नित्य नई मैं
विषय बनूंगी
लिखो
काव्य
मैं प्रेरणा
हूँ
सात सुरो में
राग जिन्दगी
छेडो
तान
मैं वन्दना
हूँ
सरल सुन्दर
जीवन पथ पर
बढे
चलो
मैं चेतना
हूँ
तुमसे मैं हूँ
मुझसे तुम हो
पूर्ण हो
तुम
मैं अन्नपूर्णा
हूँ
चाह यही
उर में बस जाऊँ
करो
प्रेम
मैं प्रेम लता
हूँ
करो तपस्या
शांति स्थापना
करूंगी मैं
तेरी
साधना
हूँ
नील गगन में
चलो उड़ चले
डरो नहीं
मैं हौसला
हूँ
रंग हीन जो
चित्र दिखेंगे
भरो
रंग
मैं चित्रकला
हूँ
सॄष्टि का हम
सर्जन कर दें
तुम
पुरूष
मैं प्रकृति धरा
हूँ
सृष्टि का सर्जन कर दे तुम पुरुष मैं प्रकृति धरा हूँ…वाहः कमाल की पंक्तियाँ
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बहुत बहुत धन्यवाद ममता जी… मुखरित संवेदनाएँ से है!
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श्रद्धेया बहुत ही सुंदर लेखनी चलाते है आप जैसे माँ वीणापाणी स्वयं सृजन कर रही हों । ऐसा मन करता है ये धारा अविरल चलती जाये युगों युगों तक……वंदन
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इतनी खूबसूरत प्रतिक्रिया हेतु बहुत बहुत धन्यवाद आपका…..
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बहुत सुंदर कविता हैं
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बहुत बहुत धन्यवाद
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बहुत सुंदर!
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बहुत धन्यवाद
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वाह उत्तम सृजन
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वाह क्या कविता है
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