फेसबुक पर लेखिका, समीक्षक मीनाक्षी जी के द्वारा की गई एक पुस्तक की समीक्षा पढ़ते हुए दीक्षा के मन में आ रहा था कि अभी पुस्तक आर्डर कर दें । वह खुद भी भी बहुत अच्छी कवयित्री, लेखिका व समीक्षक थी।
तभी अचानक मोबाइल पर मीनाक्षी जी का काॅल आ गया।
” अरे मैं आपकी लिखी समीक्षा पर टिप्पणी कर ही रही थी, वाकई आपकी लिखी समीक्षा का कोई जोड़ नहीं, ऐसी ही समीक्षा होनी चाहिए कि किसी का भी पुस्तक पढ़ने के लिए मन हो जाये। अभी देखिये न मैं पुस्तक ही आर्डर करने जा रही थी ।” दीक्षा ने मीनाक्षी जी की तारीफ़ करते हुए कहा।
” अरे नहीं मत मंगाइये, पुस्तक में कुछ खास नहीं है आपका पैसा व समय दोनों ही जाया होगा। “मीनाक्षी जी ने कहा।”
दीक्षा ” फिर आपने इतनी अच्छी समीक्षा क्यों लिखी?”
मीनाक्षी ” कभी-कभी लोग इतने प्यार से कहते हैं कि इन्कार नहीं किया जा सकता। “
इस प्रकार बातों-बातों में दीक्षा ने उनके द्वारा समीक्षा की गई और भी बड़ी – बड़ी लेखिकाओं, कवयित्रियों की पुस्तकों के बारे में पूछा तो मीनाक्षी जी ने सभी के बारे में कुछ न कुछ नकारात्मक बातें बताकर पुस्तक खरीदने के लिए मना कर दिया।
तभी दरवाजे की घंटी बजी और दीक्षा ने दरवाजा खोला तो देखा डाकिया एक पार्सल लेकर आया है। पार्सल भेजने वाले का नाम पढ़ते ही दीक्षा कौतूहलवश मीनाक्षी का काॅल काटकर जल्दी – जल्दी पार्सल खोलने लगी तो देखी कि पार्सल के अंदर वही पुस्तक है जिसकी वह समीक्षा पढ़ रही थी। पुस्तक को लेखिका ने सप्रेम भेट किया था।
चूंकि मीनाक्षी जी ने उस पुस्तक की आलोचना कर दी थी इसीलिए वह पुस्तक पढ़ने के लिए और भी उत्सुक हो गई कि आखिर पुस्तक है कैसी?
जब दीक्षा उस पुस्तक को पढ़ने लगी तो पढ़ती ही चली गई क्योंकि पुस्तक का कथानक, प्रवाह, कौतूहल प्रचुर मात्रा में था। लेखन शैली भी उत्कृष्ट थी।
पुस्तक पढ़ने के बाद दीक्षा के मन में बार – बार यह प्रश्न उठ रहा था कि आखिर मीनाक्षी जी ने पुस्तक की शिकायत की क्यों?
फिर कुछ सोचते हुए उसने वो सभी पुस्तकें आर्डर कर दिया जिसके लिए मीनाक्षी जी ने लेने से मना किया था।