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शगुन के स्वर

शगुन के स्वर- परंपरा को सहेजते गीतों का संग्रह

“बन्नी आई चुपके से बन्ने के ख्वाब में
बन्नी बोली बन्ने से कंगन ले के आना
जो भी किये हो वो वादे निभाना
मुझको पहनाना तुम अपने हाथ से
बन्नी आई चुपके….
किरण सिंह विवाह का अवसर ढोलक की थाप, मजीरे का संग और हवा में तैरते लोकगीतों, देवी गीतों और बन्ना बन्नी साथ में होती ननद-भौजाई की चुहल, लड़के वालों और लड़की वालों के बीच जवाबी तान... कौन सा ऐसा भारतीय मन होगा जिसने स्मृतियों की गांठ में ये सहेज कर ना रखा हो l परंतु बदलते समय के साथ पश्चिमी सभ्यता की ऐसे आंधी चली कि हम अपनी ही परंपरा को भूलने लगे l डी जे के कानफोडू शोर में परंपरा की मिठास कहीं खो गई l विदेशी लिबास में भारतीय मन अतृप्त रह गया l एक पीढ़ी बाद जब होश आया तो ढोलक पर झूम-झूम कर गाने वाली एक पीढ़ी हमसे विदा ले चुकी थी l ऐसे में ज़रूरी हो गया कि कुछ लोग आगे आयें और उसे सहेजे l

किरण सिंह जी ने एक साहित्यकार होने के नाते ये बीड़ा उठाया और ले कर आई “शगुन के स्वर” जिसमें विवाह के समय गाए जाने वाले गीत हैं l इसके गीत दो भागों में विभाजित हैं l पहले वो जो पारंपरिक रूप से गाए जाते हैं और दूसरे जो किरण जी के स्वरचित है l कविता, कहानी और बाल साहित्य की पुस्तकों के बाद लोक के लिए उनका ये अनूठा कार्य है l लोकगीतों की हमारे देश की समृद्ध शाली परंपरा को सहेजते गीतों का यह संग्रह अद्भुत है। मोबाइल में होने के कारण इसे किताब ले जाने या याद रखने के झंझट के बिना आसानी से गाया जा सकता है। अब इसे देखिए—
होत सबेरे कृष्ण जागेले
होत सबेर कृष्ण जागेले
बंशिया बजावेले है 2

ए जागहुँ जग-संसार
चलहुं राधा खेल्न हे 2

इसे पुस्तक के रूप में लाने का कारण वो अपनी बात में स्पष्ट करती हैं कि, “मुझे याद हैं वो बचपन के दिन जब गांवों में शादी विवाह के दिनों में या तीज त्योहारों में गीतों की स्वर लहरी से सारा वातावरण गूंज उठता था l वैसे ये प्रथा गांवों में आज भी जिंदा है, परंतु दुख होता है कि सहारों में उस प्रथा और ढोलकी की थाप की जगह डी जे ने ले ली है l इसी कारण मैंने इसे संग्रह के रूप में लाने की ठान ली l

नई पीढ़ी को अपने पारम्परिक स्वाद से परिचित कराने के साथ साथ दहेज का विरोध करने वाला दूल्हा एक शिक्षा व आश्वासन है कि बहु ही असली दहेज है को शिरोधार्य किया जाए। इस हुंकार को तिलक के समय ढोलक की थाप पर गाए गीत की एक बानगी देखिए…
आदतें अपनी अब दो बदल
नहीं तो बड़ा महंगा पड़ेगा
मांगेगा जो भी दहेज
वो लड़का कुंवारा रहेगा
लेकिन बदलते पुरुष को भी उन्होंने देखा है और वो भी जवाब में दहेज लेने से इंकार करते हैं

“ दहेज मैं क्या करूँगा
मैं तो साले जी दिल का राजा
बन्नी दिल की रानी
दहेज मैं क्या करूँगा तो अंत में यही कहूँगी कि सहलगे शुरू हो गई है और अगर आप भी अपनी परंपरा को सहेजते इन गीतों को गाना – गुनगुनाना चाहते हैं तो ये एक अच्छा विकल्प है l

प्रिय मित्र किरण सिंह जी के इस अद्भुत प्रयास के लिए बहुत बहुत बधाई व शुभकामनाएं।

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शगुन के स्वर

परंपरा को सहेजते गीतों का संग्रह

“बन्नी आई चुपके से बन्ने के ख्वाब में
बन्नी बोली बन्ने से कंगन ले के आना
जो भी किये हो वो वादे निभाना
मुझको पहनाना तुम अपने हाथ से
बन्नी आई चुपके….
किरण सिंह विवाह का अवसर ढोलक की थाप, मजीरे का संग और हवा में तैरते लोकगीतों, देवी गीतों और बन्ना बन्नी साथ में होती ननद-भौजाई की चुहल, लड़के वालों और लड़की वालों के बीच जवाबी तान... कौन सा ऐसा भारतीय मन होगा जिसने स्मृतियों की गांठ में ये सहेज कर ना रखा हो l परंतु बदलते समय के साथ पश्चिमी सभ्यता की ऐसे आंधी चली कि हम अपनी ही परंपरा को भूलने लगे l डी जे के कानफोडू शोर में परंपरा की मिठास कहीं खो गई l विदेशी लिबास में भारतीय मन अतृप्त रह गया l एक पीढ़ी बाद जब होश आया तो ढोलक पर झूम-झूम कर गाने वाली एक पीढ़ी हमसे विदा ले चुकी थी l ऐसे में ज़रूरी हो गया कि कुछ लोग आगे आयें और उसे सहेजे l ताकि मेंडोना और रिहाना की उत्तेजक धुनों पर थिरकती हमारी हमारी आने वाली पीढ़ियाँ हमारी समृद्धशाली विरासत से वंचित ना रह जाए, जिसकी मिठास हमारे रिश्तों की जड़ों को सींचती हैl

किरण सिंह जी ने एक साहित्यकार होने के नाते ये बीड़ा उठाया और ले कर आई “शगुन के स्वर”l जिसमें विवाह के समय गाए जाने वाले गीत हैं l इसके गीतों में लगभग हर अवसर पर गाए जाने वाले गीत हैं l जैसे हल्दी गीत, मेहंदी गीत, बन्ना-बन्नी गीत, लग्न गीत, तिलक गीत, सिंदूर दान के गीत, द्वार पूजा के गीत, बैठिकी गीत, जनेऊ गीत आदि आदि l मोटे तौर पर ये गीत दो भागों में विभाजित हैं l पहले वो जो पारंपरिक रूप से गाए जाते हैं और दूसरे जो किरण जी के स्वरचित है l अतः हिन्दी और भोजपुरी दोनों ही गीतों का समावेश है l

कविता, कहानी और बाल साहित्य की पुस्तकों के बाद लोक के लिए उनका ये अनूठा कार्य है l लोकगीतों की हमारे देश की समृद्ध शाली परंपरा को सहेजते गीतों का यह संग्रह अद्भुत है अब इसे देखिए—
होत सबेरे कृष्ण जागेले
होत सबेर कृष्ण जागेले
बंशिया बजावेले है 2

ए जागहुँ जग-संसार
चलहुं राधा खेल्न हे 2

इसे पुस्तक के रूप में लाने का कारण वो अपनी बात में स्पष्ट करती हैं कि, “मुझे याद हैं वो बचपन के दिन जब गांवों में शादी विवाह के दिनों में या तीज त्योहारों में गीतों की स्वर लहरी से सारा वातावरण गूंज उठता था l वैसे ये प्रथा गांवों में आज भी जिंदा है, परंतु दुख होता है कि शहरों में उस प्रथा और ढोलकी की थाप की जगह डी जे ने ले ली है l इसी कारण मैंने इसे संग्रह के रूप में लाने की ठान ली l
बेटे के विवाह का जोग देखिए –
माई हे डिब्बा भरल जोग भेज देली हो
एतवार मंगल के -2

दूल्हा परिछावन गीत

तोहरा को देखनी दूल्हा
बकरी चरवत हो
कैसे -किसे अटलS दूल्हा
बाबा के पसंद हो

मउरी गीत

अरे पूरब के देशवा में अईली मिलनिया
हथवा में मउरी लिए खाड़ l

जनेऊ गीत
काशी में खाड़ बउरवा, जनेउआ जनेउआ करे
आरे केही हउवन काशी के मालिक जनेउआ दियाइब
काशी के मालिक विश्वनाथ से हो उठी बोलीले
आरे हम हैं गया काशी के मालिक जनेउआ दिलाइब

इसी तरह से हर छोटे-बड़े अवसर के गीत किताब में संग्रहीत हैं l
अगर आप गौर करेगें तो देखेंगे कि हमारे लोकगीत स्त्री का रुदन मात्र नहीं हैं वो बहुत प्रगतिशील हैं, जो पुरातन रूढ़ियों को गिराकर नए भविष्य की स्थापना करते हैं l पुस्तक को पढ़ते हुए मुझे बचपन में सुन स्त्री की शिकायत का लोकगीत याद आ रहा था,
“हमने सहीं दुख पीरे, सैंया के लाल कैसे कहाये जी”
गीत में लड़की हर किसी के पास जाती है पर ससुराल का हर व्यक्ति कहता है कि, बात तो तुम्हारी सही है, पर लाल तो बेटे के ही कहे जाएंगे, तुम्हारे कैसे ?
फिर वो रोते-पीटते शिकायत ले कर मायके जाती है, वहाँ तो गेम ही अलग है 😊 l सब कहते हैं “अरे नादान , बच्चा तो तुम्हारा ही कहलाएगा, दामाद जी का कहाँ कहलायेगा l
सच ही हैं, मायके में बच्चे बेटियों के नाम से ही जाने जाते है l साथ ही मान का नाम भी दर्ज़ हो की वकालत भी करता है यह गीत l
अब इस किताब में नई पीढ़ी को अपने पारम्परिक स्वाद से परिचित कराने के साथ साथ दहेज का विरोध करने वाला दूल्हा, एक शिक्षा व आश्वासन है, कि बहु ही असली दहेज है को शिरोधार्य किया जाए। इस हुंकार को तिलक के समय ढोलक की थाप पर गाए गीत की एक बानगी देखिए…
आदतें अपनी अब दो बदल
नहीं तो बड़ा महंगा पड़ेगा
मांगेगा जो भी दहेज
वो लड़का कुंवारा रहेगा
लेकिन बदलते पुरुष को भी उन्होंने देखा है और वो भी जवाब में दहेज लेने से इंकार करते हैं

“ दहेज मैं क्या करूँगा
मैं तो साले जी दिल का राजा
बन्नी दिल की रानी
दहेज मैं क्या करूँगा
अगर इस किताब के कवर की बात नहीं करी तो जैसे बात अधूरी ही रह जाएगी l गोबर लिपि मिट्टी पर देशी अल्पना बना हुआ इसका कवर इतना सुरुचिपूर्ण है कि आपको काफ़ी देर तक वहीं रोके रखने में सक्षम है l मेरी भी हालत कवर देख कर ऐसी ही हुई थी और लगा था कि, “छत्र को सराहें या सराहें छत्रपाल को” l खैर श्वेतवर्णा से प्रकाशित 124 पेज की इस किताब में कुल मिलाकर 75 गीत सम्मिलित हैं, जो पाठक को मात्र 250 रुपये में उपलबद्ध हैं l और ये ऐसी किताब है जो साहित्यिक, गैर साहित्यिक, असाहित्यिक, आम -खास हर पाठक वर्ग के लिए है l तो चलते-चलते यही कहूँगी कि कि किरण जी ने “शगुन के स्वर” के माध्यम से एक बड़ा काम किया है और अगर आप भी अपनी परंपरा को सहेजते इन गीतों को गाना – गुनगुनाना चाहते हैं तो ये किताब आपके लिए है l

प्रिय मित्र किरण सिंह जी के इस अद्भुत प्रयास के लिए बहुत बहुत बधाई व शुभकामनाएं।

सुषमा

आज विज्ञान ने इतनी तरक्की कर ली है कि इंसान चाँद पर घर बनाने की बात कर रहा है, क्या वही विज्ञान सासों का अपनी बहु के लिए हृदय परिवर्तित नहीं कर सकता। अगर कोई वैज्ञानिक अपनी ईजाद से ऐसा हृदय परिवर्तन कर सका तब मैं समझूंगी तरक्की कर ली है, तब दुनिया स्वर्ग होगी, वर्ना मुझ जैसी हजारों – लाखों सुषमाएँ टूट कर बिखरती रहेंगी।

उपरोक्त पंक्तियां सम्मानित लेखिका डाॅ शहनाज़ फातमी जी का उपन्यास “सुषमा” से मैंने ली है। कितनी सच्चाई है न इन पंक्तियों में। हम लाख आधुनिकता का दावा कर लें लेकिन स्त्रियों की दशा में कुछ खास सुधार नहीं देखने को मिलता है।
आए दिन नारी संवेदना के स्वर गूंजते रहते हैं। द्रवित करते रहते हैं हॄदय को। पर प्रश्न यह उठता है कि इन स्थितियों का असली दोषी कौन है?
पुरुष या स्वयं नारी ?
कहँ होता है महिलाओं की शोषण घर या बाहर ?
किससे करें फरियाद? किससे माँगे अपना हक? उस पिता से जिन्हें पुत्री के जन्म के साथ ही उसकी सुरक्षा और विवाह की चिन्ता सताने लगी थी या फिर भाई से जिसने रक्षाबंधन पर अपनी बहन की रक्षा करने का वादा किया था।
बेटियाँ तो नैहर से विदा होते समय भी आगे अपना पाँव बढ़ाती हैं और पीछे अपनी अंजुरी से चावल के माध्यम से अपना आशीर्वाद बिखेरती हुई ससुराल को सजाने संवारने चली जाती हैं क्योंकि वह बचपन से ही सुनती आई हैं कि बेटियाँ दूसरे घर की अमानत हैं। बेटियाँ तो मायके की मेहमान हैं आदि – आदि।
यही बात बेटियों के मन पर घर कर जाती है और वे अपने नैहर को छोड़ कर अपने सेवा – सत्कार, प्यार तथा समर्पण की मिट्टी से लीप देती हैं पिया का आंगन। यह संस्कार वह अपने साथ खोइचे में हल्दी, दूब, धान के साथ बांध कर मायके से लाती हैं और
ससुराल पक्ष भी यही अपेक्षा रखता है कि उनकी पुत्रवधू लक्ष्मी , सरस्वती , और अन्नपूर्णा का रूप हो, वह अपने साथ ऐसी जादुई छड़ी साथ लेकर आए जो छड़ी धुमाते ही ससुराल के सभी सदस्यों की मनोकामनाएं पूर्ण कर दे या फिर बहू के रूप में कोई ऐसा रोबोट आये जो बटन दबाने के साथ ही सारा काम निपटा दे। अच्छी बहुएं भी अच्छी बहु बनने के लिए अपनी इच्छाओं का गला घोट कर ससुराल वालों को खुश करने में लग जाती है फिर भी उसे बात – बात पर ताने सुनने को मिलते हैं। बेटियाँ अपने बारे में तो सहन कर लेती हैं लेकिन जब उनके मां – बाप को ताने सुनाये जाते हैं तो वे तिलमिला जाती हैं। लेकिन ताने सुनाना तो ससुराल वालों का एक तरह से मौलिक अधिकार ही बन जाता है । बहू के रूप में मिली नौकरानी के कामों में ज़रा सी भी गलतियाँ माफ़ करने के काबिल नहीं होतीं। अगर सास खुद बहु से अपने माफिक काम करवाने में असफल हुई तो शुरू कर देती है अपने बेटे का कान भरना। बेटे को भी यही संस्कार दिया जाता है कि माँ सर्वोपरि है तो कुछ बेटे ममाज ब्वाय बनकर रह जाते हैं। वह ये बात भूल जाते हैं कि विवाह के समय वे भी सात वचन अपनी पत्नी को दिये होते हैं।
सवाल यह उठता है कि आखिर क्यों बेटियों का दर्द सुनाई देता है और बहुओं की आह नहीं ?
बेटियों का कौन सा अपना घर है, मायका या ससुराल ?
यदि ससुराल है तो क्यों ताने दिये जाते हैं मायके को ?
कबतक होती रहेगी महिलाएं घरेलू हिंसा की शिकार
? क्यों नहीं सुनाई देता है सास बनते ही नारी को नारी की संवेदना के स्वर ?
इन्हीं सवालों का जवाब मांग रही है सम्मानित लेखिका “शहनाज़ फातमी” जी के उपन्यास की नायिका “सुषमा”। जो अपनी हर इच्छाओं की तिलांजलि देकर ससुराल वालों को तन – मन, धन से खुश रखने की कोशिश करती है। इसके लिए वह घरेलू सभी काम करती है। जब उसके अपने जुड़वा बच्चे हो जाते हैं तो बच्चों की अच्छी तरह से परवरिश हो इसके लिए नौकरी भी कर लेती है। इतने पर भी परिवार की जरूरतों को पूरी नही कर पाती तो लेखन कार्य में भी लग जाती है। ससुराल वालों को सुषमा का कमाया हुआ पैसा तो अच्छा लगता है लेकिन एक प्रतिष्ठित लेखिका बनने के बाद उसे मंचों पर आमन्त्रित किया जाता है तो उसका जाना – आना ससुराल वालों को बर्दाश्त नहीं होता है। उसके ससुराल वाले और पति उसको चरित्र हीन का दर्जा दे देते हैं। तंग आकर कभी-कभी सुषमा के मन में आत्महत्या का विचार भी आता है लेकिन वह इसलिए जीना चाहती है ताकि वह एक अच्छी सास बनकर दुनिया को दिखा सके कि सास भी माँ बन सकती है।
जब ससुराल वालों की क्रूरता हद से अधिक बढ़ जाती है तो सुषमा मानसिक विकृति की शिकार हो जाती है। ऐसे में उसके क्रुर ससुराल वाले उसे मायके छोड़ देते हैं। अन्ततः उसे पागलखाना जाना पड़ता है। आगे की कहानी के लिए कौतूहल बना रहे इसलिए छोड़ देती हूँ।
यह उपन्यास “स्पर्श प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। मुखपृष्ठ कहानी के अनुरूप ही आकर्षक है।
पुस्तक के पन्ने सामान्य हैं और छपाई बिल्कुल स्पष्ट है। कहीं-कहीं प्रुफ़ की कमी खटकती है लेकिन कहानी इतनी ज्यादा अच्छी है कि यह गौड़ हो जाता है। कुल मिलाकर 144 पृष्ठों में लिखी गई यह कहानी अपने उद्देश्य में सफल है।
मैं पाठकों से कहना चाहूंगी कि इस उपन्यास को जरूर पढ़ें।
पुस्तक की लेखिका आदरणीया ” Shahnaz Fatmi ” जी एवम् प्रकाशक Jyoti Sparsha को हार्दिक बधाई एवम् शुभकामनाएँ।

किरण सिंह

घूरे का हंस

साहित्य हो या समाज, सबकी नज़र में स्त्री ही शोषित होती है। समाज पुरुष सत्तात्मक कहा जाता रहा है पर हम समाज के बदलाव को नहीं देख पा रहे। स्त्री अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ते-लड़ते कब पुरुष को ही अपना दुश्मन समझने लगी, ये शायद हम देखना ही नहीं चाहते। स्त्री पुरुष दोनों मिलें तभी समाज बनता है लेकिन आधुनिकीकरण की दौड़ और पुरुष से बदला लेने की मानसिकता कब परिवार को खत्म करने पर अमादा हो गई, इसपर किसी का ध्यान ही नहीं। हम स्त्री – विमर्श को तो जरूरी समझते हैं पर पुरुष के साथ होने वाली ज्यादती पर कोई बात नहीं करना चाहता।
उपरोक्त पंक्तियां मैंने सुप्रसिद्ध साहित्यकार “अर्चना चतुर्वेदी जी के सद्य प्रकाशित उपन्यास #घूरेकाहंस में लेखिका के अपनी बात” मर्द को भी दर्द होता है से ली है।
सच भी है कि समाज को स्त्रियों की पीड़ा तो महसूस करता है किन्तु समाज का दूसरा पहलू कि पुरुष भी महिलाओं के द्वारा प्रताड़ित हो रहे हैं नहीं देख पाता । इसका एक कारण यह भी है महिलाएँ अपनी पीड़ा अपने मायके या सखी – सहेलियों से कहकर सहानुभूति बटोर लेती हैं लेकिन पुरुष अपनी पीड़ा अपने मन में ही दबाये रखते हैं। उन्हें भी यह संस्कार मिला होता है कि “अपनी हार और बीवी की मार किसी से नहीं कहनी चाहिए। यही वजह है कि वह महिलाओं के खिलाफ़ अपनी आवाज़ नहीं उठाते। शायद वह यह सोचते हैं कि हम अपनी आवाज़ उठायेंगे भी तो हमारी पीड़ा को समझेगा कौन? नहीं रोते हैं कि पुरुषों का रोना अच्छा नहीं लगता।
ऐसे में सीधे – सादे , शरीफ और संस्कारी लडके अपनी माँ – बहन और पत्नी के बीच पिसते रहते हैं।

महिलाओं के पक्ष में तो कानून भी बने हुए जिसका कुछ महिलाएँ समूचित दुरूपयोग कर रही हैं। जो कानूनी हथियार उनकी सुरक्षा के लिए उन्हें दिये गये हैं उन्हें वह बेकसूर पति व ससुराल वालों के खिलाफ धडल्ले से इस्तेमाल कर रही हैं। उनका डिमांड नहीं पूरा होने पर झूठा मुकदमा दर्ज कराने से भी नहीं चूकतीं। कुछ महिलाओं का तो मुकदमा करने का उद्देश्य ही ससुराल वालों को डरा धमाका कर धन ऐठने का होता है जिसमें उनके माता – पिता का भी समर्थन होता है। वो लोग अपनी बेटियों का इस्तेमाल सोने के अंडे देने वाली मुर्गी की तरह करते हैं।
क्यों बनती हैं महिलाएं खलनायिका ?
क्यों करती हैं विध्वंस ?
क्यों नहीं बहू बेटी बन पाती ?
क्यों नहीं अपनाती ससुराल के रिश्तों को ?
क्यों बनती है घरों को तोड़ने का कारण ?
क्यों उन्हें सिर्फअधिकारो का भान रहता है और कर्तव्यों का नहीं ?
आखिर मर्द का दर्द कब समझेगा यह समाज?
इन्हीं प्रश्नों का हल ढूढ़ रहा है “घूरे का हंस ” का नायक “रघु” ।
कहानी की शुरुआत होती है चार पोतियों के बाद पोते के जन्मोत्सव से। जिसमें गांव भर में मिठाइयाँ बांटी जाती है। कर्ज लेकर नामकरण किया जाता है और साथ ही साथ माता-पिता और चारों बहनों का बोझ उस जन्मजात पर डाल दिया जाता है। क्योंकि बेटा जन्म ही लेता है माता-पिता के बुढ़ापे की लाठी बनने और बहनों की रक्षा करने के लिए। अपने ससुर और पति से परेशान रघु की माँ रघु में अच्छा संस्कार डालती है और उसे सामाजिक विकृतियों से दूर रखती है। माँ के संस्कारों की बदौलत रघु पर गांव के बिगड़ैल बच्चों की छाया भी नहीं पड़ पाती। फलस्वरूप रघु पढ़ने-लिखने में काफी मन लगाने लगा। आर्थिक तंगी के बावजूद भी उसका दाखिला शहर के अच्छे काॅलेज में हो तो जाता है फिर उसकी समस्या आती है रहने की। फिर रघु को उसके मामा अपने घर में रखते हैं लेकिन वहाँ उसके साथ ऐसी घटना घटती है कि वह अपने मामा का घर छोड़ कर कहीं और किराये पर रहने लगता है। समस्या उसका पीछा वहां भी नहीं छोड़ती। वहाँ मकान मालिक की बेटी के प्रपोज को रघु ठुकरा देता है जिसे वह बर्दाश्त नहीं कर पाती और उल्टा रघु पर ही झूठा इल्ज़ाम मढ़ देती है जिसकी वजह से मकान मालिक उसे पीट – पीटकर उसका बोरिया – बिस्तर बाहर फेंक देता है।
फिर रघु को एक दोस्त कुछ दिनों के लिए अपने घर रखता है। उसके बाद रघु को हास्टल मिल जाता है।
वहाँ उसे देवता के समान भाई मिलता है। रघु अपने लक्ष्य की प्राप्ति तो कर लेता है लेकिन समस्या उसकी अब और अधिक बढ़ने लगती है। कर्कषा पत्नी के द्वारा प्रताड़ित किया जाता है। कहानी का अंत पाठकों को रुला देता है।
कहानी में पुरुष पीड़ा के साथ – साथ स्त्रियों की भी पीड़ा दिखाई गई है कि कैसे रघु की बहन को दहेज के लिए जला दिया जाता है। कैसे बिना दहेज के उसकी बहन का बेमेल विवाह होता है आदि – आदि।
बाकी कहानी पुस्तक में पढ़ियेगा तो काफी अच्छा लगेगा ।
चूंकि लेखिका एक सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार हैं इसलिए इनकी शैली भी व्यंगात्मक और रोचक है जो उन्हें आज के समय में सबसे अलग खड़ा करता है।
कहानी व्रज की पृष्ठभूमि से तैयार की गई है तो व्रज भाषा का प्रयोग भरपूर मिलता है।
पुस्तक का कवर पृष्ठ भी कहानी के अनुरूप ही सटीक है। पन्ने स्तरीय हैं और छपाई स्पष्ट है तथा प्रुफ़ की गल्ती बिल्कुल भी नहीं है। अतः प्रकाशक भी प्रशंसा एवम् बधाई के पात्र हैं।
कुल मिलाकर यह उपन्यास अपने उद्देश्य में सफल है। मुझे विश्वास है कि भविष्य में इस कहानी पर फिल्म अवश्य ही बनेगी।
पुरुष विमर्श पर पहल के लिए मैं लेखिका की भूरि भूरि प्रशंसा करते हुए उन्हें हार्दिक बधाई एवम् शुभकामनाएँ प्रेषित करती हूँ।

किरण सिंह
पुस्तक का नाम – घूरे का हंस
लेखक का नाम – अर्चना चतुर्वेदी
प्रकाशक का नाम – नीरज बुक सेंटर ( Bhavna Prakashan )
पृष्ठ संख्या – 160
मूल्य – 250 रुपये

होली है

त्याग द्वेष हम रंग प्रेम का, चलो लगायें होली है

शब्दों में कुछ भंग भाव के, घोल मिलायें होली है 

राग – रंग के उबटन से, अपने अन्तः को मल – मल कर 

जमें हुए कटुता के सारे, मैल छुड़ायें होली है 

चलो होलिका की अग्नि में, चिंताओं को झोंककर 

पलकों में सुन्दर भविष्य का, स्वप्न सजायें होती है 

जो भड़ास है दिल में अपने, खुलकर उसे निकालें हम  

हाथ बढ़ाये दुश्मन भी तो , हाथ मिलाएं होली है 

जो जी में आये हम बोलें, जो जी मे आये करें, 

शेरो – शायरी, गीत – ग़ज़ल लिख, सुने – सुनायें होली है। 

अक्षर – अक्षर जोड़ किरण हम शब्द सजाकर जादूई, 

मीठी – मीठी गाली गाकर, रंग जमायें होली है । 

कृष्ण की बाल लीलाओं का रोचक चित्रण

समीक्षा: कृष्ण की बाल लीलाओं का रोचक चित्रण प्रभात कुमार राय समीक्ष्य पुस्तक , “ श्री कृष्ण कथामृतम् “ , किरण सिंह जी के बाल साहित्य की श्रंखला में नई रचना है। “ राम कथामृतम् “ के बाद कवयित्री ने कृष्ण की बाल लीलाओं का अनोखे ढंग से चित्रण किया है। हिन्दी साहित्य की विविध विधाओं में दर्जनाधिक पुस्तकों की रचना कर कवयित्री ने काफ़ी ख्याति अर्जित की है।इन्हें विभिन्न साहित्यिक संस्थानों द्वारा उत्कृष्ट रचनाओं के लिए पुरस्कृत किया गया है। इनकी रचनाएँ स्तरीय पत्र- पत्रिकाओं में प्रमुखता से प्रकाशित हुईं हैं। समकालीन बाल साहित्य में इनका अवदान उल्लेखनीय है। हिन्दी के प्रख्यात साहित्यकार एवं मूर्द्धन्य आलोचक डॉ नामवर सिंह की मान्यता है: ‘ बाल साहित्य लिखना एक दुष्कर कार्य है लेकिन छोटों के लिए छोटों की भाषा में , बहुत कठिन कार्य है।’ इस परिप्रेक्ष्य में “ श्री कृष्ण कथामृतम् “ की रचना श्लाघनीय है। कवयित्री ने ‘ बच्चों के नाम चिट्ठी ‘ में आत्मीयता परिलक्षित करते हुए बाल पाठकों से स्पष्ट और सीधा संवाद स्थापित किया है। पुस्तक में सरल शब्दों का प्रयोग बालकों द्वारा प्रयुक्त शब्दों की बहुलता (फ़ेल, सॉरी, खिटपिट, बॉटचूट, झिडकी, गुर्राकर, घुड़की इत्यादि ) कुशल संप्रेषणीयता एवं सहज प्रवाहमयता का परिचायक है। दरअसल बाल पाठक अपनी मनपसंद रचनाओं से भी मित्रवत् हो जाता है। कुल 17 छोटे अध्यायों में श्री कृष्ण जन्म से लेकर कृष्ण- सुदामा की मित्रता तक की लीलाओं का क्रमिक रूप से अत्यल्प शब्दों में प्रभावकारी वर्णन किया गया है। कृष्ण बचपन से कई आकस्मिक आपदाओं का सामना करने तथा कंस के षड्यंत्रों को विफल करने के कारण बहुत लोकप्रिय हो गये थे। श्री कृष्ण ने समय- समय पर अद्भुत एवं अलौकिक लीलाओं के माध्यम से लोगों को विश्वास दिलाया कि वे सोलह कलाओं से संपन्न मानव नहीं वरन् महामानव विष्णु के अवतार हैं। दिनकर जी ने कहा हे कि कहानी में मनोविज्ञान का जो स्थान है , ‘ कविता में चित्रात्मकता का वही महत्त्व है।’ कविता की पंक्ति - पंक्ति में चित्र उगाते चलना , सचमुच ही प्रतिभा- संपन्नता का प्रमाण है। कविताओं में पुनरुक्ति, दोहराव तथा अनुप्रास का प्रचुर प्रयोग ( घुम-घुम, गिन-गिन, खन- खन, भागी-भागी, , मंद- मेद, धम्म- धम्म, गाँव- गॉव, ऐसी-तैसी, अच्छे-अच्छों , धुन-धुन, नगर- नगर, दौड़े-दौड़े आदि ) जहाँ भावों और विचारों को स्पष्टता प्रदान करता है, वहीं बाल पाठकों को पंक्तियों स्मरण करने में भी सहायक होगी । साथ ही , ऐसा प्रयोग बाल पाठकों के लेखन कौशल को विकसित करने में कारगर सिद्ध होगा। बाल पाठकों को मुहावरों के सटीक प्रयोग सीखने में भी सहूलियत होगी। यथा: ‘ बोले बाँस रहेगा तब तो वंशी यहाँ बजेगी । अगर बाँस ही कट जाय तो किसकी दाल गलोगी।’, ‘ उड़े पखेरू प्राण कंस के ‘, ‘ बिजली जैसी चाल आ गई’ इत्यादि। मेरे विद्यालय के पाठ्यक्रम में भक्तिकाल के महाकवि , श्री कृष्ण के अनन्य उपासक , ब्रजभाषा के श्रेष्ठ कवि , सूरदास की कविताएँ , ‘ सोभित कर नवनीत लिए ....’, ‘जसोदा हरि पालने झुलावै ...,’ शामिल थीं। कवयित्री द्वारा कृष्ण की बाल लीलाओं के सूक्ष्म एवं लालित्यपूर्ण निरूपण पढ़ते वक़्त सहसा महाकवि सूर के वात्सल्य वर्णन स्मृति पटल पर कौंध गया। आचार्य रामचंद्र शक्ल ने कहा है कि ‘ सूर वात्सल्य का कोना- कोना झोंक आये हैं।’ श्री कृष्ण कथामृतम् में भी कवयित्री ने बाल मनोविज्ञान के विविध चित्रों को बख़ूबी उकेडा है।

सूरदास ने लिखा है:

“ धन्य सूर एकों पल रहहिं सुख का सतकल्प लिए’ ‘ देख रूप बसुदेव कुमर कौ, फूलियों अंग न मायों ‘ अब उसी आशय का कवयित्री की पंक्तियों का अवलोकन करें : ‘ देख मनोहर रूप कृष्ण का , तृप्त हुई सब आॉखें , किरण कल्पना की पाखी को, मिली फड़कती पॉखें।’ ‘ मन में भोले कृष्ण कन्हैया , भोली उनकी सूरत, जैसे कोई कलाकार ने , गढ़ दी मोहिन मूरत नील गगन के रंग सुहाना , आॉखें सागर जैसी , बाल रेशमी घुंघराले से , छँटा छिड़ी हो वैसी ।।’ इस रचना में प्रश्नाकुलता, विस्मय, रहस्य, रोमांच, संवेदना, बाल- गोपाल की अठखेलियाँ , बाल सुलभ चेतनाएँ , नटखटपन, कल्पनाशीलता , क्रीड़ाएँ , कौतूहल तथा चंचलता आदि का वर्णन कवयित्री ने मौलिकता से किया है। बालकों की जिज्ञासा की पूर्ति के लिए रागात्मक लगाव अवाधित रहे , इसकी भरपूर चेष्टा की गई है।बाल सुलभ भाषा में रचित यह खंड काव्य कविता को नई दिशा प्रदान करती है ओर् रूचिकर भाषाई प्रयोग से पढ़ने की लोलुपता जगाती है। पुस्तक के हर पृष्ठ पर मोर पंख और बंशी का बहुरंगी चित्र ( दोनों ही श्री कृष्ण की अतिप्रिय चीज़ें हैं ) , पठन के वक़्त सार्थक प्रासंगिकता की ओर इंगित करता है। कान्हा की पसंदीदा चीज़ों का ध्यान पढ़ने वक़्त नि:संदेह बाल पाठकों को उनका कृपाभाजन बनाएगा। भारतीय संस्कृति में हमेशा से ही मित्रता का महत्त्व रहा है।हमारे जीवन में माता- पिता और गुरू के बाद मित्र को स्थान दिया गया है। राष्ट्रकवि दिनकर ने लिखा है : ‘ मित्रता बड़ा अनमोल रतन / नहीं तौल सकता इसे कोई धन ।’ जब भी मित्रता की चर्चा होती है तो लोग द्वापर युग वाली कृष्ण- सुदामा मित्रता की मिसाल देना नहीं भूलते । जब कृष्ण बचपन में ऋषि संदीपन के यहाँ गुरूकुल भेजे गये थे तो उनकी मित्रता सुदामा से हुई थी। किसी कवि ने कहा है : “ कृष्ण सुदामा मित्रता , देती है संदेश/ ऊँच- नीच से दूर है, मित्रों का परिवेश ।’ कवयित्री ने इसका मनोहारी वर्णन अंतिम अध्याय में किया है तथा समरसता और समता का पाठ भी बच्चों को सिखाया है। कवयित्री ने लिखा है: ‘ परिपाटी थी वही उस समय , नहीं आह वे भरते / राजा हो या रंक वहाँ पर, सभी एक सा रहते ।’

‘ धन्य आपके मित्र कृष्ण है, धन्य आप हैं स्वामी/ कष्ट लिए हरि ने हर अपने , वे हैं अंतर्यामी ’। इस बाल खंड काव्य की भाषा सरल- सरस है। छंदबद्ध पंक्तियाँ आॉखों से प्रविष्ट होकर अल्पवयी पाठकों के मस्तिष्क एवं हृदय तक छाप छोड़ेगी । पुस्तक का आर्ट पेपर पर सुमुद्रण , नयनाभिराम आवरण एवं संदर्भयुक्त चित्रात्मकता आकर्षक है।

समीक्षक – प्रभात कुमार राय

पुस्तक का नाम – श्री कृष्ण कथामृतम्

लेखक का नाम – किरण सिंह

प्रकाशक – श्वेतवर्णा प्रकाशन

प्रकाशन वर्ष – 2023

पृष्ठ संख्या – 80

मूल्य – 250

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राजनीति की रीति

रीति राजनीतिक चली आई |

मनमाफिक दल बदलो भाई ||

शक्ति लगा दो उनपर सारी। 

जिसका भी हो पलड़ा भारी।।

छिपी जीत इसमें ही मानो।

मूलमंत्र तुम भी लो जानो ।। 

जो जीता है वही सिकन्दर। 

पहले चाहे रहे छछुन्दर।। 

बहुत जरूरी है चतुराई। 

कूटनीति तुम सीखो भाई। 

राजनीति में सब है जायज। 

नीति अनिति का भ्रम तुम दो तज।। 

तभी सफल होगे तुम भाई। 

कहता अन्तर्मन रघुराई।। 

समय देख कर पलटो पासा। 

इस विधि पूर्ण करो अभिलाषा।। 

राम – नाम की जय – जय बोलो।

बन्द हृदय पट को अब खोलो । 

रामा पार करेंगे बेड़ा। 

खाओ एड़ा बनकर पेड़ा ।। 

अन्तर्धवनि

अन्तर्ध्वनी… एक सहज ध्वनि जो कुण्डलिया में रच बस गयी — ऋता शेखर ‘मधु'(समीक्षा)

स्वयं के संग्रह छपवाना और चयन द्वारा प्रकाशित होना, दो अलग अलग भाव सम्प्रेषित करता है।
बिहार राजभाषा परिषद द्वारा चयनित कुण्डलिया संग्रह “अन्तर्ध्वनी” की लेखिका श्रीमती किरण सिंह जी है। सर्वप्रथम उन्हें बधाई प्रेषित करती हूँ कि बिहार सरकार द्वारा उनकी रचनाएँ चयनित की गई हैं और प्रकाशन के लिए अनुदान की राशि मिली।
पुस्तक की भूमिका सुप्रसिद्ध साहित्यकार आ0 भगवती प्रसाद द्विवेदी जी द्वारा लिखी गयी है। रचनाओं के बारे में उन्होंने जो लिखा वह पुस्तक में पढ़ियेगा। मैं यहाँ उनके आशीर्वचन उद्धृत कर रही हूँ। यही भाव हमारे भी होंगे।

सदा अधर पर फूलों-सी मुस्कान रहे,
भौरों का संगीत सरीखा मान रहे,
जैसी भी हो चाह, राह सब खुले-खिले
नहीं अधूरा कोई भी अरमान रहे।
— भगवती प्रसाद द्विवेदी

दिनकर की वह है किरण, लिए चली उत्साह।
जादू जैसी लेखनी, भरती सतत प्रवाह।।
भरती सतत प्रवाह, शब्द हो जाते कुसुमित।
सरस् सरल हर भाव, सहज होते है पुष्पित।
पूरी हो हर चाह, मधु लुटाएँ वह सबपर ।
सखी किरण के साथ, सदा मुस्काएं दिनकर।।
— ऋता शेखर

अब पुस्तक पर आते हैं।
अपनी बात में किरण जी ने विस्तार से अपनी लेखन यात्रा का ज़िक्र किया है। छंदमुक्त से छंदयुक्त तक का सफर उन्होंने कविता में पिरोकर अपनी बात रखी है। अभी तक में उनकी बहुत सारी पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिसका जिक्र भी उन्होंने किया है।
उन्होंने अपनी कुंडलियाँ कुल 19 विषयों के अंतर्गत रखी हैं। प्रथम विषय प्रार्थना में माँ सरस्वती, माँ दुर्गा, पार्वती, सूर्य, श्रीराम, श्रीकृष्ण एवं शिवजी की आराधना की गई है।
माँ विषय पर चार कुंडलियाँ हैं। एक कुण्डलिया में गौरैया का बिम्ब लिया गया है जो मुझे बहुत अच्छी लगी।

चुन चुन दाना चोंच में, लाती बारम्बार।
देख अचंभित में हुई, माँ बच्चों का प्यार।।
माँ बच्चों का प्यार, देखकर मैंने सच्चा।
सीखा गुण दो चार, लगा जो मुझको अच्छा।
कहे किरण कर यत्न, सोचती क्यों घबराना।
गौरैया हर बार, खिलाती चुन चुन दाना ।।

पिता विषय पर चार कुंडलियाँ में मुझे यह सबसे अच्छी लगी।

संकट छोटा हो अगर, माँ चिल्लाते आप ।
आया ज्यों संकट बड़ा, कहें बाप रे बाप ।।
कहें बाप रे बाप, बचा लो मेरे दादा ।
सूझे नहीं उपाय, कष्ट जब होता ज्यादा।
पिता प्रकट हो आप, हटाता पथ का कंटक।
रखकर सिर पर हाथ, पिता हर लेता संकट ।।

कृषक के लिए लेखिका ने छह कुंडलियाँ लिखी हैं। यह उनकी संवेदनशीलता को दर्शाता है। कृषक की कर्मठता, उसके सपने, उसका प्रहरी जैसा रूप , भारत को कृषि प्रधान देश कहकर लिखना तथा कृषक के लिए गांव की प्रगति को महत्व देना कवयित्री की उच्च कोटि की सोच को दर्शाता हैं।
प्राकृतिक सुषमा में उनकी लेखनी ने खूब सौंदर्य बिखेरा है। सूरज, चाँद, हरियाली, सब कुछ ही है।
स्त्री विमर्श की कुंडलियाँ में लेखिका ने एक बात पर विशेष बल दिया है कि नारी, नारी की दुश्मन नहीं होती। ये नर द्वारा बने गए जाल हैं।

सदियों से ही नर यहाँ, बुनते आए जाल|
नार, नार की शत्रु है, कहकर चलते चाल ||
कहकर चलते चाल, जरा तुम समझो इसको |
डाल रखे हैं फूट, दोष बोलो दूँ किसको |
कहे किरण, हे नार ! करो कुछ विषय समझ के|
धो दो सभी कलंक, लगा है जो सदियों से ||

विषय ‘प्रीत की पाती’ पर कुल ३२ कुण्डलियाँ हैं | सभी एक से बढ़कर एक सरस हैं| पढ़ते हुए मन लेखिका के लिये स्वतः ही कह उठता है…’तू प्यार का सागर है…’| एक कुण्डलिया उद्धृत कर रही हूँ|

ज्यों उनको देखा सखी, गई हृदय मैं हार |
नींद चैन सब ले गया, छलिया राजकुमार ||
छलिया राजकुमार, श्रेष्ठतम पुरुष जगत का |
कर बैठी मैं प्यार, हुआ आभास अलग सा |
किया किरण ने प्रश्न, हो गया क्या मुझको |
ठगी रह गई हाय, देख ली मैं ज्यों उनको ||

वात्सल्य पर २ कुण्डलियाँ हैं | ‘मन की आँख’ विषय में २४ कुण्डलियाँ हैं| यह अंतर्ध्वनि को सही मायने में परिभाषित कर रहीं|लेखिका की सकारात्मक सोच की बानगी देखिए |

जो कुछ मिला नसीब से, हो जा उससे तुष्ट |
सबको सब मिलता नहीं, क्यों होना है रुष्ट ||
क्यों होना है रुष्ट, कोसना क्यों किस्मत को |
हम जिसके थे योग्य, दिया ईश्वर ने हमको |
जीवन से दो-चार, चुराकर खुशियाँ ले लो |
खुशी खुशी लो बाँट, ईश ने तुम्हें दिया जो ||

‘युग बोध के बाद किरण जी की लेखनी रिश्ते-नातों पर चली है इस |विषय से एक कुण्डलिया उद्धृत कर अपनी बात को विराम दूँगी| आगे के विषयों को पुस्तक में पढ़ें| जिन्हें छंदों से लगाव है वे तो अवश्य पसंद करेंगे, जिन्हें न हो, वे पसंद करने लगेंगे यह हमारा विश्वास है| एक सीख भरी कुण्डलिया देखिए|

रिश्तों पर विश्वास कर, जो हैं बहुत अजीज |
भूले से बोना नहीं, उर में शक के बीज |
उर में शक के बीज, अंकुरित हुए अगर जो |
आएगा तूञान, उठेगा हृदय लहर तो |
किरण सभी संबंध, रखा बंधक किश्तों पर|
धीरे- धीरे नेह, लुटाना है रिश्तों पर ||

आशा है आगे भी किरण जी की कृतियाँ पढ़ने को मिलेंगी | उनकी लेखनी सतत क्रियाशील रहे…
इन्हीं शुभकामनाओं के साथ…
ऋता शेखर ‘मधु’

पुस्तक परिचय
नाम- अंतर्ध्वनि
लेखिका- किरण सिंह
प्रकाशन- जानकी प्रकाशन

मूल्य – 300/-

पुस्तक अमेज़न पर उपलब्ध है।

जय श्री राम

जय श्री राम 🚩🚩

ज्ञान बांटते रहे लोग पर , हमने केवल राम लिखा ।
यूँ इतिहास के पन्नों पर, लो किरण तुम्हारा नाम लिखा।।

चलो सरयू के तट पर

सज गई अवध नगरिया जी, चलो सरयू के तट पर।
भर लायें खाली गगरिया जी, चलो सरयू के तट पर।

सरयू के तट पर दीपक जलाकर
अक्षत – चन्दन, फूल बिछाकर
मेरी सखियों सजाओ डगरिया जी चलो सरयू के तट पर।

आज राम जी घर आयेंगे
कर दर्शन हम तर जायेंगे
आओ संग में हमारे सांवरिया जी चलो सरयू के तट पर।

राम सिया की जय हो – जय हो
सभी दुखों का क्षय हो क्षय हो
बोलें खोल खुशी की गठरिया जी, चलो सरयू के तट पर।

आज सुरीली शाम सजायें
गीत सुन्दरम् लिख – लिख गायें
ज़रा लचकायें अपनी कमरिया जी चलो सरयू के तट पर।

पूर्वा: यथार्थ एवं प्रेरणाप्रद कहानियों का संग्रह -

प्रभात कुमार राय

किरण जी की नूतन पुस्तक ' पूर्वा' का नामकरण संग्रह में शामिल प्रतिनिधि कहानी के आधार पर किया गया है. इस संग्रह की कई कहानियाँ हिंदी साहित्य की उत्कृष्ट पत्रिकाओं में प्रमुखता से प्रकाशित हो चुकी हैं. रचनाकार हिंदी साहित्य की ख्यात एवं सशक्त हस्ताक्षर हैं. इन्होंने विविध विधाओं में यथा काव्य संग्रह, छन्द संग्रह, दोहा संग्रह, कुंडलियां, गजल संग्रह, विवाह गीत , लघु कथा, बाल साहित्य प्रभृति पर अधिकारपूर्वक एवं सहजता से स्तरीय लेखन किया है. लगभग सभी कहानियां रूचिकर तथा उपदेशात्मक हैं. अपनी रचनाओं के माध्यम से नारी के बदलते स्वरूप को लिपिबद्ध किया है. परिस्थितयों के मध्य बनते बिगडते पारिवारिक संबंधों, प्रेम संबंधों, मर्यादाओं तथा नैतिक मूल्यों के विभिन्न पक्षों को कथाकार अपनी दृष्टि से परखने का उत्तम प्रयास किया है. उनके दु:ख, घुटन, कुंठा, सामाजिक अवस्था तथा मानसिक चेतना को यथार्थता के साथ अंकित किया गया है. कहानियों में शिल्प, अंतर्वस्तु, भाषा- शैली का प्रभावी संतुलन है. रचनाकार ने मानव वेदना को गहरी संवेदना के साथ चित्रित किया है. कथाकार की चिंता की गंभीरता और विषय-चयन एवं उसके प्रस्तुतीकरण में मौलिकता की झलक मिलती है. कहानियां अनेक विषयों को स्पर्श करते हुए पाठकों को नि:संदेह प्रभावित करेंगी. इनमें मौलिक विश्लेषण और आत्मिक अनुभूति का बेजोड़ संश्लेष है. भाषा सरल है; कहीं भी कठिन या अप्रचलित शव्द संप्रेषणियता में बाधक नहीं बनते. इनकी कहानियों में जीवन की अभिव्यक्ति को स्थान दिया गया है. कथाकार का वैज्ञानिक दृष्टिकोण कई स्थलों पर परिलक्षित होता है. कहानी में कथाकार पात्रों का ऐसा बिंब बुनती हैं मानो हम यथार्थ से रूबरू हो रहें हों. लेखिका का जीवन के प्रति दार्शनिक दृष्टिकोण कई स्थलों पर पढने को मिलता है. 'मुझे स्पेस चाहिए' कहानी के इस नेरेशन पर गौर करें: " डार्लिंग, इन गुलाबों को अगर मसल भी दिया जाए तो भी ये सुगंध फैलाना नहीं छोड़ेंगे और देखो इन कांटो की फितरत को कि जिन्हें प्यार से छुओ भी तो वे चुभते ही. इसलिए हम अपना स्वभाव क्यों बदलें?" कथाकार द्वारा संक्षिप्त लेकिन प्रेरक कहानियों के माध्यम से वर्तमान एवं भावी पीढ़ियों को कई सीख और उपदेश दिया गया है जिसे अपनाकर जीवन में उत्कृष्टता हासिल की जा सकता है. 'सुपर माॅम ' कहानी में: " टाइम मैनेजमेंट सीख लिया है इसलिए पढाई और डांस क्लास दोनों ही कर लूंगा",......"अपनी मम्मी से वादा करने के बाद अर्चित ने पढाई और डांस के बीच तारतम्य स्थापित कर लिया. जिससे उसके मार्क्स तो अच्छे आने ही लगे, डांस में भी काफी शोहरत हासिल की." मेनेजमेंट के सिद्धांत को व्यावहारिकता की पुट के साथ लेखिका द्वारा प्रस्तुत किया गया है.

प्रचलित विदेशज शव्दों का भरपूर प्रयोग किया जाना लेखिका की भाषाई उदारता का द्योतक है. जैसे: ट्रेडिशनल, इंटरनल एग्जाम, मूड,क्लीयर,पेरेंट्स, एकाउंट, इम्प्लाई, ईयर बैक,अटेन्डेन्स, क्रेडिट, फास्ट ट्रैक एग्जाम, इंडिपेंडेंट, फारमेलिटी, सेलिब्रेट,इंगेगमेंट, एंटी एलर्जिक, स्मूथली आदि. ऐसे शब्दों का प्रयोग सटीक ढंग से किया गया है और कहीं भी इन्हें वाक्यों में इरादतन ठूसनें का आभास नहीं मिलता है. ऐसे शव्दों के प्रयोग से आर्टिफिशल इंटेलिजंस ( चैट जीपीटी) लेंग्वेज माॅडल में सहूलियत बढेगी. कृत्रिम बुद्धिमत्ता हिंदी के स्थायी भविष्य को सुनिश्चित करने में सहायक होगी. यूनेस्को के एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के 7200 भाषाओं में से लगभग आधी इस शताब्दी के अंत तक लुप्त होनें की कगार पर आ जायगी. कहानियों में रचनात्मकता एवं प्रयोगधर्मिता की छाप है.
पुरानी पीढी द्वारा देसज शव्दों का प्रयोग ग्राम्य परिवेश में उपजी कहानियों को स्वाभाविकता और यथार्थता प्रदान करता है. ” बिटिया, यही पढल- लिखल अऊर अनपढ में अंतर होता है.” ” जो कि माय के जइसन होती है…..कवनों कम नहीं है माय” ” जो मलिन- कुरूप होती है उन पर एसियल-फेसियल कराके सुन्नर बनता है”, ” बइठ के आराम से..”
प्रकृति-चित्रण द्वारा पात्रों की मनोदशा तथा आंतरिक स्थितियों का वर्णन काबिलेतारीफ है. ” बसंत ॠतु की हवाओं में ऐसा खुमार होता है कि बूंदें भी अपने आपको ….महसूस करने लगते हैं..” ” पूर्वा शरद ऋतु में भी पसीने से तर-बतर होने लगी.”
कथा-लेखिका यथार्थता के निकटतम पहुंचने के प्रयास में वर्णन करती है: ” मेरे स्नेह की उष्मा से उसकी वेदना का बर्फ पिघलकर ऑखों में सजल कर गई.” , ” मेरे दिल की धड़कनें सांसों के साथ युगलबंदी करने लगी.”, ” न तो उनकी आँखों में वो बात होती और न उनकी छुअन में वो पहले वाली गर्माहट. “
प्रचलित मुहावरों द्वारा भी कहानियों में भाव-प्रवणता एवं उपदेशों का संचार किया गया है. यथा: ‘ अति सर्वत्र वर्जयेत्’ , ‘ जहाॅ सुमति वहाॅ संपत्ति नाना , जहाॅ कुमति वहां विपद निदाना ‘
अंग प्रत्यारोपण में व्याप्त विसंगतियों को ‘दहेज’ शीर्षक कहानी में लेखिका ने मार्मिक ढंग से पेश किया है:” दलालों के माध्यम से किडनी खरीदने पर पचासों लाख खर्च हो जाते हैं उसमें भी पैसे लेने के बाद यदि डोनर भाग गया तो क्लेम भी नहीं किया जा सकता.”
भोगवादी और भौतिकतावादी सोच और अस्वस्थता की स्थिति में बेहिसाब खर्च को दर्शाते हुए कथाकार ने लिखा है:” वह सोचता ऐसी जिंदगी से क्या फायदा है न भर पेट खा सको, न पी सको. और-तो-और पानी भी नाप-तौल के ही पीना है, ऊपर से जो भी जमा पूंजी है, सब शरीर में ही लग जाना है…..”
‘ दहेज’ कहानी के एक स्थल पर वर्णित है:” इसी ऊहापोह में महेश बाबू ईश्वर को याद करने लगे क्योंकि जब आदमी को रास्ता नजर नहीं आता तो लाचारी की अवस्था में उसे ईश्वर की शरण में जाना पड़ता है.” राष्ट्रकवि दिनकर ने ‘ हारे को हरिनाम’ में इसी आशय की अभिव्यंजना की है.
‘ शिक्षित होना जरूरी है’ में लेखिका अंधविश्वास पर करारा प्रहार करती है तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ढोंगियों का पोल खोलती है:” ढोंगी बाबा मुझे शपथ देने लगे तो मैंने उनसे कहा; ‘ ये अपना ड्रामा किसी और को दिखाएगा, यहां आपकी दाल नहीं गलनेवाली है क्योंकि मुझे पता है कि फास्फोरस में बहुत हीट जेनरेट होता है जिसकी वजह से आग लग जाती है. आप चावल में फास्फोरस मिलाकर डरा रहें हैं.” कथाकार परंपरा की निरंतरता को आधुनिकता की आवश्यकताओं के अनुरूप ढाले जाने पर बल देती है. सच ही कहा गया है कि ऐसी कोई आधुनिकता नहीं होती जिसका महल परंपरा के कब्र पर बना हो. सामाजिक रूढिवादिता में एक जबरदस्त बदलाव की जरूरत है. परंपरा के प्रगतिशील और ऊर्ध्वमुखी तत्वों को आत्मसात कर ही आधुनिकता को सही परिप्रेक्ष्य में अपनाया जा सकता है.ज्येष्ठ पीढी का आधार पथ ही युवा पीढी को सही राह दिखाता है. संस्कृत की पुरानी उक्ति ' फलेन परिचीयते वृक्ष:' सटीक जान पड़ती है. यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज साहित्य में स्त्री-विमर्श सनसनीखेज हो गया है. लेखिका स्वस्थ स्त्री-विमर्श की पक्षधर हैं और इस संबंध में पूर्वाग्रह से मुक्त है. स्त्री-विमर्श की राह प्रतिशोध की बजाय प्रतिरोध की होनी चाहिए. सदियों से स्त्री एक ऐसा घर की तलाश में है जिसे वह अपना कह सके. जहां वह पहली सांसे लेती है, पलती - बढती है, वह पराया कर दिया जाता है. 'दहेज ' कहानी में : " शादी के बाद बेटियां तो परायी हो जाती हैं. उस पर मायके वाले से ज्यादा ससुराल वालों का हक होता है." ' मुझे स्पेस चाहिए ' में : " आजकल औरतें भी उनकी सुरक्षा के लिए बनाए गए कानून का इस कदर दुरूपयोग करने लगी हैं कि अब लड़के शादी करने से डरने लगे हैं." " सच तो यह है कि भले लाख कानून बने हैं लेकिन महिलाओं की दशा वहीं कई वहीं है." कथाकार स्त्री-विमर्श के विस्तृत फलक पर समाज की महिलाओं की पीड़ा को स्वर देने का प्रयास किया है. कहानियों में नारी विमर्श के स्वतंत्र भाव मुखरित हुए हैं. ' नारी सर्वत्र पूज्यते' हमारे राष्ट्र का सूत्र वाक्य है , अत: महिलाओं के साथ न्याय की अपेक्षा है. अपने समय के यथार्थ पर किरण जी की पकड़ की सराहना करनी होगी.कथा-लेखिका एक वाक्य में इतनी गहरी बात कह जाती है कि मन सोचने को विवश हो जाता है. इस संग्रह की कहानियों में भाषा की स्पृहणीयता, सहजता और स्निग्ध सर्जनात्मकता पाठकों को अवश्य रूचेगी.


सहज, उद्देश्यपूर्ण एवं नैतिक लघु बाल- कहानियाँ 

                                प्रभात कुमार राय

     किरण सिंह जी समकालीन हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं में लेखन के लिए स्थापित एवं चर्चित रचनाकार हैं। इनकी रचनाएँ हिंदी के प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रमुखता से प्रकाशित हई हैं। विभिन्न स्तरीय साहित्य संस्थानों द्वारा इन्हें उत्कृष्ट कृतियों के लिए पुरस्कृत किया गया है। इनकी कृति “ सुनो कहानी नयी पुरानी “ बाल- साहित्य को रोचक, प्रवाहमयी , सरल , उद्देश्यपूर्ण तथा नैतिक कथाओं के माध्यम से एक नया आयाम प्रदान करता है।

   सोवियत उपन्यास- सम्राट मैक्सिम गोर्की ने कहा था: “ बच्चों के लिए भी वैसे ही लिखना चाहिए जैसे बड़ों के लिए लिखते हैं बल्कि उससे बेहतर।” पुराने यशस्वी साहित्यकारगण बालकों के निमित्त कहानियाँ गढ़ी है यथा मुंशी प्रेमचंद, रवीन्द्र नाथ टैगोर, हज़ारी प्रसाद द्विवेदी , राम वृक्ष बेनीपुरी, सियाराम शरण गुप्त, मोहन राकेश, कमलेश्वर, रूडयार्ड किप्लिंग , निराला, रस्किन बान्ड  प्रभृति। भूतपूर्व राष्ट्रपति ए पी जे कलाम इसके प्रबल पक्षधर थे कि बच्चों में नैतिकता तथा सदाचार का बीजारोपण परमावश्यक है ताकि वे परिवार और समाज के सदस्यों को भी विचलन की स्थिति में टोक सके । समीक्ष्य पुस्तक से ऐसा प्रतीत होता है कि कलाकार इन्हीं भावनाओं से प्रेरित होकर बाल मनों पर प्रभाव डालनेवाली लघु कहानियों को गढ़ा है।

                 अपनी प्रस्तावना , “ एक चिट्ठी बच्चों के नाम “ में रचनाकार ने बाल पाठकों से सीधा संवाद स्थापित किया है जो उनकी सहज संप्रेषणीयता का परिचायक है। लघु बालकथाएं भारतीय संस्कृति, परंपरा, पर्व- त्यौहार , पौराणिक कथाआों एवं ज्वलंत समस्याओं को सीमित परिधि में सुनिश्चित दृष्टि से संकलित किया गया हे। मानवीय मूल्य निरंतर आध्यात्मिक मूल्यों पर आधारित रहा है। अत: कुछ कहानियाँ स्वाभाविक तौर पर मानवीयता और मानव कल्याण से संबद्ध एवं उद्देश्यपूर्ण हैं।संवेदना की सांद्रकता बाल पाठकों से सीधा सरोकार स्थापित कर उनके हृदय में स्थान बनाने में सक्षम हो  पायेगा।परदुखकातरता एवं संवेदनशीलता का सजीव चित्रण बाल मनों पर गहरी छाप छोड़ेगा ।

               हर कहानी में सार तत्व को सरलतम सूत्र- वाक्य में बताया गया है जो बच्चों में संस्कारशीलता को विकसित करने में सहायक होगा। बानगी के तौर पर इन शिक्षाप्रद संदेशों  का अवलोकन करें:

        होली पर्व का निहितार्थ:

    “ बुराई का प्रतीक होलिका के जलने और अच्छाई का प्रतीक प्रह्लाद के बच जाने की ख़ुशी में ही ये होली का त्यौहार मनाया जाता है।”

      दीपावली से मिलनी वाली शिक्षाएँ :

    “ वैज्ञानिकों के अनुसार दीये जलाने से मच्छर और कीड़े – मकोड़े दीयों की ओर जाते हैं और दीये से जलकर मर जाते हैं, इसीलिए भी दिवाली के दिन दीये जलाए जाते हैं।”

      “ मिट्टी के ही दीये जलाने चाहिए ताकि ग़रीब कुम्हारों की रोज़ी – रोटी न छिने ।” ( बेरोज़गारी की ज्यलंत समस्या से बच्चों को रू-ब-रू कराता है।)

      “ उतना भी नहीं समझती कि पटाखों से हवा प्रदूषित होती है।” ( प्रदूषण की समस्या से अवगत कराना)

      बच्चों में भगवत्भक्ति तथा लक्ष्य- प्राप्ति की भावना की जागृति:

      “ जिस मनुष्य को श्रीराम से प्रेम न हो , वह कितना भी प्रिय क्यों न हो उसको शत्रु समझ कर छोड़ देना चाहिए।”

      “ हे सरस्वती माता , मेरे मन पढ़ने में ख़ूब लगे ताकि मैं अपनी मम्मी- पापा के साथ अपना भी सपना पूरा कर सकूँ ।”

      सच्ची मित्रता एवं समता  का महत्त्व :

      “ बेटे, दोस्ती में ग़रीबी-अमीरी, ऊँच – नीच नहीं देखी जाती और दोस्तों की की छोटी-छोटी ग़लतियों को भी माफ़ कर देना चाहिए।”।       

      बच्चों को मितव्ययिता की पाठ:

    “ थोड़ी फ़िज़ूलख़र्ची कम करके तुम इन पैसों को बचाकर रखना क्यों कि बूँद-बूँद से ही सिंधु बना है।”

 स्वास्थ्य संबंधी निर्देश भी:

   “ खाना चबाकर खाना चाहिए क्योंकि जब आप चबाकर खाते हैं …….खाना अच्छी तरह पचेगा , और आप तंदुरूस्त रहेंगे।”

  खेलकूद और योग की भी शिक्षा:

   “ मैं अरसे रोज़ खेल कूद कर और योग करके पतला भी हो जाऊँगा।”

   पुस्तक – प्रेम जागृत करने का प्रयास:

   “ मैनें इस संदूक  में तुम्हारे लिए अच्छी-अच्छी कहानियों की किताबें भी ख़रीद कर रख दी है क्योंकि किताबें ही हमारी सबसे अच्छी दोस्त होती है।”

बच्चों को जिज्ञासु बनने तथा यम- नचिकेता  संवाद की चर्चा कर विद्या से अमरत्व की पाठ:

   “ नचिकेता को दुनिया का पहला जिज्ञासु माना जाता है और इसे आदर्श की तरह प्रस्तुत किया जाता है कि एक पाँच साल का बालक ने संसार का सारा सुख , धन दौलत , राज्य आदि के लालच में न पड़कर सिर्फ़ ज्ञान पाना चाहता है और पा भी लिया।”

               लेखिका ने इन कहानियों का सृजन सुचिन्तित तथा व्यवस्थित मन से किया है।सहज एवं स्वाभाविक रचनाशीलता अत्यंत सरल ओर सजीव रूप से बाल पाठकों को परोसा गया है। नैतिकता , संस्कारशीलता एवं प्रेरक तत्वों के अलावा बच्चों को कहानी लेखन की कला भी सिखाने में ये कथाएँ महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायेगी।कलात्मक एवं गहन भाषा की अपेक्षा आज- कल के बच्चों द्वारा  प्रयुक्त होनेवाली शब्दावली  का चयन नि:संदेह बाल पाठकों को   रूचिकर लगेगा।

      आवरण पृष्ठ कलापूर्ण और आकर्षक है। गेट-अप साफ़ सुथरा है तथा छपाई उत्तम है।