पूर्वा – स्त्री जीवन को बारीकी से उकेरती कथाएँ

किरण सिंह जी निरंतर साहित्य साधना में लगी वो साहित्यकार हैं, जो लगभग हर विधा में अपनी लेखनी की प्रतिभा दिखा चुकी हैं, फिर चाहें वो कविताएँ, लघुकथाएँ, दोहे, मुक्तक, कुंडलियाँ छंद, गजल हो या कहानियाँ लिखकर साहित्य को समृद्ध कर रही हैंl आज उनके जिस कहानी संग्रह पर बात कर रही हूँ वो हाल ही में वनिका पब्लिकेशन से प्रकाशित हैl “पूर्वा” जैसे आकर्षक नाम और कवर पेज वाला यह संग्रह उनका तीसरा कहानी संग्रह है, जो उनकी कथा-यात्रा के उत्तरोंतर विकास का वाहक हैl
अपनी बात में किरण सिंह जी मैथली शरण गुप्त जी की कुछ पंक्तियाँ लेते हुए लिखती हैं

“केवल मनोरंजन ही न कवि का करम होना चाहिए,
उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए”
मैथली शरण गुप्त जी की इन पंक्तियों से मैं बहुत प्रभावित हूँ, इसलिए भी मेरी हमेशा कोशिश रहती है कि कविता हो या कहानी कुछ न कुछ उपदेश दे ही l”

इस संग्रह की कहानियाँ उनके कथन पर मोहर लगाती हैंl जिसकी विषय वस्तु में आम जीवन हैl दरअसल हमारा घर परिवार हमारे रिश्तों की आधार भूमि है और समाज की ईकाई l इस इकाई को नजर अंदाज कर स्वस्थ समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती l “पूर्वा” में संकलित किरण सिंह जी की कहानियाँ घर-परिवार की इसी दुनिया को कई बिंदुओं से देखती परखती एक्स रे करती चलती हैंl बहुधा कहानियों के केंद्र में स्त्री ही है l वही स्त्री जो घर की धुरी हैl कथाओं के मध्य अमूर्त रूप से कई प्रश्न ऐसे गूँथे हैं, जो पाठक को अपने ही जीवन से जूझ कर उत्तर खोजने पर विवश करते हैंl चाहें वो विधवा स्त्री का बैरंग जीवन हो, दहेज की प्रथा हो, घर में अकेली पड़ गई अपने सपनों के लिए संघर्ष करती स्त्री होl
कहानियों की खास बात यह है कि किरण सिंह जी की स्त्रियाँ कहीं से भी बनावटी स्त्रियाँ नहीं नजर आतीl ये स्त्रियाँ बौद्धिक विमर्श नहीं करतीं बल्कि हमारे कस्बों और छोटे शहरों की स्त्रियाँ हैं, जो घर परिवार और सपनों से संतुलन बनाते हुए बहुत सधे कदमों से धीरे-धीरे एक-एक बेंड़ी खोलते हुए आगे बढ़ रही है, सीधे तौर पर पुरुष पर उँगली उठाने के विपरीत ये समाज और रूढ़ियों पर उँगली उठाती हैl वो समाज जो स्त्री पुरुष से मिलकर बना हैl ये कहानियाँ संतुलन में ही स्त्री और पुरुष दोनों का भला है की हिमायती हैंl

एक महत्वपूर्ण प्रश्न जो कहानियों से उभरकर आता है, वो है एक अच्छी स्त्री के मन का अंतरदवंद l आमतौर पर परिवार को ले कर चलने वाली, सबकी खुशियों के लिए त्याग करने वाली स्त्री, अपने ही परिवार की अन्य स्त्रियों की राजनीति की शिकार हो उम्र के किसी ना किसी दौर में ये सोचती जरूर है कि, “अपने जीवन की आहुति देकर उसे मिल क्या?” फिर चाहे वो “मुझे स्पेस चाहिए” की नेहा हो, दहेज की निधि हो, या “बलिदान की कथा” की निशा होl हालाँकि अततः सब अच्छाई के पक्ष में ही खड़ी होती हैं, क्योंकि अच्छा होना या बुरा होना मनुष्य की मूल प्रकृति है, और घर-परिवार की इस सुंदर दुनिया की नींव में इन्हीं स्त्रियों के दम पर हैl

कहानी “मुझे स्पेस चाहिए” की मूल कथा परिवार की दो स्त्रियों देवरानी और जेठानी के मध्य की हैl जो स्वार्थ और नासमझी से टूटते संयुक्त परिवार के दर्द को ले कर आगे बढ़ती है l पर मुझे इस दृष्टि से भी खास लगी क्योंकि यह कहानी देवर और भाभी के स्वस्थ दोस्ताना रिश्ते पर संदेह कि नजर पर सवाल उठाती हैl आज भी जब हम स्त्री पुरुष मित्रता की बात करते हैं तब भी घर के अंदर पनप रहे ऐसे सुंदर मित्रवत रिश्तों पर “दाल में कुछ काला है?” का तेजाबी प्रहार क्यों करते हैं? स्त्री का ये मित्रवत रिश्ता चाहे जीजा साली का हो, जेठ या देवर से हो, हमें घर के अंदर भी दोस्ती को संदेह के घेरों से मुक्त करना होगा l
एक लांछन जो आम तौर पर स्त्रियों पर लगता है कि वो ससुराल की इतना अपना नहीं समझतीं, सास हो या जेठानी/देवरानी की बात को माँ की डाँट समझ कर नहीं भूल जातीं l कहानी में एक स्थान पर नेहा अंतर्मन उसी का जवाब देता है l

“माता-पिता का तो दिल बड़ा होता है वो माफ कर देते हैंl भाई भी खून के रिश्ते के आगे कमजोर पड़ जाते हैंl पर मेरा तो दिल का रिश्ता था, जब दिल ही टूट गया तो जुड़ेगा कैसे?”

जिसे कोर्ट- कचहरी सिद्ध नहीं कर सकती, उसे स्त्री की संवेदनशील दृष्टि पकड़ लेती हैl कहानी पक्षपात एक लेखिका और उसे भाई का वार्तालाप हैl जहाँ भाई अपनी लेखिका बहन पर आरोप लगाता है कि वह स्त्रियों का ही पक्ष लेती हैl अपनी बात को सिद्ध करने के लिए वो कोर्ट का एक किस्सा सुनाता हैl जहाँ एक पत्नी अपने पति के नौकरी से निकाले जाने का बदला लेने के लिए उसके घर में काम करने आती हैl वो ना सिर्फ सबका विश्वास जीतती है बल्कि मालिक को अपने स्नेह-देह-पाश में बाँध भी लेती हैlबाद में न सिर्फ घर से पैसे लेकर भागती है बल्कि मालिक को रेप केस में भी फँसा देती और मालिक के पास भारी जुर्माना अदा करने के अतरिक्त कोई रास्ता नहीं रहता l बेचारा पुरुष के भाव से आगे बढ़ती कहानी अंत में लेखिका के संवेदनशील मन के एक प्रश्न पर स्त्री के पक्ष में आ खड़ी होती हैl
मैंने कहा, “वो तो ठीक है लेकिन इसमें भी तो आलाकमान पुरुष (ड्राइवर) ही है ना ? औरत (मालती) तो उसके हाथ की कठपुतली है जैसे नचाया वैसे नाची l”

इस एक वाक्य से भले ही भाई फिर से पक्षपात की बात कह कर बात खत्म कर देता है पर पाठक की संवेदनाएँ मालती से जुड़ जाती है, जो अपने पति द्वारा एक हथियार की तरह इस्तेमाल की गईl पर लेखिका ये फैसला पाठक की दृष्टि पर छोड़ देती हैं l

“पैरवीकार” कहानी एक उम्र गुजर जाने के बाद स्त्री के अपनी सपनों को पहचानने और उनके लिए संघर्ष करने की कहानी हैl इसमें लेखन से जुड़ी कई महिलाओं को अपना अक्स नजर आएगा l कहानी की नायिका घर के कामों से समय चुरा-चुरा कर लेखन करती हैl पर घर के लोग स्त्री की प्रतिभा के सहयात्री बनने की जगह उसे बात-बात पर ताने देते हैं कि कलम घिसने की जगह कोई और काम करतीं तो चार पैसे आतेl वो कितनी मुश्किल से इस संतुलन को साधती है इसकी एक बानगी देखिए…

“उसकी नजर सभागार की वॉल पर टँगी घड़ी पर पड़ी तो वो अचानक एक नायिका से आम गृहिणी बन गईl और जल्दी जल्दी घर भागी l रास्ते में उसके मन में यह भय सता रहा था कि अब तो निश्चित ही घर जाकर घर परिवार की खरी-खोंटी सुननी पड़ेगी, इसलिए वो रणक्षेत्र में जाते हुए योद्धा की तरह मन ही मन रणनीति तय करने लगीl”
प्रकाशन जगत की परते खोलती कहानी सकारात्मक अंत के साथ लेखन जगत में प्रवेश कर रहे युवा लेखकों को एक प्रेरणा भी देती हैl

संग्रह के नाम वाली कहानी “पूर्वा” एक शहीद की पत्नी के दर्द को उकेरती है, तो दोबारा सास द्वारा उस के जीवन को जी लेने के अधिकार की वकालत भी करती हैl यहाँ एक स्त्री दूसरी स्त्री की शक्ति बन कर उभरती हैl “बेरंग” उन रूढ़ियों की बात करती है, जिसका शिकार वो मासूम स्त्री है जिसका जीवन साथी उसे बीच राह में छोड़ उस पार चला गया हैl कहानी स्त्री मन के उस कोने को चीन्हती है जो रूढ़ियों को तोड़ बिंदी, चूड़ी धरण करने के बाद भी बेरंग ही रह जाता हैl
“दहेज” “बलिदान की कथा,”दोनों कहानियाँ परिजनों द्वारा स्त्री की इमोशनल ब्लैकमेलिंग कर अपना हित साध लेने की क्रूर कथा हैl पर स्त्री जानते बूझते हुए भी त्याग की उसी दिशा में आगे बढ़ जाती है, इस क्यों का उत्तर कहानी में हैl “अति सर्वत्र वर्जियेत” “शिक्षित होना जरूरी है” टूटते संयुक्त परिवार और अंधविश्वास का विरोध करती उल्लेखनीय कहानियाँ हैंl

कुल मिल कर 120 पेज में समाई संग्रह की बारह कहानियों कि धुरी बहले ही स्त्री जीवन हो पर ये हमारे पूरे समाज का आईना हैंl ये समाज के उन अवगुंठनों को खोलतीं है जिसका शिकार स्त्री जीवन बन गया है l लेकिन ये परिस्तिथियों से उलझते हुए पाठक के मन में एक सकारात्मकता बो देती हैं l

एक सार्थक संग्रह के लिए किरण सिंह जी को बहुत बहुत बधाई व शुभकामनाएँ

समीक्षक – वंदना वाजपेयी

लेखक – किरण सिंह

प्रकाशक – वनिका पब्लिकेशंस

मूल्य – 200 रूपये

पृष्ठ – 120 पेपर बैक

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रहस्य

24 कहानियों का गुलदस्ता है ‘रहस्य’

कृति: रहस्य (कहानी संग्रह)
कृतिकार: किरण सिंह
प्रकाशकः पंकज बुक्स
109-ए, पटपड़गंज गाँव
दिल्ली-110091

पृष्ठः 128 मूल्यः 395/-

समीक्षकः मुकेश कुमार सिन्हा

हमारे आस-पास कहानियों के अनगिनत पात्र बिखरे पड़े हैं, बस जरूरत है उन पात्रों को, शब्द रूपी पुष्पों में ढालने की। पुष्पों को चुन-चुनकर हम उसे माला का रूप दे सकते हैं। रंग-बिरंगे पुष्पों से तैयार माला गुलदस्ता रूप में लोगों का बरबस ध्यान आकर्षित करता है। कौन नहीं चाहेगा रंग-बिरंगे फूलों के गुलदस्ता को हाथों में लेना? ऐसा ही एक गुलदस्ता है-‘रहस्य’। 24 कहानियों से सुसज्जित है यह। कहानीकार हैं-किरण सिंह।
किरण सिंह केवल कहानियाँ नहीं गढतीं, साहित्य की हर विधा पर अपनी कलम चलाती हैं। उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ द्वारा सुभद्रा कुमारी चौहान महिला बाल साहित्य सम्मान सहित कई सम्मानों से सम्मानित किरण सिंह की कलम कविता गढ़ती है, दोहे रचती है, कहानियाँ भी सृजित करती है। ‘प्रेम और इज्जत’ के बाद किरण सिंह की कहानियों की यह दूसरी पुस्तक है।
बकौल किरण, ‘हमारे आसपास के वातावरण में कई तरह की घटनाएँ घटित होती रहतीं हैं, जिसे देखकर या सुनकर हमारा संवेदनशील मन कभी हर्षित होता है तो कभी व्यथित और फिर कभी अचंभित भी। ऐसे में हम मानव के स्वभावानुरूप अपने-अपने मित्रों, पड़ोसियों आदि से उस घटना की परिचर्चा करके अपनी मचलती हुई संवेदनाओं को शांत करने का प्रयास करते हैं। किंतु, एक लेखक की लेखनी मचलने लगती है, शब्द चहकने लगते हैं और लिख जाती हैं खुद-ब-खुद कहानियाँ।
किरण सिंह रचित ‘रहस्य’ की कहानियों में नारी के अंतर्मन की चाहत है, नारी की बेबसी है, तो समाज से उम्मीद भी। आखिर समाज से नारी उम्मीद नहीं लगाये, तो किससे लगायेगी? कितना त्याग करती है नारी? माँ रूप में, पुत्री रूप में, बहन रूप में और न जाने कितने रिश्तों को निभाते-निभाते अपनी खुशियों की भी परवाह नहीं करती है। कहानियों में नयी पीढ़ी को संदेश है, तो नारी को नसीहत भी।
भले ही ‘रहस्य’ से पर्दा उठ गया, लेकिन यह प्रेम की पराकाष्ठा है। प्रेम अन्तर्मन से होता है, यह हाट में बिकने वाली चीज नहीं है। ‘यह मैं सोना के लिए लाया हूँ। उससे ब्याह करूँगा।’ यह हीरा ने कहा। हीरा और सोना का एक-दूसरे से बहुत प्यार था, मगर दोनों विवाहित थे।
कभी कुएँ में गिरे सोना को निकालने वाला हीरा उसे फिर कुएँ से निकालता है, लेकिन तब वह बेजान होती है। लोगों के बीच चर्चा थी कि कुएँ पर सोना की आत्मा भटकती है, पायल की झंकार सुनायी देती है। हालाँकि वह सोना नहीं होती। वह तो हीरा होता है, जो अक्सर रात को चूड़ियाँ, बिंदिया तथा पायल-सिंदूर को लाल रंग के बक्से में रखकर कुएँ के पास पहुँचता है, यह आस लिए कि सोना जिंदा कुएँ से लौटेगी और वह ब्याह रचायेगा!
दिल से किया गया ‘प्यार’ हमेशा पूर्णतः को प्राप्त करता है। ऋचा को पाकर ऋषभ इठला उठा था। हालाँकि ऋचा का संबंध अभिषेक से हो जाता है, लेकिन प्यार का पलड़ा ऋषभ का ही भारी रहा। ‘लाल गुलाब’ लेकर ऋषभ के खड़ा होने से ऋचा का चेहरा गुलाब-सा खिलना लाजिमी था। यह ‘विडम्बना’ ही है कि विवेहत्तर संबंध का खामियाजा स्त्री को ही भुगतना पड़ता है। मेघा यह जान गयी थी कि उसके पति का संबंध उसकी जेठानी से है, फिर भी वह यह सोचकर चुप हो जाती है कि जेठानी की क्या गलती? इस परिवार ने छलकर ही उनकी शादी नपुंसक बेटे से करा दी। वहीं ‘अपशगुन’ कहानी नारी मन की पीड़ा को उजागर करती है।
कहानीकार की कहानियाँ माता-पिता को सलाह देती है। सच में, हम अपनी औलाद को इतना लाड़-प्यार देने लगते हैं कि उनकी गलतियों को नजरअंदाज कर देते हैं। फलतः औलाद के पाँव भटक जाते हैं। जरूरत है माँ-पिता को सही परवरिश देने की, ताकि हर माँ यह कह पाये-‘बेटा सोने पर लाख धूल मिट्टी जम जाये, थोड़ा-सा तपा दो चमक ही जाता है।’ फैशनपरस्त नयी पीढ़ी को नसीहत देती है-‘झूठी शान’। कोई भी काम छोटा-बड़ा नहीं होता, बस राह गलत न हो!
अक्सर युवा मन भटक जाता है। एकतरफा प्यार के चक्कर में वह कैरियर को दाँव पर लगा देता है। हालाँकि जो संभल गया, उसकी चाँदी है और जो न समझा, वह कैरियर व भविष्य को चौपट कर लेता है। विक्की सँभल गया, इसलिए अच्छे पद पर पहुँचा। कितना अच्छा होता, यदि ‘यू आर माई बेस्ट फ्रेंड’ में लेखिका विक्की के हाथ को मिताली के हाथ में थमा देती। हम प्यार करते हैं, लेकिन इजहार नहीं कर पाते। यदि नितेश मन की बात को मृणालिनी से कह देता, तो उसकी जिंदगी संवर जाती। अब मृणालिनी के हिस्से ‘प्रार्थना’ के सिवाय कौन-सा शब्द शेष है।
कोख कितनी भी बेटियों को जन्म दे दे, लेकिन बेटों को न जने, तो कोख की इज्जत कम हो जाती है। खानदान चलाने के लिए बेटा चाहिए, समाज की यही सोच है। पति की खुशी और वंश वृद्धि के लिए भगवती देवी घर में सौतन लाती है, लेकिन एक वक्त ऐसा आता है कि उसे उपेक्षित जीवन जीना पड़ता है। भगवती जैसी नारी समाज में है, लेकिन आखिर भगवती जैसी महिलाओं को सौतन लाने की आवश्यकता क्यों पड़ रही है? समाज आज तक अपनी सोच को बदल पाने में असमर्थ क्यों है? एक अनुत्तरित प्रश्न है, जिसका जवाब ढूँढा जाना आवश्यक है।
लेखिका स्त्री को नसीहत देती है। लिखती हैं-यदि स्त्री चाहे तो घर को घर बना सकती है, अन्यथा ‘राम वनवास’ हो सकता है। स्त्री की सोच क्यों हो जाती है कि उसके बगैर घर नहीं चल सकता? परिवार को चलाने के लिए सबकी जरूरत होती है, बस ‘आत्ममंथन’ की जरूरत है। संस्मरणात्मक कहानी है-‘नायिका’, तो कोरोना की त्रासदी का दंश है-‘वादा’।
पति और पत्नी के बीच नोंक-झोंक होना कोई असाधारण बात नहीं है, लेकिन इसका क्या मतलब कि हम अपनी जान पर ही आफत मोल लें। ‘जीवन का सत्य’ में अविनाश गलत है या मीना, कहना मुश्किल है। यदि अविनाश सही होता, तो वह अपनी पत्नी के साथ अभद्र व्यवहार नहीं करता और यदि मीना सही होती, तो वह अपनी ‘बगिया’ को छोड़कर संन्यासी जीवन को नहीं अपनाती। पति और पत्नी गाड़ी के दो पहिए हैं, दोनों का साथ जरूरी है गृहस्थ जीवन चलाने में। शक को भी कभी जिंदगी में आने नहीं देना चाहिए, अन्यथा शिखा और नितेश की तरह जिंदगी बदरंग-सी हो जायेगी। प्राची की वजह से दोनों के साँसों की सरगम में जीवन संगीत बजा। जाहिर सी बात है कि ‘जीवन संगीत’ है, मन के आँगन में शहनाई का बजना भी बार-बार जरूरी है।
अपनी जान बचाने के एवज में ‘अमृता’ ने डाॅक्टर दंपति की बदरंग जिंदगी को रोशन करने के लिए कोख को दे देती है। हालाँकि यह अमृता की बदकिस्मती थी कि बच्चा मरा हुआ पैदा हुआ। काश! उसकी अभिलाषा पूरी हो जाती।
कहानीकार के शब्द संयोजन के क्या कहने? कहावतों को भी कहानी में पिरोती हैं। सिरहाने बांसुरी रखने से पति-पत्नी में प्रेम बढ़ता है को शब्दों में पिरोकर कहानी रची गयी है-बांसुरी। ‘धर्म’ यह बताने को काफी है कि सबसे बड़ा धर्म है-मानवता। हम बेवजह धर्म को लेकर आपस में लड़ते-झगड़ते हैं। यदि शबाना ने मानव धर्म नहीं अपनाया होता, तो शैलजा का बेटा पता नहीं आज किस हाल में होता? ‘नमस्ते आंटी’ उन महिलाओं को बेपर्द करने की कोशिश है, जो अपनी उम्र छिपाती फिरती हैं। ‘संकल्प’ आईना है। अनसोशल की पैठ के बीच जरूरी है सोशल मीडिया में खुद के लिए लक्ष्मण रेखा तैयार करना। हालाँकि सोशल मीडिया की उपयोगिता है। फेसबुकिया प्रपंच के बीच संध्या की ‘परख’ को दाद देनी पड़ेगी। ‘संतुष्टि’ अच्छी कहानी है। हमारी मदद से किसी की जिंदगी सुधर जाये, तो संतुष्ट होना लाजिमी है। सविता के चेहरे पर संतुष्टि का भाव कहानी को जीवंत बनाती है।
लेखिका किरण सिंह की कलम परिपक्व है। वह जानती है कि कब और कहाँ, किस पात्र से क्या-क्या कहलाना है? ‘वैसे भी पतियों की आदत होती है हिदायत देने की क्योंकि उनकी नज़रों में तो दुनिया की सबसे बेवकूफ औरत उनकी पत्नी होती है’, ‘गलत कहते हैं लोग कि स्त्री ही स्त्री की शत्रु होती है। सच तो यह है कि पुरुष ही अपनी अहम् तथा स्वार्थ की सिद्धि के लिए एक स्त्री के पीठ पर बंदूक रखकर चुपके से दूसरी स्त्री पर वार करते हैं, जिसे स्त्री देख नहीं पाती और वह मूर्ख स्त्री को ही शत्रु समझ बैठती है’, ‘अरे आ जायेगा। लड़का है कउनो लड़की थोड़े है कि एतना चिंता करती हो’, ‘बच्चे बाहर निकले नहीं कि बेलगाम घोड़ा बन जाते हैं’, ‘स्त्रियाँ अपनी खुशी ढूँढ ही लेती हैं…कभी पिता की तो कभी पति की तो कभी पुत्र की खुशियों में’ आदि वाक्यों के माध्यम से लेखिका ने सामाजिक दृष्टिकोण को रखने की कोशिश की है।
लेखिका बलिया की हैं, इसलिए कहानियों में भोजपुरी शब्दों और वाक्यों का प्रयोग है। यह लेखिका का मातृभाषा के प्रति समर्पण का द्योतक है। कहानियाँ चूँकि सच्ची घटनाओं पर आधारित हैं, इसलिए यह ग्राह्य है। काल्पनिकता है, लेकिन पाठकों को बाँधे रखने के लिए यह जरूरी है। एकाध जगह प्रूव की कमी है, जिसे लेखिका अगले अंक में दुरुस्त कर देंगी, ऐसी आशा है।

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चलो दीप हम जलायें

चलो दीप हम जलायें

विश्वास की बाती में
घृत प्रेम का मिलायें
खुशियों की ज्योति में हम
दुख का तिमिर मिटायें
चलो दीप हम जलायें

रह जाये न अंधेरा
लगे रात भी सवेरा
खिल जायें चन्द्र किरणें
और विश्व जगमगाये
चलो दीप हम जलायें

तारों की सेना लेकर
चाँद आया हो जमीं पर
हम प्यारी सी निशा को
कुछ इस तरह सजायें
चलो दीप हम जलायें

करें साफ विश्व डेहरी
जलायें दीप प्रहरी
जीवन की कल्पना की
हम अल्पना बनायें
चलो दीप हम जलायें

आलस्य त्याग करके
मन में स्फुर्ति भर के
मेहनत के मंत्र से हम
दारिद्रय, दुख भगायें
चलो दीप हम जलायें

रिद्धि-सिद्धि सी सुता है
बहु अन्नपूर्णा है
उन्हें पूजकर हृदय से
समृद्धि, सुख बढ़ायें
चलो दीप हम जलायें

नतमस्तक

मुकुल – मम्मा लाॅकडाउन में तो घर पर रह कर मेरी दो महीने की करीब – करीब पूरी सैलरी बच गई, अब इलेक्ट्रॉनिक्स दुकाने खुल गई हैं मैं आज ही जाकर डिस वाशर और अच्छा वाला वैक्यूम क्लीनर लाता हूँ ताकि आइंदा से आपको इतनी परेशानी न हो।शालिनी – नहीं – नहीं कोई जरूरत नहीं है तुम अपने पैसे बचाकर रखो।
मुकुल – ओह मम्मा आप भी न…. इस पीरियड में आपको कितनी परेशानी हुई क्या मैंने नहीं देखा आप भी न केवल पैसे बचाओ – पैसे बचाओ कहती रहती हैं। अभी तो मेरे जाॅब की शुरुआत है आगे बहुत पैसे कमा लूंगा और वैसे भी जाॅब के बाद मुझे तो आपको गिफ्ट देना ही था तो यही सही.. अब मना मत कीजिये।
शालिनी फिर से नहीं मुकुल बिल्कुल भी नहीं खरीदो क्योंकि मुझे कुछ खास परेशानी नहीं हुई। सच तो यह है कि मैं अब  ज्यादा ही फिटनेस महसूस कर रही हूँ । मैं एक्सरसाइज कर- कर के तथा टहल – टहल कर थक गई थी लेकिन वजन नहीं कम हुआ और देखो तो इन दो महीनों में झाड़ू पोछा बर्तन करके मेरे वजन कम हो गये – साथ ही आत्मविश्वास भी बढ़ा कि मैं अब अपना काम खुद  कर सकती हूँ।
और इसके अलावा सोचो तो जो बीस वर्ष से शीलाबाई मेरा काम कर रही है उसे काम से कैसे हटा दूँ ?
माँ की बातें सुनकर मुकुल अपनी माँ के सम्मुख नतमस्तक हो गया।

बदरा गरज के बोले

बदरा गरज कर बोले
बिजुरी कड़क कर बोले
आफत में पड़ गई मेरी जान
हाय रे मैं हो गई परेशान

छम छम छम छम छम छम छम
बनवा में मोर नाचे
आयेगी बरखा रानी
पपीहा का शोर बाचे
पुरवाई बहकी जाये
तरुड़ाई चहकी जाये
मौसम लगे है बेइमान
हाय रे मैं हो गई परेशान

मारे खुशी के देखो
मस्ती में तरूवर झूमे
लतिकाएँ झुकी झुकी
धरती मइया को चूमे
आ गया देखो सावन
लागे बड़ा मन भावन
खेतों में लहराये धान
हाय रे मैं हो गई परेशान

भीगी है धरती मैया
भीगा है उसका कण – कण
फिर भी जाने क्यों मेरा
प्यासा है दिल और तन मन
कहती तुम्हारी गुइयाँ
आ जाओ मेरे सइयाँ
दिल का मेरा है अरमान
हाय रे मैं हो गई परेशान

एक और दिन का इजाफ़ा

एक और दिन का इजाफ़ा

वैसे तो एक ही फूल अपनी खूबसूरती और सुगंध से मानव मन को मोह लेने के लिए पर्याप्त होता हैं, ऐसे में जब रंग विरंगे फूलों की वादियों में ही विचरण करने को मिल जाये तो मनुष्य किसी और लोक में विचरण करने की अनुभूति करने लगता है। एक फूलों से लदे पौधे को भर नज़र देख भी नहीं पाता कि दूसरी लतिकाएँ उनकी निगाहों को बरबस ही अपनी ओर खींच लेती हैं। ऐसे में उसे समझ में ही नहीं आता है कि कहाँ नज़रें टिकाये, किन फूलों की प्रशंसा करे। कुछ ऐसी ही स्थिति आज मेरी भी वरिष्ठ कवि, गीतकार, लेखक, माननीय भगवती प्रसाद द्विवेदी जी  की पुस्तक एक और दिन का इज़ाफ़ा (काव्य संग्रह) पढ़कर हो रही है।
शीर्षक को प्रतिबिंबित करती हुई कवर पृष्ठ से सुसज्जित पुस्तक में आत्मकथ्य तथा आकलन के अलावा कुल इकसठ (61) कविताएँ हैं जो कि दो खण्डों में ( ऐसे खतरनाक समय में तथा जीवनराग ) बटी हुई एक सौ बावन पृष्ठों में संग्रहित हैं। पुस्तक की प्रायः हर कविता राष्ट्रीय स्तर के प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी है इसलिए उसके स्तर का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।
कवि की कविताओं की खूबसूरती की बखान किन शब्दों मैं करूँ यह मेरे लिए एक चुनौती है।
वैसे प्रत्यक्ष को प्रमाण क्या… इसीलिए मैं कवि के आत्मकथ्य की ही चंद पंक्तियों से ही शुरुआत करती हूँ –
मेरे लिए अन्तः की असह्य अकुलाहट ही अभिव्यक्ति का सर्वाधिक सशक्त जरिया है कविता, गीत – नवगीत। इस सन्दर्भ को ही कवि ने अपने आत्मकथ्य को एक नवगीत में बांधने की कोशिश की है, जिसकी कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत करती हूँ –

अंतर की
असह्य अकुलाहट
लिखने को उकसाये।

जब बँधुआ
मज़ूर की बेबस
सिसकी पड़े सुनाई,
खस्सी के आगे
धर जाई

हँसे ठठात कसाई
अदहन – से
उबले विचार में
दुश्मन दाल गलाये…….

आत्मकथ्य में ही आगे कवि लिखते हैं –

मगर यह हिन्दी कविता का दुर्भाग्य है कि मुक्त छंद की अतुकांत कविता ही समकालीन कविता के रूप में रुढ़ हो गई और गीत को गलदश्रु भावुकता का पर्याय मान लिया गया तथा इसकी मौत की भी बकायदा घोषणा कर दी गई……………..
मेरा स्पष्ट मानना है कि कविता अगर देह है तो गीत उसकी आत्मा। कविता यदि जिंदगी है तो गीत उसकी धड़कन। अतः गीत की बदौलत ही जिंदगी और उसकी जीवंतता बरकरार है।……..

कवि ने कुछ ऐसे
जब सिकोड़ लें
पंख तितलियाँ
और चहकना
भूल जाये चिड़ियाँ……

संग्रह की पहली ही कविता जिन्दा है गाँव में कवि की संवेदना घर लीपने वाले पोतन तक के लिए भी जागृत हो जाती है –

पता नहीं किसने रख छोड़ा था
उसका नाम – पोतन
निरर्थकता में भी बोध सार्थकता का
हर तरह से पहनने में नाकाबिल
फटा – चिटा चिरकुट
डुबोकर जिसे पानी – पियरी माटी के घोल में
गृहणियाँ लीपती – पोतती हैं – चूल्हा – चौका
और पसर जाता है रसोई पकाने के लिए
एक जरूरी पवित्र सोंधापन

कवि ने उम्र के आख़िरी पड़ाव पर पहुँचे व्यक्ति की भावनाओं पर पैनी दृष्टि रखते हुए बहुत मार्मिक ढंग से सत्य और सटीक चित्रण किया है  –

एक और दिन का इजाफ़ा 

आयु की ऊँचाई पर पहुँचकर
जब वे करते हैं कोई ऊँची सी बात
तो हम सिगरेट के धुएँ – सा
छल्ला बनाकर
उड़ाते हैं उनका मज़ाक –

उम्र के इस आखिरी पड़ाव पर
नाती – पोतों पर उनकी निर्भरता
बना देती है उन्हें हर तरह से परजीवी
अंदर- ही – अंदर कुढ़ते
राख की आग से सुलगते
बन कर रह जाते हैं वे
आत्मजीवी व अतीतजीवी
बैठा दिये जाते हैं
खेत में पड़े बिजुके – से
मकान के किसी फालतू कोने – अंतरे में
जहाँ उलझे रहते हैं वे
परम्परा, पोंगापंथी, और पोथी पतरे में ……………..

रात – रात भर करते हैं जिंदगी का लेखा-जोखा
बुनते हैं स्मृतियों का इन्द्रजाल
आते – जाते हैं चिर – परिचित आत्मीय चेहरे
सालता है अपनो का परायापन
पत्नी की बिछुड़न
और बेटे, बहू पोते, पतियों की भीड़ में
उनका निपट अकेलापन
लोगों को हैरत होती है उन्हें जीवित देखकर
मगर क्या सचमुच ज़िन्दा हैं वे?
क्यों ज़िन्दा हैं वे?

तभी जगा देती है उन्हें
दूध पीती उनकी पड़पोती
और निजात मिल जाती है
अंतहीन प्रश्नों की चुभन से
पोपले मुँह से गा उठते हैं प्रभाती
एकाएक भर जाते हैं
अग्नित्व व बालसुलभ उष्मा से
और हो जाता है उनकी लम्बी उम्र में
एक और दिन का इजाफ़ा।

कवि की लेखनी स्त्रियों की अस्मिता से परिचित करवाती हुई कुछ यूँ चली है –

आखिर क्या हो तुम?
आँगन की तुलसी
फुदकती – चहकती गौरैया
पिंजरे में फड़फड़ाती परकटी मैना
अथवा किसी बहेलिये के जाल में फँसी
बेबस कबूतरी?

तुम्हारे माथे पर
दहकता हुआ सिंदूर है
भट्ठे की ईंट है
टोकरियों का बोझ है
या काला – कलूटा पहाड़?
पहाड़
जिसे तुम ढोती हो अपने माथे पर
अनवरत /जीवन पर्यन्त……………..

गंगा – 1
सांस्कृतिक थाती में कवि ने गंगा का परिचय देते हुए लिखा है –

पतित पावनी गंगे। माँ भारती।
नहीं है तुम्हारा नाम
किसी नदी /महानदी का
अर्वाचीन, प्राचीन अथवा इक्सवीं सदी का
नहीं हो तुम पूजा – अर्चना मात्र
तुम तो हो एक लोक आस्था
जिसके कदमों में श्रद्धा से झुक जाता है माया
भारतीय संस्कृति की इकलौती थाती
तुम्हीं तो हो माँ।
तुम्हारी ममतामयी गोद में
खेलते – कूदते
किलकते हैं करोड़ों नवजात
मुरझाए अधरों पर नाच उठती है
मुस्कान की लहलहाती फसल
और थिरक – थिरक उठता है मन – मयूर

तुम्हारा जल नहीं मन का दर्पण है
भारतीयता के प्रति सच्चा समर्पण है………………

जब कवि की पैनी दृष्टि साहब के अट्टहास पर पड़ती है तो उनकी बेबाक लेखनी ठेठ बिहारी हिन्दी में लिखती है –

कुर्सी में धँसे काठवत
साहब का अट्टहास
कितना धाँसू /कितना विस्फोटक
कि आ जाता है सकते में
पूरा महकमा
कठुआ जाता है माहौल
काठ हो जाती है हवा
और सकपका उठते हैं मातहत
जैसे बुरे सपने देख
चकचिहा जाता है
किलकारी मारता बेसुध बबुआ……………….

कवि ने बच्चों के आने पर अपनी संवेदनाओं को यूँ अभिव्यक्त किया है –

तुम्हारे आने पर
लगा मानो
ऊसर में ही सीना ताने
अंकुरित हो आया हो बीज……….

तुम्हारी तुतली बोली की मिठास से
मुझे एकाएक मिल गई निजात
पारिवारिक कलह व खुद के अकेलेपन से
और चतुर्दिक मिसरी घोलने लगी
कलरव – किलकारी – कहकहों की
खुशनुमा अनुगूँजों की इन्द्रधनुषी उजास
जैसे एक बार फिर
लौट आया हो मेरा बचपन……………….

कवि जीवन राग में रोशनियों के मोती शीर्षक नामक गीत में लिखते हैं –

आप बड़े हैं
बहुत बड़े हैं
हम तो छोटे जन हैं

आप शीर्ष
मंचों की शैभा
दरी बिछाते हैं हम
बैठ ज़मीं पर
उजबुक- से
तालियाँ बजाते हैं हम

नारे – बैनर
झंडे को
कांधे पर ढोते जन हैं………………

कवि सोचिए श्रीमान जी। कविता में तो सचमुच हमें सोचने पर विवश कर दिये हैं –

कौन है
कितना निकम्मा
सोचिए श्रीमान जी।

आप तो
धन की तुला पर
नेह नाते तोलते,
सिर्फ मतलब
से ही मतलब
मान हरदम खौलते
हैं विवश
क्यों सेठ धन्ना?
सोचिए श्रीमान जी…………………..

चलते चलते कवि की कलम देश के लिए लिखती है –

क्रान्ति वीर ने
देश के लिए
प्राण गँवाए थै।

उनका जाना
महज एक
जीवन का अंत नहीं था,…………..

कवि हिन्दी भाषा को कुछ यूँ परिभाषित करते हैं –

भाषा बहती नीर
हमारी हिन्दी है,
तहज़ीबी तासीर
हमारी हिन्दी है।

इसमें गंगा जमुनी
संस्कृतियों की लय,
जन – मन की आशा
अभिलाषा का संचय

साखी – सबद – कबीर
हमारी हिन्दी है।

अम्मा के आँचल का
दूध भरा इसमें,
आखर – आखर स्नेह –
सुमन पसरा इसमें

हम सबकी तकदीर
हमारी हिन्दी है।………….

कवि की लेखनी एकाकी परदेशी के दर्द को यूँ बयाँ करती है  –

उमड़े जन सैलाब मगर
है एकाकी परदेसी

शिखरों में भी कूट – कूटकर
भरा हुआ बौनापन
रिश्ते काँचो की किरचें
करता आहत अपनापन

निरख रहा चिलमन के
पीछे से झाँकी परदेसी।

वैसे तो कवि उत्तर प्रदेश बलिया से हैं, किन्तु उनकी कर्मभूमि बिहार रही है तो बिहारियों की तारीफ़ करना कैसे भूल सकते हैं –

जीवटता के धनी, बिहारी।
तेरी जय हो।

कीचड़ में रह कमल सरीखे खिलते आए
विधि गति वाम काल कठिनाई दाएँ – बाएँ
ऊसर – बंजर में भी बहा पसीना तर – बरू
काँटों में बिंधकर गुलाब – से फूल खिलाए
तुमने कभी न हिम्मत हारी,
तेरी जय हो।…………………

कवि की कलम परमार्थ हेतु नयी कोपलों की खातिर कुछ यूँ चली है –

तुम्हें मुबारक
रश्मि दूधिया
चकाचौंध वाली
हम तो दियना – बाती
तम में
जलते जायेंगे।

परीकथा – से
स्वर्ण – जड़ित दिन
रातें रजतमयी,
तुम्हें क्या पता,
सपना देखे
सदियाँ बीत गयीं।

तुम्हें मुबारक
हो बसंत की
आयातित थिरकन,
नयी कोपलों
की खातिर
हम झरते जायेंगे……………..

कवि की लेखनी प्रिया को सौन्दर्यबोध करवाते हुए लिखती है –

अन्तर्मन का
कल – कल – छल – छल,
लहरों पर
उठता – गिरता जल
भीतर बहती
एक नदी हो तुम।

मलय पवन की
खुशबू लेकर,
सोनजुही
चंपा सी बेकल
झुकी डाल – सी
पुष्पलदी हो तुम ।

आमंत्रण का
भाव जगाती
कला अजंता
को झुठलाती
रसिक काव्य की
चतुष्पदी हो तुम।

कवि की रचनाओं में भोजपुरी लोकोक्तियों और मुहावरों का खूबसूरत समन्वय देखने को मिलता है।
उनकी रचनाएँ चाहे छन्द मुक्त हों या छन्द बद्ध अपने कथ्य को बहुत ही सरलता, रोचकता एवम् प्रभाव पूर्ण तरीके से गढ़ी गई हैं।
इस प्रकार कवि की कलम करीब – करीब प्रत्येक विषय को बहुत ही निपुणता से उठाते हुए अपने कथ्य को बड़े ही खूबसूरती से अपने पाठकों तक पहुँचाने की बीड़ा उठाई है जो निश्चित ही प्रशंसा की पात्र है जो कि पुस्तक पढ़ने के पश्चात ही पाठक समझ पायेंगे।

मैं कवि की प्रखर लेखनी को नमन करते हुए उनकी इस कृति की जी खोलकर सराहना करती हूँ। आज के इस दौर में  ऐसी रचनाएँ हमें बिरले ही पढ़ने को मिलती हैं।
मैं माननीय कवि को इस कृति के लिए हार्दिक बधाई देते हुए कामना करती हूँ कि आगे भी हम पाठकों को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ने को मिलती रहेंगी।

किरण सिंह

लेखक – भगवती प्रसाद द्विवेदी

प्रकाशक – अमिधा प्रकाशन

मूल्य – 300 ( तीन सौ रुपये )

अर्णव

सागर का अथाह जल भले ही खारा हो । उसका विशाल स्वरूप भले ही भयभीत करते हों । किन्तु उनकी लहरें जब हमें आमन्त्रित करती हैं तो हम अपने आप को रोक पाने में विफल हो जाते हैं।
यूँ ही नहीं स्वयं जल से लबरेज नदियाँ भी खारे पानी वाले सागर से मिलने के लिए निरन्तर चलती रहती हैं। समाहित हो जाना चाहती हैं वह सागर में । कुछ इसी तरह से कवयित्री पूनम आनंद जी की लेखनी सरिता चलते-चलते समाहित हो गई है भावों के अर्णव में। जिसका स्वाद कुछ मीठा, कुछ खारा तो कुछ नमकीन सा हो गया है, या यूँ कहें कि उनकी लेखनी ने पाठकों के लिए एकरसता से विलग समरसता के भावों से ओतप्रोत सृजन कर डाला है ।
मैं बात कर रही हूँ Punam Anand जी के काव्य संग्रह अर्णव की जो रंगबिरंगे आवरण में लिपटी जीवन के कई रंगों को चित्रित करती हुई प्रतीत होती हैं।
एक सौ छत्तीस (136) पृष्ठों में संग्रहित इस पुस्तक में समर्पण, अभिनन्दन के अलावा कुल पचहत्तर (75) रचनाएँ हैं, जो कि छन्द मुक्त काव्य विधा में लिखी गई जीवन के हर रंगों को उकेरने का प्रयास कर रही हैं।
कवयित्री स्वयं से प्रश्न करती हैं –

रंग बिरंगे फूल खिले हैं
मन का कोना क्यों है सूना?

जिंदगी के सबसे खूबसूरत रंग प्रेम रंग को कवयित्री कुछ इस तरह से परिभाषित करती हैं –
प्रेम
इन्द्र धनुष की तरह
सतरंगी रंगों में लिपट
अपने इर्द-गिर्द समेटे
अनेक ख्वाबों की तरह
एक खूबसूरत एहसास है

जब कवयित्री का प्रेम परवान चढ़ता है तो कुछ यूँ लिखती हैं –

सिंदूरी साँझ झाँक रही
दिल मेरा नादान रे!
ऐसे न देखो तुम तिरछी नज़र से,
ओ बावरे! प्रेम चढ़ा परवान रे ।

प्रेम को ही विस्तार देते हुए कवयित्री देश प्रेम की गाँठ बंधते हुए लिखती हैं –

अपने उर के आँचल में हम
देश प्रेम की गाँठ बांध लें

कवयित्री प्रकृति और फुदगुदी चिरैया को महामिलन की साखी बतलाते हुए लिखती हैं –

महा मिलन की शाखी है ये प्रकृति
और फुदगुदी चिरैया चिर
शुरू हुआ सदियों पूर्व का एक सफर,
जो आदि से अंत का गवाह बन रहा

चिरैया से याचना करते हुए कवयित्री लिखती हैं –

मेरी गुस्ताखियों की सजा मेरे सूने पड़े मन – आँगन को न दो।
मेरे मुंडेर की शोभा बढ़ाने ओ चिरैया तुम आया करो।

बसंती बयार से प्रश्न करती हुई कवयित्री लिखती हैं –

ओ बसंती बयार
तुम कहाँ चली?

कवयित्री जिंदगी में रिश्तों को जोड़ती हुई लिखती हैं –

तिनका – तिनका जोड़कर रिश्तों की बुनियाद जमाई
पाई – पाई जोड़ कर जमा पूंजी बचाई।

खामोशी में कवयित्री चेतावनी देती हैं –

मेरी खामोशी को नजरअंदाज मत करो।
ये गर्म लावे की तरह है
कभी भी फूट सकती है

कवयित्री स्मृतियों में भ्रमण करती हुई लिखती हैं –

सुनकर उनकी राम कहानी
भर आया आँखों में पानी।
कहाँ गई वो दादी – नानी ,
कौन सुनाये मुझे कहानी ।
कहाँ गई काग़ज़ की कस्ती……….

कवयित्री माँ का अभिनन्द करते हुए लिखती हैं –
हे माँ! तुम्हें मेरा अभिनन्दन
शत् – शत् चरणों में वंदन

आगे लिखती हैं –

सीप में मोती जैसे
ममता अपने संजोती
धीरज के सेतु बांध
चेतना की ज्योति जलाती है माँ।

कवयित्री पत्रकार के रूप में स्वयं को खड़ा कर बनकर लिखती हैं –

मैं पत्रकार कहलाता हूँ
कलम की नोक से लिखकर
तलवार सी धार बनाता हूँ।
जान हथेली पर रखकर
जांबाजों का जज्बा रखता हूँ।

कविता डर में कवयित्री डर से परिचय करवाते हुए लिखती हैं –

मैं डर हूँ ।
मुझे पहचाना आपने?
शक्ल मेरी डरावनी नहीं
पर अक्ल मुझे देखते ही मारी जाती है।
दर-असल मैं हूँ एक मात्र कोरी कल्पना…….

इस तरह से इस संग्रह की सभी कविताएँ अलग – अलग भावों के रंग में रंगी हुई हैं। अतः हम कह सकते हैं कि यह पुस्तक पठनीय है।
इस पुस्तक के लिए कवयित्री पूनम आनंद जी को हार्दिक बधाई देते हुए शुभकामनाएँ देती हूँ कि उनका साहित्य का यह सफर यूँ ही अविराम चलता रहे।

किरण सिंह

रचनाकर – पूनम आनंद
प्रकाशक – विद्या विहार ( नई दिल्ली)
मूल्य – दो सौ पचास ( 250) रूपये

विसर्जन

जिंदगी ही कहानी है या कहानी ही जिंदगी है इस प्रश्न का ठीक-ठीक उत्तर देना थोड़ा उलझन भरा हो सकता है इसलिए जिंदगी और कहानी को एक दूसरे का पूरक कहना ही सही होगा। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति

पढ़ना जारी रखें “विसर्जन”