऐसी ही समीक्षा होनी चाहिए कि किसी का भी पुस्तक पढ़ने के लिए मन हो जाये। अभी देखिये न मैं  पुस्तक ही आर्डर करने जा रही थी ।” दीक्षा ने मीनाक्षी जी की तारीफ़ करते हुए कहा।

” अरे नहीं मत मंगाइये, पुस्तक में कुछ खास नहीं है आपका पैसा व समय दोनों ही जाया होगा। “मीनाक्षी जी ने कहा।” 

दीक्षा ” फिर आपने इतनी अच्छी समीक्षा क्यों लिखी?” 

मीनाक्षी ” कभी-कभी लोग इतने प्यार से कहते हैं कि इन्कार नहीं किया जा सकता। “

इस प्रकार बातों-बातों में दीक्षा ने उनके द्वारा समीक्षा की गई और भी बड़ी – बड़ी लेखिकाओं, कवयित्रियों की पुस्तकों के बारे में पूछा तो मीनाक्षी जी ने सभी के बारे में कुछ न कुछ नकारात्मक बातें बताकर पुस्तक खरीदने के लिए मना कर दिया। 

तभी दरवाजे की घंटी बजी और दीक्षा ने दरवाजा खोला तो देखा डाकिया एक पार्सल लेकर आया है। पार्सल भेजने वाले का नाम पढ़ते ही दीक्षा कौतूहलवश मीनाक्षी का काॅल काटकर जल्दी – जल्दी पार्सल खोलने लगी तो देखी कि पार्सल के अंदर वही पुस्तक है जिसकी वह समीक्षा पढ़ रही थी। पुस्तक को लेखिका ने सप्रेम भेट किया था। 

चूंकि मीनाक्षी जी ने उस पुस्तक की आलोचना कर दी थी इसीलिए वह पुस्तक पढ़ने के लिए और भी उत्सुक हो गई कि आखिर पुस्तक है कैसी? 

जब दीक्षा उस पुस्तक को पढ़ने लगी तो पढ़ती ही चली गई क्योंकि पुस्तक का कथानक, प्रवाह, कौतूहल प्रचुर मात्रा में था। लेखन शैली भी उत्कृष्ट थी। 

पुस्तक पढ़ने के बाद दीक्षा के मन में बार – बार यह प्रश्न उठ रहा था कि आखिर मीनाक्षी जी ने पुस्तक की शिकायत की क्यों? 

फिर कुछ सोचते हुए उसने वो सभी पुस्तकें आर्डर कर दिया जिसके लिए मीनाक्षी जी ने लेने से मना किया था।

मुस्कान

“इस ईयर एण्ड पर हम मुंबई चल रहे हैं ” कहते हुए जैसे ही नितेश ने रीमा के हाथों में एयर टिकट पकड़ाया रीमा मारे खुशी के उछल पड़ी और नितेश के गले लगते हुए कहा ”  यू आर बेस्ट हसबैंड इन द वर्ल्ड” फिर नितेश ने शरारत भरे अंदाज़ में उसकी तरफ़ देखते हुए पूछा – “रियली?” उसे देख रीमा का चेहरा लाल हो उठा।  

अगले दिन यात्रा की तैयारी शुरू हो गई। रीमा अपना बैग पैक करते हुए खूबसूरत कल्पनाओं में डूबने लगी । 
जिस रोज उन दोनों को मुंबई के लिए निकलना था उसके एक रात पूर्व नितेश की मम्मी  की तबीयत अचानक बिगड़ गयी। सास की हालत देख रीमा भी परेशान थी पर मन ही मन दुखी हो रही थी  कि एक तो इतने दिनों बाद घर से निकलने का मौका मिला उसमें भी…… फिर वह अपने किस्मत को कोसते हुए पैकिंग बैग खोलकर वार्डरोब में रखने लगी तभी नितेश ने उसे टोका “पैकिंग क्यों खोल रही हो?” 

रीमा ने कहा “ऐसी हालत में माँ जी को छोड़ कर जाना ठीक लगेगा क्या?” रीमा ने मायुसी से कहा “

” छोड़ कर नहीं साथ में लेकर जायेंगे माँ को ”  मैंने डाॅक्टर से बात कर ली है और मुंबई के एक प्रसिद्ध हाॅस्पिटल  में माँ के इलाज के लिए उनसे रेफरेंस लेटर भी लिखवा लिया है” – नितेश ने कहा ।

रीमा सोचने लगी अस्पताल में माँ जी अकेली थोड़े न रहेंगी। उनके साथ तो किसी न किसी को रहना ही पड़ेगा।

मुंबई पहुंच कर नितेश और रीमा ने श्यामा को डाॅक्टर से दिखाया तो उन्होंने  हफ्ते भर बाद ऐडमिट लेने के लिए कहा। 
जब वे लोग वहाँ से बाहर जाने लगे तभी करीब पचास – पचपन वर्ष के व्यक्ति आकर श्यामा का चरण स्पर्श किया ।  नितेश ने सरप्राइज होकर कहा  “अरे मामा जी आप यहाँ …..?” 
उनकी बात के बीच में ही श्यामा ने कहा “हाँ बेटा मैंने ही बुलवा लिया है। इतने दिनों के बाद तो तुम दोनों को एक-दूसरे के साथ वक्त गुजारने का मौका मिला है वो भी मेरी वजह से बर्बाद हो जाये यह मैं नहीं चाहती थी ” तुम दोनो अपने प्लान के हिसाब से घूमो – फिरो, मेरा भाई मेरे साथ रहेगा। “
सास की समझदारी ने रीमा के नजरों में उनका सम्मान दोगुना कर दिया और उसके होठों पर मुस्कान खिल गई।

ईश्वर का रूप

हमेशा औरों की मदद करने वाली धार्मिक प्रवृत्ति की मनोरमा की आँखें, स्वयं ही मदद की गुहार लगाती हुई याचक की तरह टकटकी लगाये हुए थी कि कोई भी कोविड से बेहाल उसके पति के लिए बेड की व्यवस्था कर दे। लेकिन कोविड मरीजों की भीड़ इतनी ज्यादा थी की वह अपने नम्बर की प्रतीक्षा में परेशान हुए जा रही थी। वह बार-बार कभी हास्पिटल के कर्मचारियों से गुजारिश कर रही थी तो कभी ईश्वर का स्मरण कर रही थी, लेकिन इस विकट घड़ी में उसका गुहार कोई भी नहीं सुन रहा था। वह मन ही मन सोच रही थी कि बड़े बुजुर्ग हमेशा कहते हैं कि किसी की मदद यदि तुम करते हो तो तुम्हारी मदद भगवान करेंगे। लेकिन “कहाँ हैं भगवान?” उसका विश्वास ईश्वर पर से उठने लगा था।
उसे लगने लगा था कि भगवान भी पैरवी और पैसे वालों की ही सुनते हैं। तभी तो खादी धारी नेताओं तथा वर्दीधारियों के लिए हल्के सर्दी-जुकाम में भी तुरंत वी आई पी इंतजाम हो जाता है और आम आदमी की कोई सुनने वाला नहीं है। उसके पति की तेज चलती हुई सांसे उसकी धड़कने तेज कर रही थीं। उसके मन में बुरे – बुरे खयालात आने लगे थे । अब उसे ईश्वर के प्रार्थना में भी मन नहीं लग रहा था।
तभी हास्पिटल का कर्मचारी आकर बोला कि एक बेड खाली है और वह उसके आगे वाले व्यक्ति जो कि करीब अस्सी वर्ष के होंगे को अंदर आने के लिए कहा।
मनोरमा ने कर्मचारी से पूछा – “मेरे पेशेंट का नम्बर कब आयेगा”? देखिये मेरे पति की तबियत लगातार बिगड़ती जा रही है। कुछ तो करिये।
कर्मचारी – ” जबतक कोई बेड नहीं खाली हो जाता है मैं कुछ भी नहीं कर सकता हूँ मैडम”।
मनोरमा मिन्नतें कर रही थी लेकिन कोई सुनवाई नहीं हो रही थी। अन्ततः वह हारकर ईश्वर को याद करने लगी। उसके आँखों से आँसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। तभी उसके आगे वाले अस्सी वर्षीय वृद्ध ने हास्पिटल के कर्मचारी से कहा मुझसे अधिक इस महिला के पेशेंट को बेड की आवश्यकता है। मेरा क्या मैं तो अपनी जिंदगी जी चुका हूँ अभी इस बेचारी औरत के पति की उम्र पैंतालीस से पचास वर्ष की है। इसके बीवी – बच्चे हैं इसलिए इसकी जिंदगी मुझसे अधिक महत्वपूर्ण है।मेरे बदले इसको बेड दे दो। हास्पिटल कर्मचारी उस वृद्ध को अचम्भित होकर देखने लगा और मनोरमा ने उनके दोनो चरण पकड़ लिया। उसे लग रहा था जैसे मानव रूप में स्वयं ईश्वर उसकी गुहार सुनकर मदद करने के लिए आ गये हों।
हास्पिटल का कर्मचारी उस वृद्ध से कागज पर कुछ औपचारिक हस्ताक्षर करवाकर मनोरमा के पति को अंदर आने का इशारा करता है।

छोटी सी बात

अपने बाॅस के रवैये से नाखुश होकर महेश बाबू दफ्तर से छुट्टी लेकर घर बैठ गये। परिणाम स्वरूप उनका वेतन कटने लगा। कुछ दिनों तक तो जमा – पूंजी से घर खर्च मैनेज होता रहा, लेकिन कुछ समय के बाद दिक्कत होने लगी। महेश बाबू के मित्रों तथा परिजनों ने उन्हें समझाने की बहुत कोशिश की लेकिन वह किसी की भी सुनते ही नहीं थे।
पति की जिद के सामने मीना की भी एक न चलती थी इसलिए मीना ने सब ईश्वर पर छोड़ दिया।
मीना की चाहे कितनी भी व्यस्तता क्यों न हो, वह प्रतिदिन सांझ को भगवान के सामने दीया जलाना नहीं भूलती थी। एकदिन ऐसे ही शाम को दीया जला रही थी और उसका बारह वर्षीय बेटा गोलू उससे नाश्ता मांगने लगा, मीना ने उससे कहा “थोड़ी देर और रुक जा मैं भगवान के आगे दीया जला लूँ, फिर तुझे नाश्ता देती हूँ”।
गोलू ने कौतूहल वश अपनी माँ से पूछा.. ‘ मम्मी आप ये रोज शाम को लक्ष्मी जी को दीया क्यों जलाती हैं.”.?
मीना बोली -” बेटा ऐसा करने से लक्ष्मी जी प्रसन्न होती हैं और घर में सुख समृद्धि आती है। गोलू इस बात से सहमत नहीं हुआ और बोला – मम्मी घर में सुख समृद्धि लक्ष्मी जी के आगे दीया जलाने से नहीं आयेगी , वो तो पापा के दफ्तर जाने से आयेगी।आप ही तो कहती हैं कि कर्म ही पूजा है। यह सुनकर मीना कुछ न कह स्की और चुपचाप दीया जलाकर रसोई में गोलू के लिए नाश्ता निकालने चली गई।
अगली सुबह जब मीना महेश बाबू को चाय देने उनके कमरे में गई तो तो देखा महेश बाबू दफ्तर जाने के लिए तैयार हो रहे हैं। उन्होंने मीना को जल्दी से नाश्ता निकालने को कहा।
मीना के होठों पर विजयी मुस्कान खिल गयी। वह मन ही मन सोचने लगी कि महेश जी को जो बात मैं तथा बड़े – बुजुर्ग भी नहीं समझा पाये उन्हे उनके छोटे से बेटे ने समझा दिया ।

रिकवरी रूम में वेलेंटाइन डे

स्ट्रेचर पर लेटकर ऑपरेशन थियेटर की तरफ जाते हुए रीमा को लग रहा था कि जल्लाद रुपी परिचारिकाएँ उसे फांसी के तख्ते तक ले जा रही हैं, हृदय की धड़कने और भी तेजी से धड़क रही थीं। वह मन ही मन सोंच रही थी कि शायद यह मेरे जीवन का अन्तिम दिन है इसलिए वह जी भर कर देखना चाहती थी दुनिया को। पर नजरें नहीं मिला पा रही थी परिजनों से कि कहीं उसकी आँखें छलक कर उसकी पोल न खोल दें। क्योंकि वह अपने परिजनों के सामने  खुद को बिलकुल निर्भीक दिखाने का अभिनय कर रही थी!परिचारिकाएं ऑपरेशन थियेटर के दरवाजे के सामने स्ट्रेचर रोक दीं . और तभी किसी यमदूत की तरह डाक्टर आ गये .. स्ट्रेचर के साथ साथ डॉक्टर  उसके साथ चल रहे थे। चलते चलते वे अपनी बातों में उलझाने लगे थे ।  और फिर उसे आॅपरेशन थियेटर में ले गये। वहाँ डाॅक्टर ने रीमा को बातों ही बातों में उलझाकर बेहोशी का इंजेक्शन दे दिया ! करीब ३६ घंटे बाद १४ फरवरी को उसकी आँखें रुक – रुक कर खुल रही थी ..! आँखें खुलते ही  सामने अपने पति को देख उसे विश्वास नहीं हो पा रहा था कि वह जीवित है या कि  स्वप्न देख रही है। इसलिए वह अपने पति की तरफ अपना हाँथ बढ़ाया। जब उसके पति ने उसका हाथ पकड़ा तब उसे विश्वास हुआ कि वह सचमुच जीवित है ! उस समय उसे अपनी जिन्दगी और भी खूबसूरत लगने लगी थी। वह हास्पीटल के रिकवरी रूम का वेलेंटाइन डे सबसे खूबसूरत दिन लग रहा था..!

नतमस्तक

मुकुल – मम्मा लाॅकडाउन में तो घर पर रह कर मेरी दो महीने की करीब – करीब पूरी सैलरी बच गई, अब इलेक्ट्रॉनिक्स दुकाने खुल गई हैं मैं आज ही जाकर डिस वाशर और अच्छा वाला वैक्यूम क्लीनर लाता हूँ ताकि आइंदा से आपको इतनी परेशानी न हो।शालिनी – नहीं – नहीं कोई जरूरत नहीं है तुम अपने पैसे बचाकर रखो।
मुकुल – ओह मम्मा आप भी न…. इस पीरियड में आपको कितनी परेशानी हुई क्या मैंने नहीं देखा आप भी न केवल पैसे बचाओ – पैसे बचाओ कहती रहती हैं। अभी तो मेरे जाॅब की शुरुआत है आगे बहुत पैसे कमा लूंगा और वैसे भी जाॅब के बाद मुझे तो आपको गिफ्ट देना ही था तो यही सही.. अब मना मत कीजिये।
शालिनी फिर से नहीं मुकुल बिल्कुल भी नहीं खरीदो क्योंकि मुझे कुछ खास परेशानी नहीं हुई। सच तो यह है कि मैं अब  ज्यादा ही फिटनेस महसूस कर रही हूँ । मैं एक्सरसाइज कर- कर के तथा टहल – टहल कर थक गई थी लेकिन वजन नहीं कम हुआ और देखो तो इन दो महीनों में झाड़ू पोछा बर्तन करके मेरे वजन कम हो गये – साथ ही आत्मविश्वास भी बढ़ा कि मैं अब अपना काम खुद  कर सकती हूँ।
और इसके अलावा सोचो तो जो बीस वर्ष से शीलाबाई मेरा काम कर रही है उसे काम से कैसे हटा दूँ ?
माँ की बातें सुनकर मुकुल अपनी माँ के सम्मुख नतमस्तक हो गया।

बड़े लोगों का दिल

लाॅकडाउन में अपने दरवाजे के बाहर अपनी मालकिन के बेटे मोहित को देख शीला बाई कुछ घबराई हुई सी खाना छोड़कर झटपट बाहर निकलती और पूछा क्या बात है भैया मालकिन की तबियत तो ठीक है न? मुझे उनकी ही चिंता लगी रहती है कि जो मैडम एक कप भी नहीं धोती थीं वह घर का सारा काम कैसे कर रही होंगी। शीला बाई के स्वर में वाकई चिंता झलक रही थी।

आप चिंता न करें भैया मैं छुप छुपाकर किसी भी तरह आकर मैडम का काम कर दिया करूंगी।
मोहित बोला कोई जरूरत नहीं है अपनी और हम सबों की जान जोखिम में डालकर आने की। सरकार यूँ ही थोड़े न लाॅकडाउन की हुई है। और हाँ अगर सुन लिया न कि इस बीच किसी के यहाँ भी काम करने गई तो फिर मेरे यहाँ का काम छोड़ देना।
मोहित की बात सुनकर शीलाबाई कुछ रुआँसी सी हो गयी और मन ही मन सोचने लगी कि यह अमीर लोग गरीबों का दुख कैसे समझ सकेंगे भला। कहावत सच ही है जाकी पाँव फटी न बिवाई वो क्या जाने पीर पराई। उनके स्टोर में तो राशन भरा पड़ा होगा। फिर वो हमारा दुख क्या समझेंगे कि हम एक दिन काम नहीं करेंगे तो अगले दिन खायेंगे क्या..?
तभी मोहित अपनी जेब से कुछ रुपये निकाल कर शीलाबाई को देते हुए बोला लो यह पिछले महीने का तनख्वाह और इस महीने का एडवांस मम्मी भिजवाई हैं। जाकर राशन खरीद कर रख लेना । लाॅकडाउन बढ़ भी सकता है और यदि किसी भी तरह की मदद की जरूरत होगी तो काॅल कर लेना।
शीलाबाई अचम्भित मोहित का मुह ताकते रह गई और सोचने लगी कि गलत कहते हैं कि बड़े लोगों का दिल बड़ा नहीं होता।

©किरण सिंह