दुनिया जहान के सभी बच्चे फले , फूले, खुश रहें, अपने लक्ष्य को प्राप्त करें, उनके सपने साकार हों यही शुभकामना है |
हमने देखी है अक्सर ही स्त्रियों के समस्याओं को लेकर परिचर्चा होती रहती है , आये दिन स्त्री विमर्श देखने सुनने तथा पढ़ने को मिल जाता है लेकिन बच्चे जाने अनजाने ही सही अपने अभिभावकों द्वारा सताये जाते हैं इस तरफ़ कम ही लोगों को ध्यान जा पाता है! प्रायः सभी के दिमाग में यह बात बैठा हुआ है कि माता – पिता तो बच्चों के सबसे शुभचिंतक होते हैं इसलिए वे जो भी करते हैं अपने बच्चों की भलाई के लिए ही करते हैं।
इसलिए इस गम्भीर समस्या पर गम्भीरता से न तो समाज चिंतन करता है और न ही सामाजिक संगठन !
अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूर्ण करने के लिए माता पिता अपने बच्चों की आँखों में अपने सपने पालने को विवश कर देते हैं परिणामस्वरूप बच्चों का बालमन अपनी सहज प्रवृत्तियाँ खोता जा रहा है क्योंकि उन्हें भी तो टार्गेट पूरा करना होता है अपने अभिभावकों के सपनों का!
क्लास में फर्स्ट आना है, 100%मार्क्स आना चाहिए, 100%अटेंडेंस का अवार्ड मिलना चाहिए, उसके बाद एक्स्ट्रा एक्टिविटीज अलग से मानों बच्चे ” बच्चे नहीं कम्प्यूटर हो गये हों!
मैं आज भी खुद अपने बेटे के साथ की गई ज्यादती को याद करके बहुत दुखी हो जाती हूँ ! मेरा छोटा बेटा कुमार आर्षी आनंद दूसरी कक्षा में पढ़ता था! खेल – खेल में उसका हाथ फ्रैक्चर कर गया था , संयोग से उस दिन शनिवार था तो अगले दिन रविवार को भी छुट्टी मिल गई! बेटा हाथ में प्लास्टर चढ़ाये डेढ़ महीने तक लगातार स्कूल गया! वैसे स्कूल के स्टूडेंट्स और बच्चों का बहुत सपोर्ट मिलता था! तब मैं इतना ही कर पाई थी कि बेटे को स्कूल बस से न भेजकर खुद गाड़ी से ले आने ले जाने का काम करती थी ! स्कूल के बच्चों की सहयोगात्मक भावना से मैं अभिभूत थी क्योंकि तब बेटे के बैग उठाने को लेकर बच्चों में आपसी कम्पटीशन होता था! एक दिन तो जब मैं बेटे को स्कूल से लाने गई तो एक मासूम सी बच्ची मुझसे आकर बोली आंटी आंटी देखिये मैं आर्षी का बैग लाना चाहती थी लेकिन शाम्भवी मुझे नहीं उठाने दी रोज खुद ही उठाती है! मैं तब भाव विह्वल हो गई थी और उस बच्ची को प्यार से गले लगाते हुए समझाई थी!
एनुअल फंक्शन हुआ, मेरे बेटे ने क्लास में 98. 9%नम्बर लाकर क्लास में सेकेंड रैंक और 100%अटेंडेंस का अवार्ड भी प्राप्त किया! तब मेरे आँखों से आँसू छलक पड़े थे और गर्व तो हुआ ही था! लेकिन आज मुझे वह सब महज एक बेवकूफी लगता है जो मैंने अन्जाने में ही सही की थी! आज सोचती हूँ ऐसे में मुझे बच्चे को स्कूल नहीं भेजना चाहिए था!
मुझसे भी अधिक तो मेरी एक पड़ोसन सहेली बच्चों के पढ़ाई को लेकर बहुत गम्भीर रहती थीं उनका बेटा हमेशा ही क्लास में फर्स्ट करता था और हमेशा ही उसे 100%अटेंडेंस का अवार्ड मिलता था! एक दिन किसी कारण वश रोड जाम हो गया था तो वे बच्चों को रास्ते से ही वापिस लेकर आ गयीं! अचानक वो दोपहर में मेरे घर काफी परेशान हालत में आयीं! पहले तो उन्हें देखकर मैं डर गयी क्यों कि उनके आँखों से आँसू भी निकल रहा था फिर मैं उन्हें बैठाकर उनकी बातै इत्मिनान से सुनी तो पता चला कि उस दिन स्कूल खुला था और वे इस बात को लेकर रो – रो कर कह रहीं थीं कि बताइये जी हम बच्चे को बुखार में भी स्कूल भेजते थे बताइये जब रोड पर पथराव हो रहा था तो आज स्कूल नहीं न खोलना चाहिए था! उनका रोना और परेशान होना देखकर मेरा छोटा बेटा तो उन्हें समझा ही रहा था साथ में बड़ा बेटा भी समझाते हुए कहा आंटी आप इतनी छोटी सी बात के लिए क्यों परेशान हैं ” 100%अटेंडेंस का सर्टिफिकेट ही चाहिए न तो मैं आपको कम्प्यूटर से निकालकर अभी दे देता हूँ !
उनकी परेशानी देखकर मैं स्कूल में फोन करके भी गुस्साई कि जब रोड जाम था तो आज स्कूल क्यों खुला रहा, तो स्कूल वालों ने बताया कि कुछ बच्चे पथराव से पहले ही स्कूल आ चूके थे इसलिए स्कूल खुला रहा लेकिन आज का अटेंडेंस काउंट नहीं होगा , यह सुनकर मेरी सहेली के जान में जान आई!
कहने का मतलब है कि हमें बच्चों के एजुकेशन को लेकर गम्भीर होना चाहिए पर सुरक्षा तथा स्वास्थ्य की कीमत पर नहीं!
अति सर्वत्र वर्जयते!