रूल

कई बार ऐसा होता है जब हम छोटी-छोटी बातों से नाराज होकर एक-दूसरे से बातचीत करना बंद कर देते हैं। ऐसा करना किसी भी स्थिति में ठीक नहीं है….
हम अपने नजदीकी लोगों से भी तब संवाद करने से जी चुराने लगते हैं जब किसी बात को लेकर मन खिंच जाता है। परिवार या मित्रता में ऐसी स्थिति का पैदा होना सद्भावना तथा प्रेम के लिहाज से घातक है। न सिर्फ़ रिश्तों में कड़वाहट घुलने लगती है, बल्कि संवादहीनता के कारण गलतफहमियाँ दूर भी नहीं होती हैं। कई बार ऐसा होता है कि हमारा मन तो करता है कि किसी भी तरह से बातचीत शुरू हो, लेकिन दोनों में से कोई पहल करना नहीं चाहता है।

ऐसी ही एक घटना याद आ रही है। बात उन दिनों की है जब मेरा बड़ा बेटा ऋषि करीब बारह वर्ष का था और  छोटा बेटा आर्षी करीब छः वर्ष का। एकदिन किसी बात को लेकर दोनों भाई की आपस में लड़ाई हो गई तो मेरा छोटा बेटा आर्षी रोते हुए मुझसे अपने बड़े भाई ऋषि की शिकायत की। उसके बाद मैं भी झुंझलाकर ऋषि को डांट दी । फिर तो इस बात से नाराज होकर ऋषि ने आर्षी से बात करना बंद कर दिया। आर्षी अपने बड़े भाई ऋषि को  मनाने का भरसक प्रयास किया, साॅरी भी बोला लेकिन  ऋषि बड़े भाई वाला अकड़ दिखाते हुए नहीं माना। थक हारकर आर्षी फिर अपनी आँखों में आँसू भरकर मेरे पास आया और कुछ गुस्सा करते हुए ही बोला – मम्मी अब आप इस घर का रूल ( नियम) बना दीजिए कि आपस में चाहे जितनी भी लड़ाई हो फैमिली का कोई भी मेम्बर एक-दूसरे से बात करना नहीं बन्द कर सकता है।
आर्षी की बात सुनकर स्वतः ही मेरे होठों पर मुस्कान बिखर गई और मैं दोनों भाई में सुलह कराते हुए आर्षी के कहे मुताबिक अपने घर का रूल बना दी।
इस अनुभव के माध्यम से मैं यह कहना चाहती हूँ कि रिश्ते अनमोल होते हैं इसलिये छोटी-छोटी बातों से आहत होकर रिश्तों में संवाद नहीं बन्द करना चाहिए।

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शगुन – अपशगुन


मनुष्य कितना भी सख्त, सुलझा हुआ, पढ़ा – लिखा और आधुनिक विचारों का क्यों न हो, अपनों के अनिष्ट की कल्पना मात्र से ही सिहर उठता है और न चाहते हुए भी मानने लगता है टोटके को।
बात करीब दो वर्ष पहले की है।

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बड़ी बहु

वैसे तो हम शहर में रहते थे लेकिन हमारी गर्मी की छुट्टियाँ हमेशा ही नानी या दादी के घर यानि गाँवों में बीतती थीं । मैं जब भी गाँव जाती तो वहाँ के सभी छोटे – बड़े ममेरे – चचेरे भाई – बहन मुझे घेर लेते और मैं उस छोटी सी सेना की सेनापति बनकर कभी कभी कित – कित तो कभी अन्त्यक्षरी या या फिर आइस – पाइस खेलती। गाँव के सभी भाई बहन बहुत मुझे प्यार करते थे इसलिए जब मैं वापस आने लगती थी तो सभी बहुत रोते थे।

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एकौ साधे सब सधै, सब साधे सब खोय

मानव मन बड़ा चंचल होता है। एक पाया नहीं कि दूसरे को पाने की इच्छा जागृत हो जाती है। इसलिये उसे साधित करना बहुत कठिन कार्य है।

बात कुछ चौबीस – पच्चीस वर्ष पूर्व की है। तब मुझे किसी कार्यक्रम के लिए सितार पर पाँच राग अच्छी तरह से तैयार करना था। मेरे गुरु जी हफ्ते भर से एक ही राग ( बहार ) का कभी रजाखानी गत तो कभी मसीतखानी गत के स्थाई, अन्तरा, आरोह, अवरोह, पकड़ पर बार – बार तबले के संगत के साथ अभ्यास करवाये जा रहे थे जब कि राग अच्छी तरह से तैयार हो गया था।

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ढूंढते – ढूंढते

बहुत याद आती है गीता की! सन 1981, में नवी कक्षा से ही हम दोनों की दोस्ती हुई थी ! गीता बला की खूबसूरत थी इसीलिए शायद नज़र बचाने के लिए ईश्वर ने उसके नाक पर एक तिल लगा दिया था साथ ही पढ़ने में भी अव्वल थी इसलिए हर कोई उससे दोस्ती करना चाहता था लेकिन मैं खुश नसीब थी इसलिये वो मेरी पक्की सहेली बन गई ! हमारी दोस्ती की चर्चा पूरे स्कूल में थी कुछ लड़कियों को तो इर्ष्या भी होती थी हमारी दोस्ती को देखकर !

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अमित

ऋषि के जाॅब के बाद पहली बार जब मैं बैंगलोर गई थी तो घर में घुसते ही मुझे कुछ अच्छा लगा फिर भी मेरी नजरें अपनी स्वाभावानुसार घर का निरीक्षण करने ही लगीं थी लेकिन इसबार घर काफी साफ सुथरा तथा सुव्यवस्थित था फिर भी चमचमाते हुए फर्श के कोनों तथा खिड़कियों और दरवाजों पर जमी कहीं – कहीं धूल की परतें मेरी नज़रें ढूढ ही लीं लेकिन उस दिन मैंने तारीफ किया क्योंकि मुझे पिछली बातें याद थीं जब मैं ऋषि के ( जब स्टूडेंट था) घर जाते ही सफाई अभियान में लग जाती थी तब ऋषि बहुत परेशान हो जाता था क्योंकि मैं जितना ही घर के सदस्यों की फूहड़ता से परेशान रहती हूँ उससे कहीं अधिक पतिदेव और बच्चे मेरी सफाई से परेशान रहते हैं !

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परमानन्द की प्राप्ति

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वैसे तो मेरे पिता से मेरी अनेकों वार्तालाप हुई जो काफी शिक्षाप्रद, प्रेरणादायी,एवं आदर्श जीवनशैली से परिपूर्ण होती थी .! परन्तु उनसे हुई मेरी अन्तिम वार्तालाप जीवन और मृत्यु के मध्य कई प्रश्न छोड़ गये जिनका उत्तर मैं बार – बार ढूढने की नाकामयाब कोशिश करती रहती हूँ..

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बीस पैसा

हमारे लिए गर्मी की छुट्टियों में हिल स्टेशन तथा सर्दियों में समुद्री इलाका हमारा ननिहाल या ददिहाल ही हुआ करता था! जैसे ही छुट्टियाँ खत्म होती थी हम अपने ननिहाल पहुंच जाया करते थे जहाँ हमें दूर से ही देख कर ममेरे भाई बहन उछलते – कूदते हुए तालियों के साथ गीत गाते हुए ( रीना दीदी आ गयीं…… रीना दीदी……..) स्वागत करते थे कोई भाई बहन एक हाथ पकड़ता था तो कोई दूसरा और हम सबसे पहले बाहर बड़े से खूबसूरत दलान में बैठे हुए नाना बाबा ( मम्मी के बाबा ) को प्रणाम करके उनके द्वारा पूछे गये प्रश्नों का उत्तर देकर अपनी फौज के साथ घर में प्रवेश करते थे!

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बेटे के विवाह में खर्च के लिए दहेज की आवश्यकता क्यों

अपने बेटे के विवाह का आमन्त्रण कार्ड लेकर एक परीचित पति – पत्नी हमारे घर आए ! चूंकि बेटे का विवाह था तो खुश होना स्वाभाविक ही था जो उनके चेहरे पर साफ झलक रहा था! वैसे भी हमारे यहाँ बेटे के विवाह में तो बेटे के माँ बाप के पाँव जमीन पर ही नहीं पड़ते सो वे परीचित भी अपने साथ – साथ अपने बेटे की प्रशंसा के साथ-साथ विवाह कैसे तय किये, कैसी लड़की है आदि का विस्तृत विवरण सुनाए जा रहे थे और हम उनकी बातों को सत्य नारायण भगवान की कथा की भांति सुने जा रहे थे! अब बेटे के बाप थे तो आत्मप्रशंसा करना भी तो स्वाभाविक ही था !

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सपोर्ट

सपोर्ट

करीब दस वर्षो के बाद मेरे मोवाइल पर अचानक एक काॅल आया! आवाज़ तो कुछ जानी पहचानी सी लग रही थी, फिर भी मैं ठीक – ठीक नहीं पहचान पाई। मेरे पूछने पर उसने बताया – “मैं अमिता हूँ और अब तुम्हारे ही शहर में आ गई हूँ , मतलब मेरे पति का ट्रांसफर पटना में ही हो गया है। यह सुनकर मुझे खुशी हुई … हो भी क्यों न..? आखिर वह मेरी सहपाठिनी थी । बातों – बातों में जब उसने बताया कि उसकी मम्मी भी आई हैं तब मुझे और भी खुशी हुई क्योंकि उसकी मम्मी मेरी काॅलेज की प्रिंसिपल थीं। बातों के क्रम में ही मैंने उन्हें अगले दिन खाने पर आमंत्रित कर दिया। मोबाइल रखने के बाद पुरानी स्मृतियाँ चलचित्र की तरह आँखों के सामने घूमने लगीं।

स्नातक प्रथम वर्ष में गुलाब देवी महिला महाविद्यालय में मेरा दाखिला हुआ था। एक दिन कुछ बातों को लेकर अपनी सहपाठिनी अमिता से मेरा विवाद हो गया। अमिता काॅलेज की प्राध्यापिका की बेटी थी इसलिए वह अपना अपना थोड़ा रुआब दिखाने लगी थी…..! मैं ठहरी लडाकू जो हमेशा ही अन्याय के खिलाफ खड़ी हो जाती थी सो उस दिन भी मैंने उसे एक की चार सुना दी।
हुआ यूँ था कि एन0 एस0 ( नेशनल सोशल सर्विस स्कीम में छात्राओं का चयन होना था। कुछ बातों को लेकर मेरी और अमिता की अनबन हो गई थी तो उसने कहा – “मैं मम्मी से कह दूंगी कि तुम्हें एन ० एस ० एस ० ( National service scheme ) में नहीं लें
। ”
अमिता की बात सुनकर मुझे बहुत तेज गुस्सा आ गया और मैंने उससे कहा – ”
तुम कौन होती हो बोलने वाली ..? हाँ होंगी मम्मी तुम्हारी घर में लेकिन यहाँ तो इस काॅलेज की प्रिन्सिपल हैं और जैसे तुम स्टूडेंट हो वैसे मैं भी हूँ । ” उस समय वहाँ पर उपस्थित सभी लड़कियाँ मेरे पक्ष में हो गयी थीं इसलिए अमिता वहाँ से चुपचाप निकल गई।
दूसरे दिन काॅलेज में दहेज प्रथा पर वादविवाद प्रतियोगिता में मुझे बोलना था और उसी दिन एन एस एस में नियुक्ति की सूची भी निकलना था इसीलिए मैं काफी उत्साहित थी।
सुबह काॅलेज में जैसे ही पहुंची तो मेरी नज़र एन एस के सूची पर पड़ी। यूँ तो मैं एन एस एस में अपने चयन को लेकर आश्वस्त थी फिर भी सूची पर जल्दी – जल्दी अपनी नज़रें दौड़ायी। सूचि में अपना नाम नहीं देख कर मेरा गुस्सा सातवें आसमान पर था। मैं अपना गुस्सा रोकने में नाकाम हो गई और मैं सीधे प्रिन्सिपल के ऑफिस में घुसकर प्राचार्या की तरफ़ मुखातिब होकर उनसे पूछा – “मैम मेरा नाम लिस्ट में ( एन एस एस में) नहीं है ?
उन्होंने कहा आपने लिस्ट निकलने से पहले मुझसे आकर क्यों नहीं कहा?”
उनकी बात सुनकर मैंने उनसे प्रतिप्रश्न किया –
“मैम इंटरव्यू तो लिया गया था न? और एन o एस o में तो जिस योग्यता की जरूरत होती है वह सब तो मुझमें है ही। ”
फिर प्रिंसिपल ने मुझसे कहा -” तो आप ही बताइये कौन अयोग्य है? ”
मैंने कहा मुझे क्या पता …. मैं तो इतना जानती हूँ कि मैं योग्य हूँ और मैने अमिता से हुए विवाद का जिक्र उनसे यथावत कर दिया साथ में यह आशंका भी जता दी कि इसी वजह से मुझे एन, एस, एस में नहीं लिया गया।
पूरी बात सुनने के बाद प्राचार्या मुझे समझने के बजाय उल्टा मुझपर ही क्रोधित होकर मुझे ही खरी – खोटी सुना दिया – ” हाँ मैं अमिता की मम्मी हूँ और उसका सपोर्ट करूंगी। मेरी जगह आपके भी मम्मी पापा होते तो आपका सपोर्ट करते। किरण आप लड़की हैं, कल को आपकी शादी होगी, इस तरह के तेवर रहेंगे तो कैसे निभा पाइयेगा आप ससुराल में ? आदि – आदि . इस प्रकार की उन्होंने बहुत सारी दीक्षा दे दी उन्होंने मुझे।
उस दिन मैं अपनी प्राचार्या के अन्याय पूर्ण व्यवहार से दुखी होकर घर आ गई और पूरा विवरण अपने पिता को सुना दिया ….! मेरे पिता अधिवक्ता थे सो उन्होंने मुझसे प्राचार्या के खिलाफ विश्वविद्यालय के वाइसचांसलर को एक शिकायत पत्र लिख कर पोस्ट करने का सुझाव दिया।
अगले दिन सुबह प्राचार्या ने अपने ऑफिस में मुझे बुलाकर अमिता के बारे में कहा – ” अमिता को हम लोगों ने बहुत ही लाड़ प्यार से पाला है, उसकी हर ख्वाहिश को पूरा किया है, इस लिए थोड़ी जिद्दी हो गई है.। उन्होंने दूसरी लिस्ट में मेरा नाम निकलने का वादा किया।
उस दिन के बाद से मैं अमिता के हरेक खामियों को नजरअंदाज कर दिया करती थी !
फिर मेरी शादी हो गई उसके बाद नहीं मिल पाई उससे .!
उसकी शादी का निमंत्रण आया था किन्तु जा नहीं पाई थी , लेकिन अन्य सहेलियों से उसके विवाह का विवरण सुनी था मैंने। उसकी शादी एक हैंडसम आई 0ए 0 एस 0 आफिसर से काफी भव्यता के साथ हुई थी।
अगले दिन अमिता सबके साथ मेरे घर आई तो मैं उसे पहचान ही नहीं पाई।
कितनी बदल गई थी वह, गोरी तो पहले भी नहीं थी , लेकिन अभी तो जैसे लग रहा था काली माँ की अवतार ही आ गयी हो , बड़ी बड़ी आँखें डरावने लग रहे थे, मोटी भी हो गई थी वह और ऊपर से बेतरतीबी से पहनी गई साड़ी में कुछ विक्षिप्त सी लग रही थी ! अगर उसने काॅल करके नहीं बताया होता तो मैं उसे पहचान भी नहीं पाती ! उसे देखकर मैं उसकी तुलना काॅलेज वाली अमिता से करने लगी थी सोंचने लगी क्या ये वहीं अमिता हैं…जिसका वार्डरोब तरह -तरह के नये – नये फैशन के महंगे कपड़ों, गहनों , महंगे मैचिंग सैन्डल्स, बैग्स आदि से सजा होता था। कुछ देर के लिए मुझे उसकी दशा पर दया आ गयी थी।
इसके विपरीत उसका पति गज़ब का हैंडसम ,उसे देखकर मेरे मन में यह विचार आया कि जरूर यह दूल्हा खरीद लिया गया होगा लेकिन मैं अपनी मनोभावनाओं को छुपाते हुए उन लोगों के स्वागत सत्कार में लग गयी।
खाने के दौरान बातों – बातों में अमिता तथा उसकी मम्मी मेरी प्रशंसा के पुल बांधे जा रहीं थीं। .कभी मेरी , तो कभी मेरे घर की कभी मेरे बनाए हुए नाश्ते की तो कभी मेरे पति की तो कभी बच्चों की। मैं उससे कुछ और लेने का आग्रह कर व्यन्जन परोसती रही , साथ – साथ अपनी प्रसन्नता भी व्यक्त करती रही।

अचानक मेरी प्रिन्सिपल मेरा घर देखने के बहाने मेरे साथ एकान्त में बातें करने की इच्छा इशारों में ही जाहिर की जिसकी तलाश तो मुझे भी थी।
मैंने अपनी प्राचार्या से कहा – “मैम इतना अच्छा अमिता का पति है और इतना बड़ा आॅफिसर भी फिर अमिता ने ऐसा हाल क्यों बनाये रखा है…?”
प्रिंसिपल ने बहुत ही दुखी होते हुए मुझसे कहा – “किरण यही तो मेरी सबसे बड़ी भूल थी। अमिता का पति हमारे सम्पत्ति की लालच में पड़कर उससे विवाह तो कर लिया उसे दिल से अपनी पत्नी का दर्जा नहीं दे पाया , कई बार तलाक देने की धमकी देता है। तुम सब को तो मैं समझाने में कामयाब हो गई थी लेकिन उसके पति को समझाने में असफल रही खैर गलती तो मेरी ही है मैं ही हमेशा अमिता को हर सही गलत में सपोर्ट करती रही। बस तुम इस शहर में हो उसकी सुधि लेते रहना। ”
प्राचार्या की बातें सुनकर मुझे उनपर दया आ रही थी। इस अनुभव के माध्यम से मैं यही कहना चाहती हूँ कि आप कितने भी समर्थ हों पर बच्चों की हर जिद्द नहीं पूरी करें, क्या सही है और क्या गलत उन्हें समझायें क्योंकि आप हर जगह उनका सपोर्ट नहीं कर पायेंगे

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